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Aartav Chakra / आर्तव चक्र – Menstrual Cycle

Definition of आर्तव :-

शशासृक्प्रतिमं यत्तु यद्वा लाक्षारसोपमम् ।

तदार्त्तवं प्रशंसन्ति यद् वासो न विरञजयेत् ।। ”( सु.स. शा 2/17)

  • आर्तव वर्ण – शशक (खरगोश) के रक्त के समान या लाक्षा के समान रंग वाला।
  • जिससे वस्त्र रंजित न हो, इस प्रकार का आर्तव प्रशस्त माना है अर्थात् शुद्ध माना जाता है।

According to चरक & अष्टांग संग्रह :-

“ गुञ्जाफलसवर्णं च पद्मालक्तकसन्निभम्।
इन्द्रगोपकसंकाशमार्तवं शुद्धमादिशेत्।।” (चरक
)

आर्तवं पुनः शशरुधिरलाक्षारसोपममं शुद्धमाहुः।।” (अ.संग्रह)

  • चरक एवं अष्टांग संग्रह में गुञ्जाफल एवं वीरबहूटी के समान आर्तव लाल रंग का बताया गया है।
  • चिकित्सकों ने लिखा है कि स्वाभाविक मात्रा से अधिक निकलने वाला आर्तव शोणित का रंग लाल होता है।

ऋतुचक्र (Aartav Chakra) :-

एक रजःस्त्राव के प्रारंभ से लेकर दूसरे रजःस्त्राव के प्रारंभ को ऋतुचक्र /Aartav Chakra (Menstrual Cycle) कहते हैं।

Hypothalamus, पीयूषग्रन्थि (Pituitary gland), डिम्बग्रन्थि एवं गर्भाशयान्तःकला (Endometrium) में होने वाले चक्रिक परिवर्तनों (Cyclic changes) का अंतिम परिणाम रजःस्त्राव है।

प्रथम रजोदर्शन (Menarche) & रजोनिवृत्ति (Menopause) की सामान्य आयु :-

उष्ण देश के लिए (जैसे भारत):- सामान्य रजोदर्शन (menarche) की आयु= 11 से 14 वर्ष
सामान्य रजोनिवृत्ति (menopause) की आयु= 45 – 55 वर्ष
( This can vary from person to person by their eating habits or fulfillment of all body organs or dhatus.)

ऋतुचक्र में निम्न स्थितियाँ होती हैं :-

  1. ऋतुकाल
  2. ऋतुव्यतीत काल या पीतपिण्डीय स्थिति (Luteal phase) / secretory endometrial phase
  3. रजःस्त्राव (Menstruation)
Aartav Chakra

1. ऋतुकाल :-

Number of days = First 12-16 दिनों का यह काल होता है।

योनि एवं गर्भाशय के शुद्ध होने पर ऋतुकाल (Aartav Chakra) संपूर्ण मास का या कभी-कभी रजःस्त्राव की अनुपस्थिति में भी हो सकता है।

Divides in two stages:

a). बीजपुटकीय स्थिति (Follicular Phase) or (Proliferative Endometrial Phase):-

  • सामान्य 28 दिनों के ऋतुचक्र (Aartav Chakra) नें यह काल 14 दिन का माना जाता है क्योंकि प्रारंभ के रजःस्त्राव वाले 4 दिन भी इसी में गिन लिए जाते हैं।
  • परंतु शरीर में दोषों की स्थिति के आधार पर यह काल 5 वें दिन से प्रारंभ होता है।
  • दोष – कफ प्राधान्य ।
  • कफ ➡ रसधातु को ग्रहण कर ➡ डिम्बग्रन्थि (ovary) के ➡ बीजपुटक (follicles) को प्रभावित करता है ➡ कुछ दिनों के बाद रस की ➡ रक्त या आर्तव में बदलना प्रारंभ हो जाता है।
  • Reason for conception occuring only during ऋतुकाल =
  1. पित्त की भी वृद्धि होती है।
  2. शरीर में सौम्य गुण का प्राधान्य रहता है अतः शुक्राणु प्रवेश सहज होता है।
  3. (जिस प्रकार दिन के अंत में कमल का फूल बन्द हो जाता है, उसी प्रकार ऋतुकाल बीत जाने पर योनि का मुख भी बन्द हो जाता है। इसलिए आचार्य भावमिश्र ने ऋतुकाल को गर्भ – ग्रहण – योग्य – काल बताया है।

रजःस्त्राव के अंतिम दिन में-

Hypothalamus

बीजपुटकोत्तेज हारमोन विमोचक तत्व (Follicle stimulating hormone releasing factor )

Pituitary gland

बीजपुटकोत्तेजक हारमोन (Follicle stimulating hormone )

डिम्बग्रन्थि स्थित अनेकों आदि बीजपुटकों (Primordial follicle) में वृद्धि एवं परिपक्वता की प्रक्रिया को प्रारम्भ करता है।

इनमें से सामान्यतया एक बीजपुटक (follicle) पूरी तरह से परिपक्व होता है।
बीजपुटक (follicle) ➡ Estrogen का स्राव होता है, जो गर्भाशयान्तः कला प्रचुरोद्भवन (Proliferation) करता है।

गर्भाशयान्तःकला (Endometrium):- 2 mm thick हो जाती है।

b). बीजोत्सर्ग (ovulation):-

  • पित्त की सामान्य से अधिक वृद्धि होना है, रस पूर्ण रूप से रक्त (आर्तव) में परिवर्तित हो जाता है।
  • घटते हुए कफ एवं रस तथा बढ़ते पित्त एवं रक्त का सूक्ष्म संतुलन बीजोत्सर्ग कराता है।
  • 28 दिन के ऋतुकाल में यह बीजोत्सर्ग 14 वें दिन होता है।

2. ऋतुव्यतीत काल या पीतपिण्डीय स्थिति (Luteal phase) या गर्भाशयान्त‌ः कला स्रावी स्थिति (Secretory endometrial phase):-

पीयूष ग्रन्थि (pituitary gland) का पीतपिण्डीय होरमोन (luteinizing hormone) –

  • बीजपुटक (follicle) ➡ को पीतपिण्ड (corpus luteum) में परिवर्तित कर उसका सम्पोषण भी करता है।
  • पीतपिण्ड ईस्ट्रोजन (Estrogen) एवं प्रोजेस्टेरान (Progesterone) का स्राव करता है।
  • गर्भाशयान्तःकला में स्रावी परिवर्तन होते हैं,
  • वह 6mm मोटी हो जाती है।
  • यदि गर्भाधान न हुआ हो तो यह पीतपिण्ड (Corpus luetum) 12 -14 दिन में कम होने लगता है।
  • Prostaglandin की मात्रा संचयकाल में अपेक्षाकृत कम रहती है, परंतु स्रावी स्थिति में बढ़ जाती है।
  • दोष= पित्त का प्राधान्य। शरीर में आग्नेयत्व की वृद्धि एवं शारीरिक ताप बढ़ जाता है।
  • पित्त द्वारा श्लेष्मा के जलीयांश का शोषण हो जाता है।
  • घना श्लेष्मा गर्भाशय ग्रीवा मुख को अवरूद्ध सा कर देता है।
  • आग्नेयत्व प्राधानय तथा गर्भाशय – ग्रीवा मुख का अवरोध शुक्राणु (सौम्य) प्रेवश में बाधक होता है।

3. रजः स्राव (Menstruation) :-

  • गर्भधान न होने पर, ऋतुचक्र (Aartav Chakra) के 26 वें दिन पीतपिण्ड (Corpus luteum) decreases so, ईस्ट्रोजन (Estrogen) एवं प्रोस्ट्रोजन (Progesteron) also decrease.

  • गर्भाशयान्तः कला (Endometrium) की धमनियों में संकोच (Constriction) एवं रक्ताल्पता हो जाती है।

  • गर्भाशयान्तः कला जगह – जगह से टुकड़ों में टूटने लगती है और रजः स्राव होने लगता है।
  • इस क्षरण की प्रक्रिया में पहले रक्त स्कन्दित होता है, फिर स्कन्द विगलन (Fibrinolysis) होकर अस्कन्दित रक्त गर्भाशयन्तः कला का टुकड़ों के साथ सामान्यतया 4-5 दिन तक बाहर निकलता है
  • स्रावित रक्त में Prostaglandin की मात्रा ज्यादा होती है।
  • इस स्थिति में वायु का प्राधान्य रहता है।
Aartav Chakra

ऋतुचक्र में शारीरिक दोषों एवं धातुओं की स्थिति :-

स्थितियाँअवधिदोष और धातु की स्थितिशारीरिक परिवर्तन
रजः स्राव 4 days वात प्रधानयोनि (vagina) से रजः स्राव
ऋतुकाल12 days (first 8 days of cycle, last 3 – 4 days)कफ प्रधान ➡ रस धातु ग्रहण, पित्त वृद्धि, रस➡ रक्त (आर्तव) में बदलनासौम्य गुण प्रधान, matured follicles and easy entry of sperm ➡vagina.
ऋतुव्यतीत काल 14 daysपित्त प्रधान, रस ➡ आर्तव में पूरी तरह बदलावआग्नेय गुण प्रधान, कफ के जलीय भाग का शोषण, difficulty in entry of sperm

रजःस्वला चर्या नियम –

रजः स्राव के चतुर्थ दिन स्नान के बाद पति- दर्शन का महत्व :-

After 4th day of menstruation –

  • उबटन लगाकर
  • शिर से स्नान कर
  • श्वेत वस्त्र धारण कर
  • गहनों से विभूषित हो कर सर्वप्रथम पति का दर्शन करें।
  • ऋतुस्नान के बाद स्त्री, जिस पुरुष को सर्वप्रथम देखती है ➡ उसी प्रकार के पुत्र को जन्म देती है।

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3 replies on “Aartav Chakra / आर्तव चक्र – Menstrual Cycle”

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