अग्नि के द्वारा किया गया कर्म अग्निकर्म (Agnikarma) कहलाता है।
अग्निकर्म का महत्त्व / Importance of Agnikarma:-
क्षारादग्निर्गरीयान् क्रियासु व्याख्यातः, तद्दग्धानां रोगाणामपुनर्भावाद्धेषजशस्त्रक्षारैरसाध्यानां तत्साध्यत्वाच्च ।। (सु. सू. अ. १२/३)
- दहन क्रियाओं में क्षार की अपेक्षा अग्नि उत्तम मानी गई है क्योंकि अग्नि से जले हुए रोगों की फिर से उत्पत्ति नहीं होती है।
- जो रोग औषध, शस्त्र और क्षार के प्रयोग से ठीक नहीं होते हैं वे भी अग्नि द्वारा जलाने से ठीक हो जाते हैं।
- अग्निकर्म से स्थानिक सिराओं का सङ्कोच हो जाने से रक्तस्राव नहीं होता तथा व्रण का रोपण शीघ्र हो जाता है।
दहन कर्म में कृत्रिम उष्णता का प्रयोग होता है इसे कॉटरी (Cautery) कहते हैं। अग्निकर्म (Agnikarma) में शस्त्र या अन्य पदार्थों को तप्त करके प्रयुक्त किया जाता है, इसे Actual Cautery कहते हैं।
- विद्युत्प्रवाह द्वारा उष्णता उत्पन्न की जाती है इसे कॉटरी (Cautery) कहते हैं ।
- अग्निकर्म में शस्त्र या अन्य पदार्थों को तप्त करके प्रयुक्त किया जाता है इसे विदुद्हनकर्म (Galvano cautery) कहते हैं।
- कर्म के उपयोगी औजार को अग्नि ज्वाला पर प्रतप्त कर कर्म किया जाता है इसे Poquilin’s thermo cautery कहते हैं।
दहन कर्म में प्रयुक्त होने वाले उपकरण:-
- पीपल, गोदन्त, शर, शलाका- इनका उपयोग त्वचा के दहन कर्म में होता है।
- जाम्बवौष्ठ, सोना, चांदी, तांबा, आदि धातु- मांसगत विकारों में
- शहद, गुड़, घृत तैलादि स्नेह- सिरा, स्नायु, सन्धि व अस्थि के दहन कर्म में प्रयुक्त
अग्नि कर्म का प्रयोज्य काल- शरद और ग्रीष्म ऋतु के सिवाय अन्य सर्व ऋतुओं में अग्निकर्म करना चाहिये। शरद और ग्रीष्म ऋतु में भी आत्ययिक अर्थात् प्राणों का सङ्कट उपस्थित हो तथा रोग अग्निकर्म से ही साध्य हो तो ऋतुविपरीत आहार-आच्छादनादि का प्रबन्ध कर अग्निकर्म करें।
अग्निकर्म में पथ्य- प्राय: सभी रोगों में तथा सर्व ऋतुओं में पिच्छल अन्न खिला कर अग्निकर्म करना चाहिये परन्तु मूढगर्भ, अश्मरी, भगन्दर, उदर रोग, अर्श तथा मुख के रोगों में रोगी को बिना खिलाये ही अग्निकर्म करना चाहिये।
अग्निकर्म के भेद /Types of Agnikarma
कुछ आचार्यों ने अग्निकर्म के 2 भेद माने हैं-
- त्वग्दग्ध
- मांसदग्ध
परन्तु धन्वन्तरि सम्प्रदाय में- त्वग्दग्ध व मांसदग्ध के साथ ही सिरा, स्नायु, सन्धि व अस्थियों के दहन को भी माना जाता है।
लक्षण:-
- त्वग्दग्ध– चड़-चड़ शब्द का होना, दुर्गन्ध आना, तालफलव्रणता तथा त्वचा का सङ्कोच होना ये ‘त्वग्दग्ध’ के लक्षण हैं ।
- मांसदग्ध– कपोत के समान वर्ण होना, शोथ तथा वेदना कम होना, सूखे तथा सङ्कुचित व्रणों का होना ये ‘मांसदग्ध’ के लक्षण हैं।
- सिरास्नायुदग्ध– व्रण में कालापन तथा उभार तथा स्त्राव का नहीं निकलना ये ‘सिरास्नायुदग्ध’ के लक्षण हैं।
- अस्थिदग्ध- व्रण में रूक्षता, लालिमा, कर्कशपना और कठिनता होना ये ‘सन्धि’ और ‘अस्थिदग्ध’ के लक्षण हैं।
अग्निकर्म के योग्य व अयोग्य-
अग्निकर्म के योग्य-
- त्वचा, मांस, सिरा, स्नायु, सन्धि तथा अस्थि में होने वाली वायु की तीव्र पीड़ा में।
- जिस व्रण में मांस उभर आए और कठोर तथा सुप्त (शून्य) हो जाय उसमें।
- ग्रन्थि, अर्श, अर्बुद, भगन्दर, अपची, श्लीपद, चर्मकील, तिलकालक, आन्त्रवृद्धि, सन्धि के रोग तथा सिराओं के कट जाने पर।
- नाडीव्रण तथा रक्त के अधिक स्त्राव होने पर अग्निकर्म करना चाहिए।
अग्निकर्म के अयोग्य-
पित्त प्रकृति, रक्तपित्त, अतिसारी, जिसका शल्य न निकाला हो, दुर्बल, बालक, वृद्ध, डरपोक, अनेक व्रणों से पीडित तथा अस्वेद्य मेें अग्निकर्म निषिद्ध है।
नेत्ररोग व कुष्ठ में भी अग्निकर्म नहीं करना चाहिए- ऐसा आचार्य चरक का मत है।
दहन के प्रकार-
- वलय
- बिन्दु
- विलेखा
- प्रतिसारण
अष्टांग संग्रह में 3 अधिक प्रकार के दहन का उल्लेख प्राप्त होता है-
- अर्धचन्द्र
- स्वस्तिक
- अष्टापद
सिर के रोग तथा अधिमन्थ (नेत्ररोग) में भौंह, ललाट और शङ्ख प्रदेश में दाह करना चाहिये। वर्त्त्मरोगों में दृष्टि को गीले वस्त्र से ढक कर वर्त्म (पलक) के रोमकूपों को या बालों को या बालों की जड़ को दग्ध करना चाहिये ।
तत्र सम्यग्दग्धे मधुसर्पिर्भ्यामभ्यङ्गः।। (सु. सू अ. १२/१३)
सम्यदग्ध में शहद और घृत को मिश्रित कर लगाना चाहिये।
अग्निकर्म की विधि/ Procedure of Agnikarma:-
पूर्वकर्म–
- अग्निकर्म चिकित्सा के लिए operation theatre को यंत्र, शस्त्र व औषध सामग्री से सुसज्जित कर लें। (अग्निकर्म शलाका, पिचु, प्रोत, त्रिफला कषाय, कुमारी स्वरस, यष्टीमधु चूर्ण, gas stove, swab holding forceps, drawsheet etc.)
- जिन अंगों का अग्निकर्म करना है, वहां का रोम शातन करें (removal of hair)
- रोगी को स्निग्ध एवं लघु आहार दें।
- रोगी से लिखित संमतीपत्र (Written consent) लिखवाएं।
- रुग्ण को अग्निकर्म विधि का वर्णन करें, इससे रोगी अग्निकर्म विधि में सहायक होगा।
- शलाका लाल होने तक अग्नि पर तप्त करें।
- व्याधिग्रस्त स्थान को (Affected part) प्रथमतः त्रिफलाकषाय अथवा Savlon के सहायता से प्रक्षालन करें।
- प्रक्षालन के लिए spirit का उपयोग ना करें क्योंकि, वह अग्नि (fire) निर्माण करती है तथा अतिदग्ध करती है।
प्रधानकर्म-
- रोगी के व्याधिग्रस्त स्थान का परीक्षण करें ।
- व्याधिनुसार दहन विशेष का निश्चय करें ।
- शलाका के द्वारा ५-३० सम्यक् दग्ध व्रण करें ।
- अनिकर्म के दौरान शलाका पर अधिक दबाव प्रयुक्त ना करें, अन्यथा अतिदग्ध होने की संभावना होती है।
पश्चातकर्म–
- सम्यक दग्ध व्रण करने के पश्चात कुमारी स्वरस/paraffin द्वारा व्रण स्थान पर लेपन करें । (वेदनाओं की शांति के लिए)
- तत्पश्चात उस पर यष्टीमधुचूर्ण का अवचूर्णन करें ।
- मधु व घृत का अभ्यंग करें ।
- व्रणस्थान पर नारियल तेल (coconut) एवं हरिद्रा चूर्ण दूसरे दिन से दग्ध व्रण भर जाने तक (Heals) लगाएं।
- पथ्यापथ्य का वर्णन करें।
- यह विधि ७ दिन में १ बार करें।
उपद्रव:-
प्लुष्टदग्ध, दुुर्दग्ध, अतिदग्ध, मर्माघात, दाह, दुष्टव्रण।