बस्ति-
बस्ति के प्रयोग से मल का निर्धारण किया जाता है, अतएव यहाँ वमन-विरेचन के करने के बाद तदनुरूप बस्तिविधि का उपदेश किया गया है।
बस्ति का प्रयोग वात-प्रधान दोषो में अथवा केवल वातदोष में करना चाहिए। बस्ति को सभी उपक्रमों (चिकित्सा विधियों ) में अग्रगण्य (प्रमुख) माना जाता है।
यह विधिभेद से तीन प्रकार की होती है-
- निरूह या निरूहण या आस्थापन
- अन्वासन (अनुवासन ) तथा
- उत्तरबस्ति
1.अन्वासन (अनुवासन )–
शरीर के भीतर रह जाने पर भी जो दुषित नहीं होती अथवा जिसका प्रयोग प्रतिदिन किया जा सकता है, अतएव इसे ‘अनुवासनबस्ति’ कहते है।
2.निरूह या निरूहण या आस्थापन–
दोष-दूष्यानुसार तत्तद्रोगनाशक विविधौषध द्रव्यों के स्वरस, क्वाथ, औषध साधित स्नेह, क्षीरपाक, क्षीर, मांसरस, गोमूत्र, काजी, लवणयुक्त उष्णजल, मधु आदि द्रवों को बस्ति-यन्त्र में भरकर गुदमार्ग से पक्वाशय में पहुंचाने की क्रिया की स्थापना’ या निरुह बस्ति हैं
3.उत्तरबस्ति–
मूत्रमार्ग या योनिमार्ग से मूत्राशय और गर्भाशय में जो औषधि पहुँचायी जाय, उसे ‘उत्तर वस्ति’ कहते हैं।
भेद-
*यापन बस्ति– जिन बस्तियों के प्रयोग से मानव तथा स्त्री को दीर्घकाल तक युवा-युवती बनाये रखा जा सके, उन्हें यापन बस्ति कहते हैं।
*युक्तरथ बस्ति– आचार्य चक्रपाणि ने उक्त बस्ति का परिचय इस प्रकार दिया है—घोड़े जुते हुए रथ में बैठकर तत्काल जाने वाले व्यक्ति को भी किसी प्रकार की तैयारी किये बिना भी यह बस्ति दी जा सकती है और देने के बाद किसी प्रकार का परहेज भी इसमें नहीं करना पड़ता, यही उक्त नाम की सार्थकता है।
बस्तिनेत्र-
- परिचय उन दोनों (निरूहण एवं अनुशासन) बस्तियों के नेत्रों को सोना आदि धातु का, लकड़ी का, हड्डी का अथवा बांस का बनवाना चाहिए।
- इन नेत्रों का आकार गाय की पूछ के सदृश (नीचे की ओर को क्रमशः मोटा और आगे की ओर क्रमशः पतला), पतले छेद से युक्त, चिकना, सीधा तथा उसका मुख (अगला) भाग गोलाकार होना चाहिए।।
बस्ति यन्त्र के अग्रभाग पर लगी हुई धातु-बाँस-हड्डी आदि की छिद्रयुक्त नलिका, जिसे गुदमार्ग, मूत्रमार्ग एवं योनिमार्ग में प्रवेश कराकर बस्ति को दबाकर द्रव को भीतरी भाग में प्रवेश कराते हैं । आजकल उसे Nosel ( नोजल ) कहते हैं। संहिताकाल में यह बस्ति स्वर्ण-रजत-ताम्र-लौह-बङ्ग-पित्तल-कांस्य अस्थि वृक्ष-बाँस-दाँत-नल सींग नेत्र एवं मणियों के द्वारा आवश्यकतानुसार बनाया जाता था लेकिन आजकल यह नेत्र ( नोजल ) स्टेनलेस स्टील, रवर एवं प्लास्टिक आदि से बनाये जाते हैं।
बस्ति नेत्र का प्रमाण-
यह नेत्र गोपुच्छाकर आगे की ओर पतला और पीछे की ओर मोटा तथा गोल बनाया जाता है । यह अवस्थानुसार बड़े-छोटे कई प्रकार के होते हैं।
- १ से ६ वर्ष की आयु तक ६ अङ्गुल कनिष्ठांगुलि प्रमाणपरिणाह मूंग प्रमाण छिद्रयुक्त ।
- ६ से १२ वर्ष तक ८ अगस्ट मध्यमांगुलिप्रमाण परिणाम मटरप्रमाण छिद्रयुक्त।
- १३ से २० वर्ष की आयुतक १२ अगुल अंगुष्ठ प्रमाण परिणाह कर्कन्धुप्रमाण छिद्रयुक्त। – अर्थात उन नलिका छिद्रों से क्रमशः मूंग, मटर और जंगली बेर निकल जाए उतना होना चाहिए।
बस्तिनेत्र के प्रवेश की विधि-
- औषध द्रव से भरी हुई बस्ति के मुख को चिकना करके चिकना किये गये गुदद्वार में इसका प्रवेश कराना चाहिए।
- औषध द्रव भरने के पहले बस्तिपुट को दबाकर जसके भीतर जो हवा भरी हुई थी उसे निकाल कर तब उसमें औषधद्रव भरें।
- बस्तिनेत्र का प्रवेश पीठ की और न अधिक शीघ्रता से और न अधिक विलम्ब से करे और औषधद्रव को भीतर प्रवेश कराने की इच्छा से बस्तिपुट को न अधिक वेग से और न अधिक धोरे से दबायें अर्थात् उसे एक बार दबाकर औषध को भीतर प्रवेश करा दें।
- यदि कुछ औषधदृव रह गया हो तो पुनः उसे भीतर प्रवेश न करायें, क्योंकि जो शेष बच जाता है उसमें वायु का प्रवेश हो जाता है। अतः उस बस्तिनेत्र को धीरे-धीरे गुद से बाहर निकाल लें।
बस्ति के गुण-
- वस्ति सभी कार्यों को सिद्ध करती है । बालक, युवा और वृद्धों के लिए हितकर है । इसके सेवन से कोई उपद्रव नहीं होता है और सभी प्रकार के रोग इससे नष्ट हो जाते हैं।
- निरुहवस्ति पुरुष-कफ-पित्त-वायु और मूत्र को बाहर निकालने वाली होती है । शरीर में दृढ़ता उत्पन्न करती है ।
- शुक्र और बल को बढाती है । बस्ति सम्पूर्ण शरीर में स्थित संचित दोषों को बाहर निकाल कर विकार समूह को नाश करती है।
- उदर में आध्मान होने पर, मल में गाँठ होने पर, उदर में शूल, भोजन में अरुचि होने पर तथा
- इसी प्रकार के कोई अन्य रोग उदर में होने पर बस्ती का प्रयोग उत्तम होता है।
4 replies on “Basti Karma / बस्ति कर्म : Panchkarma Therapy”
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