(Measures indicated for Embryo & Pregnant lady)
पुत्रेष्टियज्ञ का पूर्वकर्म
(Measures to be Adopted for Procuring Male Child)
- आचार्य चरक के अनुसार यदि स्त्री यह अभिलाषा रखती हो कि उसका पुत्र विशालकाय, गौरवर्ण, सिंह जितना ताकतवर, ओजस्वी, पवित्रात्मा और अच्छे मन का हो तो –
रजोधर्म के चौथे दिन शुद्ध स्नान के दिन से ही उसे स्वच्छ जॉ के सत्तू में घी व मधु मिलाकर, सफेद बछड़े वाली सफेद गो के दूध में घोलकर, चांदी या कांसे के सफेद पात्र में रखकर सात दिनों तक समय-समय पर पीने को देते रहे।
- प्रातः-सांय अगहनी के चावल या जॉ से बने भोज्य पदार्थों में दही, मधु, घी या दूध को मिलाकर खाये।
- सायकाल सफेद घर में सफेद बिस्तर पर सोये, और श्वेत शर्बत-दूध-लस्सी आदि का पान करे, श्वेत वस्त्र एवं अभूषण धारण कर प्रतिदिन सबेर -शाम बड़े आकार वाले बैल को या उत्तम जाति के घोड़े को एव श्वेत चन्दन को देखे।
- सहचरी व्यक्ति को उस स्त्री को कोमल भाव वाली मनोहर कथाएँ सुननी चाहिए।
- वह स्त्री सौम्य आकृति, सौम्य व्यवहार और सौम्य कर्म करने वाले लोगों के साथ रहे। सहेलियां भी सदैव उसके साथ प्रिय और हितकर आचरण करे।
- पति को भी स्त्री के साथ नरम व्यवहार करना चाहिए और इस प्रकार रहकर सात दिन तक सम्भोग भी नहीं करना चाहिए।
- विधि से सात दिनों तक रहकर आठवें दिन पति के साथ शिर से स्नान कर श्वेत वस्त्र पहने और श्वेत आभूषणों को भी धारण करे।
पुत्रेष्टि यज्ञ
(Sacrificial Rite for Desired Son )
- आचार्य चरक के अनुसार सफेद वस्त्र धारण करने के बाद यज्ञ का ऋत्विक निवास गृह के उत्तर या पूरब की दिशा में कुछ आगे की ओर नीची भूमि में उत्तम स्थान देखकर गोबर और पानी से लिपवा कर जल छिड़क कर वेेेदी बनाए
- यदि ब्राह्मण यजमान हो तो उस वेदी के पश्चिम की ओर बिना फटे कपड़े पर या बैल के चर्म पर बैठे।
- यदि क्षत्रिय हो तो व्याघ्र चर्म पर बैठे ।
- इस प्रकार से बैठकर पलाश, इंगुदी (हिंगोट), या महुआ की जितनी लकड़ियों से वेदी पर अग्नि की स्थापना करे और वेदी के चारों ओर कुछ बिछाकर
- वेदी के अगल-बगल घेरा बनाकर वेदी घेरे के बीच धान का लावा और सफेद सुगन्धित पुष्प बिखेर दे
- वेदी के बगल में शुद्ध जल का पात्र रखे ।
- इसके बाद स्त्री अपनी इच्छा के अनुकूल पुत्र प्राप्ति की आशा रखती हुई पति के साथ अग्नि के पश्चिम और ऋत्विक के दाहिनी ओर बैठे।
- इसके बाद स्त्री जिस प्रकार के पुत्र की आशा या कामना करे उसे गर्भाशय में परिपूर्ण करने के लिए प्रजापति ब्रह्मा को उदेश्य करके “विष्णुयोनिं कल्पयतु” इस इच्छा से पुत्रेइष्टयज्ञ का आरम्भ करे।
- उसके बाद किसी मिट्टी की हांडी में पकाई हुई खीर में अभिमंत्रित घी मिलाकर शास्त्रीय यज्ञ के विधान के अनुसार तीन आहुति दे।
- फ़िर मंत्रो से पकायी हुई खीर से अभिमंत्रित जल पात्र को उस स्त्री को सांप दे और उससे कहे कि जल सम्बन्धी सभी कार्य उस जलपात्र से ही करे।
- जब यज्ञकर्म समाप्त हो जाय तब स्त्री पहले दाहिने पैर को उठाकर चलती हुई अग्नि को दायें करके आगे बढ़े ।
- उसके बाद ब्राह्मणों मे स्वस्तिवाचन कराकर यज्ञ से बचे हुए घृत का सेवन करे पहले पुरुष उसके बाद स्त्री सेवन करे।
- उसके बाद वे स्त्री-पुरुष आठ रात तक सहवास करे और पूर्व में कहे गये स्वच्छ वेशभूषा और उत्तम आहार-विहार का सेवन करे। इस प्रकार के आचरण से वे अपने इच्छानुकूल पुत्र को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।
विशिष्ट सन्तान प्राप्ति हेतु विशिष्ट देशों का भ्रमण तथा आहार-विहार करना चाहिए। अर्थात जो स्त्री जिस देश के पुत्र की कामना या आशा करती हो वह उन-उन देशों का मन से भमण करे।
पंचमहाभूतों के अनुसार शरीर वर्ण–
चरक के अनुसार जल तथा आकाश भूत सहित अग्नि भूत भी शिशु के अवदात (साफ़ ओर सफेद) वर्ण का निर्माण होता है।
पृथ्वी और व भूत सहित अग्नि भूत काले वर्ण को उत्पन्न करता है।
जब सभी महाभूत समान अंश में होते हैं। तब वे श्याम वर्ण को उत्पन करते है।
मन की विशेषता का निर्माणकारी तत्व-
चरक अनुसार शिशु की माता व उसके पिता की मन स्तिथि एवम् गर्भिणी स्त्री जिस प्रकार की बातें उत्तम या निम्न कोटि की सुनती है, उसका मन उसी तरह विकल्प करने से वैसा ही हो जाता है और गर्भ के मन को प्रभावित करता है।
गर्भ आत्मा के पूर्वजन्म में जैसा मन होता है – सात्विक, राजस या तामस उसका असर भी पड़ता है अर्थात उसके अनुसार भी गर्भ के मन का निर्माण होता है।
शुक्र से गर्भ उत्पत्ति का क्रम–
आचार्य चरक अनुसार जब स्त्री-पुरुष सहवास करते हैं, तब विकार रहित योनि और गर्भाशय में निर्दोष आर्तव के साथ निर्दोष शुक्र मिलकर अवश्यमेव गर्भ का निर्माण करता है इसलिए कह सकते हैं कि वीर्य आर्तव के साथ मिलकर गर्भ का रूप धारण कर लेता है।
गर्भ के स्त्री-पुरुष होने में निर्देशन–
चरक अनुसार बिना किसी दुष्टी के बीज बोने पर बीज अपनी प्रकृति का अनुसरण करता है, धान के बीज से धान का पौधा और जॉ के बीज से जॉ का पौधा उत्पन्न होता है; उसी प्रकार स्त्री या पुरुष अपने-अपने बीज (अर्ताव या शुक्र का आधिक्य होने से) ) के अनुसार स्त्री या पुरुष को जन्म देते है।
पुंसवन का निर्देश–
पुंसवन की परिभाषा- चरक अनुसार जिस विधि-विधान के प्रयोग से गर्भ को पुल्लिंग कर दिया जाए।
जब तक गर्भ में स्त्री पुरुष या नपुसंक के चिह्न व्यक्त नहीं हो जाते, तब तक आयुर्वेद में बतलाये गये कर्मों को उचित रूप से प्रयोग करे ।
इसलिए स्त्री गर्भवती हो गई है, यह देखकर किसी लिङ्ग (स्त्री-पुरुष नपुंसक ) के लक्षण व्यक्त होन से पहले ही उस स्त्री को ‘पुंसवन’ संस्कार में संस्कृत कर देना चाहिए।
पुंसवन संस्कार विधि–
१) गर्भवती स्त्री गोशाला में उत्पन्न बरगद के पेड़ की पूर्व या उत्तर दिशा में फैली शाखाओं में दो सम्पूर्ण शुङ्गों ( डाल) को लेकर उत्तम गुण वाले दो उड़द के दाने व उत्तम गुण युक्त दो सफेद सरसों के दाने के साथ दही में पीसकर पुष्य नक्षत्र में पान करे।
(२) इसी प्रकार गोश्ठ में उत्पन्न जीवक, ऋषभक, अपामार्ग और सहचर – सबको एक साथ या अलग-अलग जितनी मात्रा में लेना सही हो(स्त्री की प्रकृति अनुसार) या जिन द्रव्य को लेना सही हो, उसे लेकर पीसकर, दूध में क्षीर पाक विधि मे पकाकर पुष्य नक्षत्र में सेवन करे।
(३) कुडयकिट (घिनही, जो घरों में दीवार पर या दरवाजे में मिट्टी का एक इंच के परे घेरे का घर बना लेती है, उसका घर बनाना पुत्र होने का संकेत माना जाता है) या छोटी मछली को एक अंजलि में डालकर पुष्य नक्षत्र में पान करे
(४)सोने, चांदी या लोहे की बहुत छोटी पुरुष की आकृति बनवाकर उसे अग्नि में तपाकर लाल होने पर दही, दूध या एक अन्जलि जल में डालकर पूरा जल पुष्य नक्षत्र में पान कर ले।
(५) पुष्य नक्षत्र में ही चावल के आटे को पानी डालकर पकाये और उससे जो भाप निकले उसे स्त्री सुंघे, फिर उसे पके आटे में थोड़ा जल मिला ले, जिससे वह द्रव जैसा हो जाये; पुनः उस द्रव में रुई का फाहा भिगो ले और चौखट पर गरदन रखकर ऐसे सोये कि शिर नीचे की और लटक जाये और अपने ही हाथ में लिये हुए फाहे से उस द्रव को दाहिने नासाविवर में निचोड़ कर टपका दे।
गर्भ पर दोषों का प्रभाव
आचार्य वागभट अनुसार गर्भ पर दोषों का प्रभाव पड़ता है। जैसे;
- वातवर्धक आहार-विहारों से गर्भ कुबड़ा, अन्धा, जड ( बुद्धिहीन ) तथा बौना या नाटा हो जाता है।
- पित्तकारक या पित्तवर्धक आहार-विहारों । से गर्भ गंजे सिर वाला ( यह लक्षण इसके यौवन काल में दिखलायी पड़ता है, क्योंकि उस काल में उसके पित्त की वृद्धि होती है), पीली आँखों वाला तथा पीले बालों वाला होता है।
- कफकारक या कफवर्धक आहार-विहारों से गर्भ श्वित्ररोगी तथा पाण्डुवर्ण वाला होता है।
गर्भस्थापक औषधे
(Medicines Prescribed for stability of Foetus )
चरक अनुसार
१.ऐन्द्री २. ब्राह्मी ३.शतावर ४. बड़ी शतावर ५. पाटला
६. गुरूच ७. हरीतकी ८. पीतबला, ९. महाबला १०. प्रियूंग
इन औषधियों को शिर में बांधे या दाहिने हाथ में बांधकर रखें। इन्हीं औषधियों दूध में या घी में पकाकर सिद्ध करे और पान करे। इन औषधियों का प्रत्येक कार्य में प्रयोग करे और इनका स्पर्श के करे। उसी प्रकार जीवनीय गण की औषधियों क सदैव प्रयोग करते रहना चाहिए। इस प्रकार गर्भस्थापनकारक औषधियों का वर्णन किया गया।
गर्भ को विकृत या नष्ट करने वाले भाव
( Factors Responsible for Damaging Foetus)
चरक अनुसार गर्भ को क्षति पहुंचने वाले भाव इस प्रकार हैं;
- यथा ऊंचे नीचे विषम स्थान पर बैठना, कड़े आसन पर बैठना।
- अपानवायु, मूत्र और पुरीष आदि के वेगो को रोकना
- विषम आसन ,व्यायाम या थकाने वाले कार्य करना।
- तीखे और गरम पदार्थों का अधिक प्रयोग करना, अल्पमात्रा में अथवा किसी एक या दो रसों वाले आहार का ग्रहण करना-इन कारणों से गर्भ गर्भाष्य में ही मर जाता है या समय के पूर्व प्रसव हो जाता है ।
- जो स्त्री सदैव उत्तान पीठ के बल पर सोती है, उसके शिशु के की मृत्यु हो जाती है
- जो स्त्री एकदम खुली जघ पर खुले बदन सोती है या रात को बाहर इधर-उधर घूमती रहती है पागल संतान उत्पन्न करती है।
- जो गर्भवती मार-पीट करती रहती है ,अपस्मार सन्तान को जन्म देती है
- जो स्त्री मैथुन के अभ्यास को बनाए रखती है वो विकृत शरीर वाले, निर्लज्ज स्वभाव वाले पुत्र को जन्म देती है।
- नित्य शोक ग्रस्त रहने वाली स्त्री कृशशरीर वाले ,अल्पायु सन्तान पैदा करती है।
- दूसरों से द्रोह रखने वाली गर्भिणी ईर्ष्यालु संतान को जन्म देती है।
- चोरी करने वाली गर्भवती अतिपरिश्रमी, अतिद्रोही सन्तान को जन्म देती है।
- क्रोधी स्वभाव वाली गर्भिणी क्रोधी, कपटी-छली गुणीजनों के दोष निकालने वाली सन्तान को जन्म देती है।
- सोते रहने वाली गर्भिणी बुद्धिहीन रोगी सन्तान को जन्म देती है।
- मद्यपान करने वाली गर्भिणी पिपासारोग ग्रस्त, क्षीण स्मृतिवाली सन्तान उत्पन्न करती है।
- नित्य मधुर पदार्थों का सेवन करने वाली गर्भवती प्रमेह के रोगी, अति स्थूल सन्तान को जन्म देती है।
- अम्ल पदार्थों का जायदा सेवन करने वाली स्त्री रक्तपित्त रोगी, त्वचा रोगी या नेत्र के रोगी सन्तान को जन्म देती है।
- लवणरस पदार्थों का नित्य और अधिक मात्रा सेवन करने वाली स्त्री ऐसी सन्तान को जन्म देती है जिसके चेहरे व त्वचा पर समय से पहले झुर्रियां आ जाती हैं।
- जब गर्भिणी कटु रस युक्त पदार्थों निरन्तर सेवन करती रहती है वो सन्तानोत्पत्ति करने में असमर्थ सन्तान को जन्म देती है।
शिशु को तीन दिन तक देने के पदार्थ– आचार्य सुश्रुत अनुसार बालक को पहले दिन घी और शहद के साथ दोड़ा-सा सुवर्ण और अनंता से पवित्र करके तीन बार दे। दुसरे और तीसरे दिन लक्षमना से सिद्ध करे। उसके बाद विषम प्रमाण में घी और शहद बच्चे के पाणितल प्रमाण में दो बार देकर दुध पिलाना चाहिये ।
गर्भिणी-चिकित्सा
( Management of the Pregnant )
- चरक अनुसार यदि गर्भिणी स्त्री को कोई रोग हो जाये तो मृदुवीर्य, मधुररसयुक्त, शीतवीर्य, सुखकारक (रोचक) और कोमल औषधे आदि आहार एवं उपचार द्वारा उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
- गर्भिणी को वमन, विरेचन और नस्य का प्रयोग न कराये, रक्तमोक्षण आस्थापन या अनुवासन बस्ति का भी प्रयोग न करे, अधिक व्याधि को छोडकर या गम्भीर रोग में बस्ति देना अत्यावश्यक हो उसमें ही बस्ति करे।
- अष्टम मास शुरू हो जाने के बाद यदि कोई आत्यधिक रोग हो जाय, जिसमें वमन-विरेचन का प्रयोग ही लाभप्रद हो, तो ऐसी स्थिति में मृदु वमनकारव, मृदु विरेचनकारक या मृद नस्य का करना चाहिए ।
इसलिए उत्तम गुण युक्त सन्तान की कामना करने वाली गर्भवती अहितकर आहार-विहार रूप परित्याग कर और मांगलिक कल्याणप्रद आचार तथा अनुकूल हितकारक आहर विहार का ही सेवन करे।
मक्कल्ल रोग –
लक्षण– आचार्य सुश्रुत कहते है रूक्ष शरीरवाली प्रसूता स्त्री के तीक्ष्ण औषधों में सूखे हुए रक्त में, नीचे, पैरों में, बस्ति में अथवा बस्तिशीर्ष में ग्रंथि उत्पन्न करती है। पश्चात् नाभि, बस्ति और उदर मे पक्वाशय में सुई चुभने के समान पीड़ा होती है और वह फटता हुआ-सा मालूम होता है।
चिकित्सा– यवक्षर जल को उष्ण कवाथ की पिपल्यादी क्वाथ से
प्रसव काल की तीन अवस्थायें (Three Labour stages)
प्रथम अवस्था– आवी और गर्भोदक (Liquor amnia) आने लगता है।
द्वितीयावस्था में– श्रोणि, वक्षण और बस्तिशिर में शूल होता है। गर्भ हृदय (अर्थात् महाप्राचीरक Diaphragm) उदर को प्राप्त होकर बस्ती शिर को प्राप्त होता है । आवी शीघ्र-शीघ्र आती है, गर्भ का परिवर्तन होता है। योनिद्वार में शिशु आता है और गर्भ बाहर आने से आराम मिलता मालूम होता है।
तृतीय अवस्था में-प्रसूति के उत्तर काल में कहीं अपरा (Placenta) का पतन हुआ या नहीं, यह देखना चाहिये।
प्रसूति के लक्षण:-
आचार्य सुश्रुत अनुसार कुक्षि शिथिल होने से, हृदय बंधन ढीले होने से, जघनप्रदेश में शूल होने से समझना चाहिये ।
प्रसूति होने के पहिले दो प्रकार के दर्द होते हैं। एक अवास्तविक (False) ओर दुसरा वास्तविक (True)
१.वास्तविक (true)
(१) कमर से नीचे की ओर पीड़ा होती है।
(२) गर्भाशय का मुख खुलता है और गर्भोदक दीखता है,
(३) पाचक ओषधियों से शान्त नहीं होता।
(४) संकोच नियत समय पर ही होता है।
२.अवास्तविक (False)
( १) इसकी वेदना पेट में ही रहती है, कटि की ओर नहीं। (२) इसमें गर्भाशय का मुख नहीं खुलता और गर्भोदक नहीं निकलता है।
(३) पाचक ओषधि से शांत हो जाता है।
(४) संकोच अनियमित रहता है।
आसन्न-प्रसूति के लक्षण:-
आचार्य सुश्रुत कहते हैं जब प्रसूति होने का भाव आता है तब कटि (कमर) और पीठ में पीड़ा होती है। बार-बार मलत्याग की इच्छा होती है और मूत्र आने लगता है।
गर्भस्राव
( Abortion)
चरक अनुसार यदि गर्भिणी स्त्री को अपथ्यसेवन या चिकित्सा सम्बन्धी गड़बड़ी के होने से दूसरे या तीसरे महीने में रक्तस्राव होने लगे, तो वैद्य को यह समझ लेना चाहिए कि इस स्त्री को गर्भ की स्थिति अब नहीं रहेगी, क्योंकि तीसरे महीने तक गर्भ सारहीन होता है।
गर्भस्थापन-विधि
( Measures to Check Abortion)
- चरक के अनुसार जिस समय रक्तस्राव होते दिखायी पड़े उसी समय चिकित्सक को यह उपदेश देना चाहिए कि ऐसी शयाय पर सो जिसका सिरहाना कुछ नीच हो।
- अतिशीतल जल में रखे हुए जेठी मधु के चूर्ण और घी के मिश्रण में रुई का फाहा डाल कर उसे गर्भिणी स्त्री की योनि के समीप रखवा दे।
- क्षीरवृक्ष (वट-गूलर-पाकड-पीपल- पारिष) और कषाय पेड़ों (कपित्थ -जामुन-महुआ आदि ) की छाल पीसकर निकाले गये रस में बारीक कपडा भिगोकर योनि में धारण कराये ।
- न्यग्रोधादि गण की औषधों से पकाये गये दुध में कपडा भिगोकर योनि मे धारण करे।
- रक्तकमल, नीलकमल और कुमुद का कल्क बनाकर उसमें मधु व चीनी मिलाकर चाटने को दे।
- स्त्री को सिंगाड़, कमलगट्टा के आटे का हलवा खिलाए
- पीने के लिए नीलकमल, कमल की जड़,गूलर का कच्चा फल (२० ग्राम मिश्रित) पीसकर बकरी के दुध के साथ दे ।
- बरियार, अतिबला (ककहिया), साठी धान और ईख-इन सबकी जड़ तथा काकोली के क्वाथ से सिद्ध किये हुए दूध में पकाये गये लाल अगहनी चावल के भात को चीनी या मधु के साथ खाएं।
मानसिक व शारीरिक थकावट एवं क्षोभ से बचाने के लिए गर्भिणी स्त्री को क्रोध, शोक, परिश्रम और व्यायाम के कार्यों से सुरक्षित रखे।
यस्याः पुनरामान्वयात् पुष्पदर्शनं स्यात, प्रायस्तस्यास्तव्रभोपघातकरं भवति, विर्द्धोपक्रमत्वातयो।। (चरक अनुसार)
आामज ग्रभ स्राव– जिस गर्भिणी स्त्री की आमजनक कारणों आमविकार के साथ साथ रक्त स्राव होता है, तो वह प्राय गर्भ का नाशक होता है, क्योंकि गर्भस्थापक औषधे और आमविकारनाशक औषधे एक दूसरे से विरूद्ध होती हैं ।
गर्भ स्राव को रोकने के लिए जो औषध दी जाती है- वह मृदु गुण वाली, मधुर रस युक्त व शीतवीर्य की होनी चाहिए और इस तरह की ओषध आम को बढ़ाने वाली होगी, इसलिए उसकी चिकित्सा में अनुपयोगी है तथा आम विकार की चिकित्सा में लघु, रूक्ष एव उष्ण गुणयुक्त औषध लाभकर है, जो रक्त स्राव को बढ़ाने वाला होने से रक्तस्राव की चिकित्सा के लिए अनुपयोगी है। इस प्रकार इन दोनों की परस्पर विरुद्ध चिकित्सा होने मे आमज रक्तस्राव अचिकित्स्य होता है।
उपविष्टक गर्भ– चरक के अनुसार जिस गर्भवती स्त्री के गर्भ का सारभाग बन चुका हो और गर्भ का आकार बढ़ रहा हो, परन्तु उष्ण और तीक्ष्ण पदार्थों के अधिक सेवन करने के कारण रक्त स्राव होने लगे अथवा अन्य कोई द्रव योनिमार्ग से निकलने लगे, तो उस स्राव से गर्भ पोषक द्रव के स्रावित हो जाने से गर्भ की पुष्टि नहीं होती है और वह गर्भ अधिक समय तक रुका रह जाता है। उसे उपविष्टक कहते है।
नागोदर -जब कोई गर्भवती स्त्री अधिकतर उपवास और व्रत रखा करती है और रुक्ष या बासी का सेवन करती है एवं स्निग्ध पदार्थों के सेवन की इच्छा नहीं रखती और वात प्रकोपक आहार-विहार का सेवन करती है, तब उसका गर्भ शुष्क हो जाने के कारण नहीं बढ़ पाता , अधिक समय तक गर्भाशय में ही टिका रह जाता है और उसमें स्पन्दन नहीं होता , उसे ‘नागोदर’ नाम से पुकारते हैं ।
उपविष्टक और नागोदर की चिकित्सा –
- औषध-वच, गुग्गुल, जटामांसी, सरसो आदि तथा जीवनीय, मधुर एवं वातहर औषधियों से सिद्ध किये गये घृतों का सेवन; इन्हीं औषधों से सिद्ध दुध का सेवन और अण्डे का सेवन गर्भ की वृद्धि करने वाला होता है।
2. स्नान, अभ्यंग एवं जम्भाई लेना, छीकना, अंगों को फैलाना और चलना-फिरना एवं स्निग्ध आहार का भोजन तथा वात नाशक उपायों से उपचार करना चाहिए।
लीन गर्भ और उसका उपचार
(Management of Non-quickening of Foetus )
परिभाषा– चरक कहते हैं कि जिन स्त्री का गर्भ जैसे सोया हुआ हो वैसे अल्पगतिशील या एकदम निश्चल बना रहता है, उसे लीनगर्भ कहते है।
चिकित्सा– उस स्त्री को बाजपक्षी, मछली, नीलगाय, मयूर, मुर्गा या तित्तिर के मांसरस में घी डालकर, घी अधिक डालकर मूली के पूष के साथ लाल चावल के कोमल मधुर शीतल भात को खाने को दे। उस स्त्री के उदर, बस्ति, जांघ, कटी, पार्श्व और पीठ में गरम किये हुए तिल या कटु तेल की मालिश करनी चाहिए।
गर्भ के मरण का कारण और मतगर्भा के लक्षण-
गर्भाशय में या गर्भवती स्त्री के तीक्ष्ण उष्ण पदार्थों के अधिक सेवन से; अपान वायु, मल या पुरिष के वेगों को से : विषम भोजन, विषम उठने बैठने-खड़े होने पर या सोने से; उदर पर दबाव पड़ने या आघात लगने आदि के कारण अथवा अपनी शक्ति मे अधिक कोई साहस का कार्य करने से गर्भ गर्भाशय में ही मर जाता है।
तब उस गर्भवती का उदर निश्चल, जकडा हुआ सा तनाव युक्त शीतल तथा जैसे पेट में पत्थर धरा पड़ा हो ऐसा कहा लगता है।
उसे प्रसव की पीड़ा नहीं होती और न योनि से स्राव होता है। आंखे भीतर की और धस जाती है। वह व्यथा से पीड़ित होती है, उसे चक्कर महसूस होता है, श्वास बढ़ जाता है और वह बहुत बेचैन हो जाती है।
मृत गर्भ की चिकित्सा–
- आचार्य जरायु को गिरान को कहते हैं और इसे ही चिकित्सा मानते है।
- कुछ आचायों अर्थवेद में कहे गये मन्त्रों से जल को अभिमंत्रित कर उसे पिलाकर गर्भ शलय को बाहर निकालना चाहिए ।
- अथवा जिस चिकित्सक को मृतगभ निकालने का अच्छा अभ्यास हो उसे इस कर्म यन्त्र-शस्त्रों के प्रयोग द्वारा गर्भशल्य को बाहर निकलवाना चाहिए।
गर्भ की मासनुमसिक वृद्धि
आचार्य वागभट्ट के अनुसार;
पहले मास में गर्भ मात्र कलल रूप में होता है।
दूसरे मास में गर्भ गर्भ कलल से गाढ़ा हो जाता है, यह पेशी तथा अर्बुद का रूप धारण कर लेता है।
इनमें घन आकार वाला ( इसे सुश्रुत ने ‘पिण्ड‘ कहा है) पुरुष, पेशी के आकार वाला स्त्री और अर्बुद के आकार वाला नपुंसक होता है ।
तीसरे मास में गर्भ के पांच शरीरावयव जो छोटे थे अब वे व्यक्त हो जाते हैं- शिर प्रदेश, दो टोगे और दो बाहें। इसके बाद सभी छोटे अंगों का जन्म भी हो जाता है।
गर्भनाभि का सम्बन्ध- गर्भ की नाभि में माता (गर्भवती) की हृदयनाड़ी का सम्बन्ध होता है या हो जाता है, अर्थात् गर्भ का नाभिनाल माता के हृदय में रस वहन करने वाली नाड़ी से जुट जाता है, जिसे प्रसव होने के बाद काट दिया जाता है। तब इसी नाभिनाल से बालक का पोषण होता रहता है।
चौथे महीने में समस्त शरीरावयव स्पष्ट दिखलायी देने लगते हैं।
पांचवें महीने में चेतना पूर्ण रूप से प्रकट हो जाती है।
छठे मास में गर्भ की स्नायु, सिरा, रोम (लोम ), बल, वर्ण, नख और त्वचा की अभिव्यक्ति हो जाती है।
सातवें मास में गर्भ शरीर सम्बन्धी सभी भावों से परिपूर्ण एवं परिपुष्ट हो जाता है।
अनेक बार ऐसा भी देखा गया है कि सातवें मास में शिशु का जन्म भी हो जाता है, सामान्य रूप से वह कृश या दुर्बल होता है। कभी-कभी वह स्वस्थ शरीर वाला भी देखा जाता है। यह जीवित रहता है, सही तरह से देखभाल होने पर बाद में स्वस्थ हो जाता है।
सातवें महीने में- गर्भ की वृद्धि के कारण बढ़ते वात, पित्त, कफ नामक दोष गर्भवती के हृदयप्रदेश में आश्रित होकर विदाह पैदा कर देते हैं, जिनके कारण कण्डू (खुजली) होती है और खुजलाने से किक्किस रोग हो जाता है।
गर्भ का मासानुमासिक पथ्य
( Monthwise Advantageous Diet for Pregnant)
१. आचार्य चरक अनुसार –
प्रथम मास बिना किसी ओषध के सिद्ध किया हुआ दूध शीतल करके पीना चाहिए और अपनी प्रकृति के अनुसार भोजन चाहिए।
द्वितीय मास में- मधुर स्कंध में कही गई ओषध से सिद्ध दूध पीना चाहिए ।
तीसरे मास में तीसरे महीने में दूध में मधु और घी मिलाकर पीना चाहिए।
चोथे मास में- दूध में मक्खन मिलाकर एक तोला की मात्रा में पिए ।
पाँचवें मास में- पांचवे महीने में दूध में घी मिलाकर पीना चाहिए
छठे माह में – मधुर स्कंध की ओषध से सिद्ध किया हुआ दूध घी मिलाकर पीना चाहिए।
सातवें मास में- पिछले महीने में कहे आहर के अनुसार सेवन करे।
इस सातवे महीने में बाल उगते हैं, जिससे गर्भिणी माता के शरीर में जलन पैदा होती है तब खुजली उत्पन्न होने से 'किक्किस' विकार की उत्पत्ति हो जाती है।
किक्किस-चिकित्सा–
(१)मधुरस्कन्ध की औषधि में सिद्ध किया हुआ मक्खन एक कर्ष ( तोला की मात्रा में बड़ी बेर के क्वाथ के साथ गर्भवती को पीने को देना चाहिए।
(२)उस स्त्री के स्तन प्रदेशों में और उदर पर श्वेत चन्दन घिसकर उममें कमलनाल का क्लक मिलाकर मर्दन करे
(३) शिरीष की छाल, धव का फल, सरसों और मुलाठी समभाग लेकर चूर्ण कर पूर्ववत् मर्दन करें।
(४) नीम की पत्ती, बेर की पत्ती तुलसी की पत्ती और मजीठ के साथ पीसकर मर्दन करे।
अष्टम मास में क्षीर यवागु–आठवें महीने में दूध में पकायी गयी यवागू में घी मिलाकर समय-समय पर पीना चाहिए।
इस विषय में भद्रकाप्य आचार्य ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नहीं, यवागू नहीं देनी चाहिए। क्योंकि इसके प्रयोग से गर्भ शरीर में हो जाने की सम्भावना है।
नवम मास में अनुवासन- में गर्भिणी स्त्री को मधुर स्कंध की औषधियों से सिद्ध किये गये (पकाये हुए) तेल की अनुवासन बस्ति दे और इसी तेल में रूई या कपड़े का फाहा भिगोकर योनि में धारण कराये, जिससे गर्भाशय और उसका मार्ग स्निग्ध हो जाय।
२.आचार्य सुश्रुत कहते हैं कि- पहले, दूसरे, तीसरे, महीना बल वर्धक आहार सेवन करें।
तृतीय महीने में साठी चावल दूध से खिलाना चाहिये
चोथे महीने में साठी चावल दही से और दूध का मक्खन मिला कर सेवन करना चाहिये एवम जांगल मांस साथ हृदय का हितकर भोजन करना चाहिये।
पाँचवें महीने में साठी चावल दूध से एवं दूध और घी मिलाया हुआ (अन्न देना चाहिये)।
छठे मास में साठी चावल घी से खिलाना चाहिये एवम् गोखरू से पकाये हुए घी अथवा यवागू का पान कराना चाहिये।
सातवें महीने में पृथक् पण्यादी से बनाया हुआ घी पिलाना चाहिए।
आठवें महीने– में प्रसवपर्यन्त के नियम :-आठवें महीने में बेर (बेर) के काढ़े में बला (खिरेंटी), अतिबला (कंची),गतपुष्मा (सॉफ), पलल (मांसरस अथवा तिलकल्क), दूध, दही का पानी, तैल, लवण, मदन (मैनफल), शहद और घी मला कर उसकी आस्थापन बस्ति दे।
नवे महीने में सूतिका घर में रखे।
३. वागभट्ट के अनुसार गर्भिणी की प्रतिमास की चिकित्सा-
प्रथम मास में मुलेठी, सागौन का बीज, क्षीरकाकोली , देवदारू इनमें से जितने मिल सके उतने पदार्थों का १ तोला कल्क दूध में घोलकर पिला दे।
द्वितीय मास में अश्मन्त , काले तिल, मञ्जीठ और सतावर में जो मिल सके उन ओषधियों का १ तोला कल्क दूध में घोल कर पिलाना चाहिए।
तृतीयमास में-बन्दा, फूलप्रियंगु, नीलकमल, सफेद सारिवा (अनन्तमूल) इन ओषधियों का १ तोला कल्क दूध में घोलकर पिलाना चाहिए।
चतुर्थ मास में– वसा या दूब, सारिवा, रासना, भारङ्गी और मुलेठी में से यथालाभ(जो मिल सके) ओषधियों का १ तोला कल्क बनाकर दूध में घोलकर पिलाना चाहिए।
पञ्चम मास– में छोटी और बड़ी कटेरी, गंभार आदि क्षीरिवृक्षों का अंकुर और उनकी छाल इनमें से यथालाभ ओषधियों का १ तोला दूध में घोलकर घी डालकर पिलाये।
छठे मास में-पिठवन, बालवच, सहिजन, गोखरू और गम्भार में से यथालाभ ओषधियों का १ तोला कल्क बनाकर दूध में डालकर गर्भिणी को पिलाये।
सप्तम मास – में सिंघाड़ा, कमलकन्द , दाख, कसेरू, मुलेठी और मिश्री इनमें से यथालाभ ओषधियों का १ तोला कल्क दूध में घोलकर पिलाने से गर्भपात और गर्भस्त्राव नहीं होने पाता और गर्मसम्बन्धी शूल भी नष्ट हो जाता है।
अष्टम मास में-कैथ, बड़ी कटेरी, बेल, परोरा, ईख और छोटी भटकटैया इन सबकी जड़ (सब मिलाकर ४ तोला), ३२ पल पानी और ८ पल दूध में डालकर पकाये और दूध मात्र शेष रह जाने पर छानकर ठण्डा करके गर्भिणी को पिलाये।।
नवम मास में-मुलेठी, जवासा या दूर्वा, क्षीरकाकोली और सफेद सारिवा इन सबको ठण्डे जल में पीसकर इनका १ तोला कल्क ४ तोला दूध में घोलकर पिलाना चाहिए।
प्रसव समय माह– प्रसव का समय -गर्भिणी स्त्री नवें, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें महीने में सन्तान उत्पन्न करती है। अगर विकार हो तो इस अवधि के बाद भी प्रसव होता है।।
बालक के लिये हितकर योग
आचार्य सुश्रुत के अनुसार ये ओषधियां बालक के शरीर, स्मरणशक्ति, बल और बुद्धि को बढ़ाते है।
(१) स्वर्ण भस्म, सुगंध कूठ, मधु, घृत और वच
(२) ब्राह्मी, शंख और स्वर्ण भस्म
(३) अर्कपुष्पी (पयस्या), मधु, घी, स्वर्ण भस्म और वच । (४) सुवर्णभस्म, पर्वतनिम्ब, घृत और मधु ।
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