निरुक्ति:-
धातु स्निह् + घञ् प्रत्यय (suffix) = ‘स्नेह’ शब्द
गुण:-
- गुरु
- शीत
- सर
- स्निग्ध
- मन्द
- सूक्ष्म
- मृदु
- द्रव (अ.सं. सू.25/4)
स्नेह योनि:-
- स्थावर
- जङ्गम ( च. सू .13/9 -11)
स्थावर स्नेह योनि=
- जो स्नेह पौधों तथा प्राकृतिक जमीन से मिले हों, जैसे –
जङ्गम स्नेह योनि=
- जो स्नेह जीव जन्तु आदि पक्षी से मिले हों, जैसे –
- दूध
- दही
- घी
- मांस
- मज्जा
- वसा
श्रेष्ठ स्नेह:-
- स्थावर स्नेह में –
- तैलों में – तिल तैल
- विरेचन के लिए – एरण्ड तैल
- जङ्गम स्नेह में-
- घृत
- वसा
- मज्जा
- घृत को सबसे श्रेष्ठ माना है –
- क्यूंकि घृत को जब दूसरे किसी द्रव्य के साथ उपयोग किया जाता है अर्थात संस्कारों द्वारा वह दूसरे के गुण को भी अपने अंदर ले लेता है।
स्नेह पाक कल्पना ?
- रोगी की चिकित्सा हेतु जो चिकित्सा में प्रयोग होने वाले कल्प बनाये जाते हैं, वह स्नेह कल्पना (Sneh Kalpana) से बनते है।
- घी, तैल आदि स्नेह को; क्वाथ, स्वरस, दूध, जल द्रव पदार्थ या औषध द्रव्यों के कल्क के साथ पकाकर जो कल्पना ➡ स्नेह पाक कल्पना कहते हैं।
स्नेह मूर्च्छन:-
- चरक, सुश्रुत संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग ह्रदय, शार्ङ्गधर सहिंता
- तथा डल्हण, चक्रपाणि दत्त, शिवदास सेन आदि सभी ग्रन्थों में स्नेह मुर्च्छन का विधान नहीं दिया गया।
- परन्तु योगरत्नाकर, शार्ङ्गधर सहिंता की गूढ़ार्थ दीपिका टीका, चक्रदत्त – रत्नप्रभा टीका और भैषज्यरत्नावली में इसका वर्णन मिलता है।
- घृत, तैल आदि स्नेहों की उग्रता, दुर्गन्ध, आमदोष को दूर करके; उसमें सुगन्ध, उत्तम वर्ण की उत्पत्ति ➡ सबसे पहले कुछ विशेष द्रव्यों के साथ पाक करना ही स्नेह मूर्च्छन कहलाता है।
- इससे स्नेह में औषधियों के गुण ग्रहण करने की शक्ति बढ़ती है।
स्नेह पाक विधि:-
स्नेह से 4 गुना द्रव और स्नेह का चतुर्थांंश (1/4) कल्क लेकर स्नेहपाक किया जाता है।
स्नेहपाक का नियम:-
- सभी आचार्यों के मतानुसार जहाँ पर जल, स्नेह, औषध का मान निर्दिष्ट नहीं किया हो, वहाँ पर
- औषध से स्नेह ➡ 4 गुना
- स्नेह से जल ➡ 4 गुना लेकर स्नेह पाक करने का सामान्य नियम बताया है।
स्नेहपाक में अधिक द्रव्यों का परिणाम:-
- स्नेहपाक में जहाँ – 5 से ज्यादा द्रव पदार्थ डालने का निर्देश हो ➡ हर एक द्रव स्नेह के समान मात्रा में डाले
- यदि 5 से कम द्रव हो तो – सभी द्रव द्रव्य को मिलाकर चुतर्गुण ही डाले जाते हैं।
स्नेहपाक काल:-
- स्नेह घृत, तैल, गुड़, आदि कल्पनाओं (Sneh Kalpana) को एक दिन में सिद्ध नहीं किया जाता
- क्योंकि ये सब स्नेह बासी होने पर विशेष गुणों का संचय करती है। ( शा.सं.म.ख.9/18)
स्नेह | स्नेहपाक होने का समय |
दूध | 2 रात्रि |
स्वरस | 3 रात्रि |
तक्र | 5 रात्रि |
दही | 5 रात्रि |
कांजी | 5 रात्रि |
मूल और लता | 12 दिन |
धान, मांस रस | 1 दिन |
स्नेह पाक प्रमाण:-
- कल्क से स्नेहपाक में प्रमाण -8
- स्नेह = 192 ग्राम (1कुडव)
- कल्क = 48 ग्राम (1पल)
- घृत और तैल का प्रमाण निर्देश नहीं हो तो वहां –
- घृत, तैल – 1 प्रस्थ (468ml) लेकर स्नेहपाक करना चाहिए।
स्नेह सिद्धि लक्षण :-
- स्नेह का कल्क हाथ की अंगुली से मसलने पर वर्ती (लम्बी लम्बी गोल) बन जाना।
- अग्नि में डालने पर चट् चट् शब्द का नहीं होना।
- तैलपाक के समय – पात्र में फेन उत्प्न्न होना।
- घृत पाक के समय – फेन आकर शान्त हो जाना।
- उचित गन्ध, वर्ण एवं रस की उत्पत्ति होना।
भेद :-
- मृदु स्नेहपाक :-
- जब औषध का कल्क पककर निर्यास की तरह हो जाय, कल्क रसयुक्त हो, यह मृदु स्नेहपाक कहलाता है।
- स्नेह में से जल समाप्त हो जाता है परन्तु कल्क में जल रहता है ➡
- कल्क में जल रहने से आग पर डालने से चट् चट् की आवाज़ आती है
- घृत, तैल लेकर अग्नि पर डालने पर चट् चट् की आवाज नही होती और जलने लगता है।
- कल्क में जल होने से कल्क की वर्ति नहीं बनती है।
- मध्य स्नेहपाक :-
- जब औषध का कल्क पककर हलुआ की तरह हो जाय, द्रवी में नहीं लगता, जल से रहित और कोमल हो, उसे मध्यपाक कहते ।
- कल्क में से भी जल समाप्त हो जाता है।
- कल्क को आग में डालने पर। चट् चट् की आवाज कर जलता है।
- वर्ति भी बन जाती है।
- खर स्नेहपाक :-
- जब औषध के कल्क की वर्ति बनाने पर टुकड़े टुकड़े होकर गिरने लगे।
- कल्क द्रव्य कुछ कठिन हो जाय।
- खरपाक के पश्चात् पाक करने पर उसे दग्धपाक माना है ➡ दाहकारक और निष्प्रयोजन होता है।
स्नेहपाक भेद का उपयोग :-
भेद | आचार्य चरक एवं शार्ङ्गधर | आचार्य सुश्रुत |
मृदु स्नेहपाक | नस्यकर्म | पान और भोजन |
मध्यम【श्रेष्ठ】स्नेहपाक | बस्ति और पीने के कार्य में | नस्य एवं अभ्यंग |
खर स्नेहपाक | अभ्यंग में | बस्ति और कर्णपूरण |
सेवन मात्रा :-
48 ग्राम (1पल)
Similarly like, Sneh kalpana, we will further learn about Ghrit Kalpana and Tail Kalpana.