दिन का अर्थ है प्रतिदिन और चर्या का अर्थ है आचरण।
यहाँ चरण का उल्लेख करते समय यह भी कहा गया है कि आचाराल्लभते आयुः । अर्थात आचार से आयु प्राप्त होती है।
निरुक्ती :-
प्रतिदिन कर्तव्या चर्या दिनचर्या।
प्रतिदिन करने योग्य चर्या दिनचर्या कहलाती है।
आचार शब्द से आहार व विहार दोनों का ग्रहण होता है ।
विहार दो प्रकार का होता है।
• अनियत काल विहार
• नियत काल विहार – नियत काल विहार भी दो प्रकार का होता है – दैनंदिन ( प्रतिदिन करने योग्य)
आर्ताव (प्रत्येक ऋतु से संबंधित)
दिनचर्या उद्येशय और महत्व-
आरोग्य की कामना करने वाले धीमान पुरुष को दिन चर्या में वर्णित कार्यों को प्रतिदिन करता चाहिए
अब में आने वाले कर्तव्य :-
- ब्रह्म मुहूर्त जागरण
- ऊषापान
- मुत्रतयाग
- आचमन
- दंत धावन
- जिह्वा निर्लेख
- मुख प्रक्षालन
- अंजन
- नस्य
- कवल गणडूष
- धूमपान
- ताम्बूल सेवन
- अभयंग
- व्यायाम
- उद्वर्तन
- स्नान
- अनुलेपन
- वस्त्रधारण
ब्रह्मुहूर्त जागरण-
स्वस्थ पुरुष को आयु की रक्षा करने के लिए रात्रि का भोजन पच जाए अथवा नहीं इसका विचार करने के बाद ब्रह्म मुहूर्त में निद्रा त्याग करना चाहिए।
ब्रह्म मुहूर्त समय-
रात्रे पशचिमयामस्य मुहूत्तों यस्तृतीयकः । अरुणोदयकाले ब्रह्मुहूर्त ।
रात्रि का चतुर्दश मुहूर्त ब्रह्म मुहूर्त है। इस समय को जानने के लिए काल का ज्ञान होना आवश्यक है। एक दिन में 24 घंटे होते है। जिसको 8 यामों में विभजित किया गया है।
4 याम+4 याम-। दिन रात (अहोरात्र)
1 याम- 1 दिनरात (अहोरात्र )
1 याम (प्रहर ) – राशिभागे चत्वार पादोना यामः।
(48 मिनिट) १ मुहूर्त- 2 नाडिका (घटी)
रात के चौदहवें मुहूर्त यानी रात के ४ घटी शेष रहने के समय से लेकर २ घड़ी शेष तक के समय को ब्रह्म मुहूर्त कहते है।
निरक्ति– ब्रह्ममुहूर्त दो शब्दों से बना है ब्रह्म एवं मुहूर्त।
ब्रह्म- इसका अर्थ है ज्ञान का अध्ययन
मुहूर्त- २ नाड़ीका या ४८ मिनट
रात का अंति याम का तीसरा मुहूर्त ब्रह्म मुहूर्त, यह मुहूर्त निद्रात्याग कर शरीर चिन्तन के लिए आदर्श माना है। सूर्य उदय के पूर्व १/२ प्रहर में ब्रह्म मुहूर्त प्रारम्भ होता है ।इसमें पहले मुहूर्त को ब्रह्म मूहर्त एवं दूसरा अन्तिम मुहूर्त को रोद्र मुहूर्त कहा गया है। रात के अंतिम मुहूर्त का समय ब्रह्म मुहूर्त है। यदि सूर्योदय काल 6:00 AM. है तो सूर्योदय से 1 घंटे 24 मिनट पूर्व का मुहूर्त 4.24.A.M. से 5:12 AM ब्रह्म मुहूर्त माना जाता है।
महत्व-
- ब्रह्म मुहूर्त को पंचामृत वेला कहा गया है। शुद्ध जल, शुद्ध वायु, शुद्ध भूमि, विपुल प्रकाश और विपुल आकाश ये ही प्रकृति के पञ्चामृत है। प्रातः काल में ही स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित अवस्था में ये पाँच मिलते हैं।
- ब्रह्म मुहूर्त यानिद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी। इसका मतलब है कि ब्रह्म मुहूर्त में सोये रहने से पुण्य का क्षय होता है तथा पुण्य के क्षय हो जाने से अनेक उपद्रव उत्पन होते हैं। इसीलिए ब्रह्म मुहूर्त में निद्रा त्याग करना चाहिए।
- प्रायः अशुभ स्वप्नों के आने से स्वप्नदोष होकर वीर्य स्खलन होने की आशंका रहती है। अत: ब्रह्म मुहूर्त में शय्या छोड़ देना उचित कहा गया है।
- ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म-अर्थ का चिन्तन करना, शरीर के कलेश की शान्ति के लिये मन में ईश्वर का स्मरण करें।
- रसशेषाजीर्ण की अवस्था में आचार्यों ने दिवाशयन का निर्देश दिया है। दिवाशयन से धातओं में समता होती जससे सभी दोष अपने-अपने स्थान में चले जाते हैं। ऐसी दशा में दोषों से अनाकान्त जठराग्नि अन्न का पाचन कर देती অदि कफ की वृद्धि होती भी है तो अपने स्थान में ही होती है, अत: उसका प्रभाव अग्नि पर नहीं पड़ता है।
Probable Mode of Action :
Nascent oxygen which is liberated in the early morning will easily and readily mix up with hemoglobin to form oxy-haemoglobin which reach and nourish the remote tissues rapidly.
Release of serotonin hormone keeps individual active and alert.
Minimum Pollution (Noise.air. water and environment in the early morning enhances concentration process.
दर्पण आलोकन-
- मङ्गल्यं – दर्पण में मुख देखना मंगलप्रद
- त्वचा कान्तियुक्त होना
- पौष्टिकं – पुष्टिकारक
- बलम् – बलदायक
- आयुष्यं – आयु बढाने वाला
6-7. पापलक्ष्मी विनाशनम् – पाप एवं दरिद्रता को दूर करने वाला होता है। आयु की रक्षार्थ पुरुष को ब्रह्ममुहूर्त में निद्रा त्याग कर दर्पण में अपने मुख का अवलोकन करना चाहिए।
उषापान :-
उषा पान दो शब्दों से बना है उषा व पान।
उषा- प्रत्युषकाल / ब्रह्म मुहूर्त । अरुणोदयकाल पान: पीना / द्रव का सेवन।
परिभाषा :–
सूर्योदय होने के समय में, आठ प्रसूति (640 ml) जलपान करने से वृद्धता एवं रोग से मुक्त होकर सौ वर्ष समय से अधिक समय तक जीवित रहा जा सकता है।
उषापान सूर्य उदय होने से पहले सेवित जलपान
समय:
आस्य जलपानस्योपक्रमकालो रात्रेश्चतुर्थप्रहरे प्रवेश।
रात्रि के चतुर्थ (4) प्रहर ( पीतमन्ते निशाना: ) जलपान के प्रारम्भ का काल रात्रि के चतुर्थ प्रहर से ही प्रारम्भ होता है। सूर्योदय के अत्यन्त सन्निकट पूर्व का ही काल है।
जल गुण: –
भावप्रकाश के अनुसार जल का गुण पर्युषित, यानि बासी जल का सेवन करना चाहिये।।
जल मात्रा : 640 ml
योग्य व्याधियाँ :-
अर्श रोग, शोथ, ग्रहणी, ज्वर, उदर- कुष्ठ एवं मेद रोग में मूत्र आघात, रक्तपित्त एवं कान, गला, शिर और श्रोणी प्रदेश में शूल, वात, पित्त, कफ एवं क्षतज विकार ऊषापान से इन समस्त व्याधियों से बचाव एवं नियंत्रण सम्भव है।
नासा जल पान: 240ml
लाभ :-
व्यावलोपलितनं पीनसबैस्वर्यं कासशोथहरम्।
रजनीक्षयेऽम्बुनस्य रसायनं दष्टि सञ्जननम्।।
वली, पीनस, स्वर भंग , कास, शोथ नाशक है। रसायन गुण युक्त एवं दृष्टि प्रसादक होता है।
अयोग्य व्यक्ति :
सनेहपान, विरेचन, वमन, अध्यमान, मन्द अग्नि, हिक्का, कफ बात विकार, में वृज्य है।
मलत्याग :-
मल एवं मूत्र का वेग प्रतीत होने पर दिन में उत्तर दिशा और रात्रि में दक्षिण दिशा में त्याग करना चाहिए।
मलत्याग नियम-
• मौन धारण करके
• अन्य कार्य का नहीं कर करते हुए।
• मल त्याग सार्वजनिक स्थानों पर हीं करना चाहिए।
• आते हुए वेग को त्यागना चाहिए।
उद्देश्य:–
दिनचर्या में इसका उल्लेख करने का कारण है कि मलवेग धारणा से पिण्डिलियों में ऐठन, प्रतिश्याय, शिरः शूल आदि होते हैं।
आचमन :
आचमन का मतलब है मुख प्रक्षालन।
आचमन काल :
मल-मूत्र त्याग करने के बाद ,भोजन करने के पूर्व और पश्चात, छींक आने के पश्चात्, बाहर से घूमकर घर आने पर ,स्नान करने के बाद ,सोकर उठने के पश्चात् ,देवपूजन के प्रारम्भ में।
आचमन नियम :–
पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर, बैठकर, एकान्त स्थान पर मौन धारण करके ,हाथ घुटनों से बाहर न करके ,शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, अंगुष्ठ को जड़ तक अंजलि में स्वच्छ जल लेकर आचमन करना चाहिये।
आचमन निषिद्ध जल:
• अग्नि पक्व,
• दुर्गन्धित.
• फेन युक्त.
• बुलबुलेयुक्त, व क्षार मिश्रित जल आचमन दो क्रियाओं से युक्त होता है हस्तपाद प्रक्षालन एवं अंजलि जल पान मल मूत्र त्यागने के बाद हस्त पाद प्रक्षालन से संक्रमण नहीं होता, उसके बाद अंजलि जलपान से मुख गीला हो जाता है ।
दन्त धावन
उत्तम दातुन के लक्षण:
• बारह अंगुल लम्बी।
• कनीनिका अंगुली के अग्रभाग के समान मोटी
• सुन्दर कुची वाली।
• दातुन का अग्रभाग कूंचा हुआ
• दो गांठ रहित।
• प्रशस्त देशोत्पन्न होना चाहिए।
• हमेशा दोष, रस और वीर्य को देखकर दातुन सेवन करना चाहिये अर्थात् कषाय, तिक्त, कटु मधुर (सुपुत) रस याली दाता सेवन करें। मधुर- विशेषण मधुर रस वली दातुन मुखपाक या मुखदाह आदि पित्तज विकारों में एवं पितज प्रकृति पर प्रयोग करनी चाहिये।
• कषाय में खदिर
• तिक्त में निम्ब
• कटु में करंज
• मधुर में मधूक (महुआ) की दातुन श्रेष्ठ है। योग्य दंत धावन वृक्ष- वट, अर्जुन, अर्क, खदिर, करवीर सर्ज, इरिमेद, अपामार्ग, मालती।
दातुन करने की विधि:-
दातुन के अग्रभाग को दांतों से चबाकर अथवा कूटकर मुलायम कर लेना चाहिए। एक एक दाँत को पृथक पृथक मसूड़ों की रक्षा करते हुए रगड़ना चाहिये। दांतों की ऊपरी पंक्ति से दातुन करना प्रारंभ करना चाहिये।
दन्त शोधन चूर्ण – त्रिकटु, त्वक (दालचीनी), पत्र (तेज-पत्र) एला (त्रिजातक), सेंधव लवण, तेजबल के चूर्ण को मधु व तिल तेल में मिलाकर दातुन से या अंगुलि से रगड़ना चाहिए।
दन्तधावन काल:-
प्रातःकाल तथा भोजन के पश्चात अथात् सांयकाल भोजन के बाद दन्त धावन करें।
दन्तधावन के अयोग्य पेड़- श्लेष्मातक ,विभीतक धव, धन्वज. बिल्व, निर्गुंडी, तिन्दुक, कोविदार (कंचनार) शमी , पीलू, पीपल गुग्गुल, अम्लिका (इमली) . श्वेत /रक्त शाल्मली की दातुन नहीं करना चाहिए।
वाग्भट के अनुसार वृक्ष जो स्वादु, अम्ल, लवण रस युक्त, जो सूखी. दुर्गन्धित तथा लसीली हो, ऐसे दातुन को नहीं उपयोग में लेना चाहिए।
दन्तधावन के लाभ:
निहन्ति गन्धं वैरस्यं जिह्वादन्तास्यजं मलम्। निष्कृष्य रुचिमाघत्ते सद्यो दन्त विशोधनम्।।
Preventive Benefits:- मुख की मलिनता, वैरस्य, दुर्गन्ध, जिह्वा रोग, मुखरोग एवं दंत रोग नहीं होते हैं।
Promotive Benefits:-
स्वस्थ व्यक्ति की आहार में रुचि, मुख में स्वच्छता एवं लघुता उत्पन्न होती है और मुख से श्लेष्मा का लेखन होता हैं।
दन्तधावन के निषेध :
नाद्यादजीर्ण वमथु श्वासकासज्वरार्दिता । तृष्णास्यपाक हन्नेत्रशिर: कर्णामयी च ततः।।
•अजीर्ण अवस्था
• अर्दित
• वमन
• तृष्णा
• आस्यपाक (मुखपाक)
• श्वास
• कास, हिक्का
• हृदय रोग
• नेत्र, शिर, कर्ण रोग मुख रोग तालु, ओष्ठ, कण्ठ और जिहारोग, दन्तरोग।
• मद्यपान की थकावट से युक्त पुरुष को दन्तधावन नहीं करना चाहिए।
जिह्वा निर्लेखन
दंत धावन करने के बाद जिह्वा निर्लेखन करें। जिहवी सोने, चाँदी की या वृक्ष मृदु शाखाओं द्वारा बनी हुयी होनी चाहिए। तांबा या स्टील की भी प्रयोग में ला सकते हैं।
जिह्वा मूल भाग में रहने वाला मल श्वास प्रश्वास की क्रिया में बाधा पहुंचाता है सथा मुख में दुर्गंध उत्पन्त करता है। इसलिये जिह्वा निर्लेखन जिह्वा मूल से अग्र भाग तक, आगे की ओर लेखन करना चाहिए।
Preventive Benefits:
मुख वेरस्य नाशक , मुख दुर्गन्ध नाशक , जिह्वा रोग मुख रोग नाशक।
Promotive Benefits:
मुख में स्वछता और लघुता लाता है।
Probable Mode of Action :
It stimulates taste perception & increases the salivation ,saliva contains salivary amylase lysosome, which acts as bactericidal .
Increased salivation indirectly enhances the gastrointestinal secretions by cephalic phase which improves digestion & also increases the threshold level of basic taste perception .
According to acupressure theory tongue has many more acupressure points on tongue which initiates the functioning of vital organs like liver, kidney spleen etc
मुख व नेत्र प्रक्षालन :
प्रक्षालयेन्मुखं नेत्रे स्वस्थः शीतोदकेन वा।।
स्वस्थ व्यक्ति को दन्तधावन और जिहानिलेखन के बाद ग्रीष्म एवं शरद ऋतु में शीतल जल से और अन्य ऋतुओं में किंचित उष्णजल से मुख व नेत्र प्रक्षालन करना चाहिए।
मुखप्रक्षालनार्थ द्रव्यः
क्षीरवृक्षकषायैवां क्षीरेण च विमिश्रितैः ।
• शीतोदक शीतल जल ग्रीष्म और शरद ऋतु में
• क्षीर वृक्ष कषाय (क्वाथ)
• लोध्र क्वाथ से मुख प्रक्षालन करना चाहिए।
प्रक्षालन के लाभ:
नीलिका मुखशोषं च पिडका व्यङ्गमेव च।। रक्तपित्तकृतान् रोगान् सद्य एव विनाशयेत्। मुखं लघु निरीक्षेत दृढं पश्यति चक्षुषा ॥
Preventive Benefits:
इसका पालन करने से निलीका, मुख शोष, पीडिका (मुख दूषित/युवान पीड़िका) व्यङ्ग, रकतपित रोगों का शीघ्र नाश हो जाता है।
Promotive Benefits:
मुख में लघुता आती हैं। नेत्रों के ज्योति स्थिर हो जाती है।
अञ्जन कर्म :
अञ्जन महत्व:
चक्षस्तेजोमयं तस्य विशेषाच्छूलेष्मतो भयम् ।।
चक्षु अग्नितत्व प्रधान होता है। अत: उसका श्लेष्मा (जल तत्त्व) से विशेष विकृत होने का भय रहता है, इसलिए श्लेष्मा के सावणार्थ स्वस्थ व्यक्ति में अञ्जन का प्रयोग निर्देशित है।
अञ्जन भेद और उपयोग
सौवीरमंजन नित्यं हितमक्ष्णोः प्रयोजयेत् । पञ्चरात्रेऽष्ठरात्रे लावणार्थे रसाञ्जनम्।।
• सौवीराजन और रसाजन ये दो प्रकार के अञ्जन स्वस्थ व्यक्ति में नेत्रों कि स्वास्थ्य रक्षणार्थ उपयोग किये जाते हैं।
• सौवीरअंजन मृदु द्रव्यों से बनाये जाते हैं। सौवीराजन मृद्गुण युक्त होने से प्रसादन कारक होता है । रमाञ्जन तीक्ष्णगुणयुक्त होने से लेखनकारक होता है।
अंजन प्रयोग काल:
• सौवीर अंजन प्रसादनात्मक होने के कारण प्रतिदिन, दिन में प्रयुक्त किया जाता है।
• रसा्जन तीक्ष्ण गुण युक्त होने से पांच दिन में या आठ दिन में एक बार, रात को करना चाहिए। क्योंकि रात्रि में श्लेष्मा काल होने से अंजन की तीक्ष्णता का दुष्परिणाम नहीं होता है।
अन्जन कर्म विधान- अंजन कर्म शलाका के द्वारा किया जाता है।
शलाका लक्षण:-शलाका दस अंगुल लम्बी, मध्य भाग से धारण करने लायक पतली और अग्रभाग फूलों की कली के समान होना चाहिये।
शलाका स्वर्ण, रौप्य (चाँदी), ताम्र, लोहादि में से किसी भी धातु की बनी होनी चाहिए।
शलाका– स्वर्ण (प्रसादन),ताम्र (लेखन)व लौह(रोपण)।
विधि-शलाका द्वारा अंजन द्रव्यों को लेकर आँखों को पलकों को हाथ के अंगुष्ठ और कनिष्ठिका अंगुली से पकड़कर आँखों के कनीनिक भाग से अपांग भागतक लेप करना चाहिये।
तीक्ष्ण अंजन करने के लिये दो बार तथा प्रसादाजन करने के लिये तीन बार शालाकाओं का उपयोग करना चाहिये।
कार्यारम्भ तथा अजनकर्म समाप्त होने में कथित जल से इन शलाकाओं को धो लेना चाहिए।
अजनकर्म के लाभ:
दाहकण्डू मलघ्रम् च दृष्टिक्लेदरुजापहम्।। तेजोरुपावह चैव सहते मारुतातपौ। न नेत्ररोगा जायन्ते तस्मादजनमाचरेत।।
Preventive benefits.
अजनकर्म आँखों में उत्पन होने वाली दाह, कंडू और मल का निर्हरण करता है।
Promotive benefits.
स्वस्थ व्यक्ति द्वारा अञ्जन के प्रयोग करने से आँखों की ज्योति बढ़ती है और वायु, धूप को सहने की शक्ति प्राप्त होती है। इसका प्रयोग करने से नेत्ररोग उत्पन्न नहीं होते हैं।
अंजन के अयोग्य व्यक्ति और काल:-
भोजन किया हुआ , सिर से स्नान किया हुआ,वमन एवं वाहन से थका हुआ,रात में जागरण किया हुआ व्यक्ति अजनं के आयोरय हैं।
Probable Mode of Action:
Irritation to eye lids and conjunctive enhances the circulation which increase the bio availability of potency (active principle) of drugs
Sustained drug release action because of mucosal cutaneous junction by which drug show prolong action
Drugs will have easy penetration because of rich circulation in conjunctiva.
Drugs will get absorbed through episcleral vessels and perilimbal vessels and is released to aqueous flow of eye, thus the potency of the Anjana dravya is dispersed uniformly throughout the eye ball.
नस्य कर्म :
परिभाषा : औषधि अथवा किसी भी प्रकार का औषसिद्ध स्नेह नसिका छिद्र द्वारा प्रयुक्त किया जाता है, उसे नस्य कर्म कहा गया है।
पर्याय-नावन नित्यकर्म
भेद-
- सुश्रुत अनुसार ने नस्य कर्म को दो भागों में विभाजित किया है- १.शिरो विरेचन २.स्नेहन
- शिरोविरेचन के प्रकार- प्रधमन, अवपीडन एवम् शिरोविरेचन
स्नेहन के प्रकार- प्रति मर्श एवम् मर्श ।
- वागभट् अनुसार- प्रधमन, अवपीडन, मर्श एवम प्रतिमर्श
- चरकानुसार –१. नावन- स्नेहन, शोधन
२. अवपीडन- शोधन, स्तम्भन
३. ध्यापन- रेचन
४. धूम- प्रायोगिक,स्नेहिक, वेरेचन
५. प्रति मर्श - प्रतिमर्श नस्य का परिणाम- नासा से स्नेह को वेग से खींचने पर स्नेह का कुछ अंश मुख तक पहुंच जाए, वह प्रति मर्श नस्य है।(मात्रा २ बिंदु)
- बिंदु मात्रा- तर्जनी अंगली को दो पर्व तक स्नेह में डुबोकर बाहर निकालने पर जितना स्नेह एक बार गिरता है उसे बिंदु कहते है।
स्वस्थ व्यक्ति के लिए संहिताओं में दो प्रकार के तेल का वर्णित है। ये हैं-१. अणु तैल (वाग्भट चरक) २ कटु तेल(भा. प्र./यो. र.)
नस्यविधि-संहिताओं में बताए गये किसी एक स्नेह द्रव्य को, स्वस्थ व्यक्ति के प्रत्येक नासिका छिद्र में 2 बूंद मात्रा में डालना चाहिये। स्नेह का प्रयोग करते समय शिर एवं ग्रीवा को थोडा टेडाकर के अथवा पलंग पर लेटकर सिर एवं गरदन को पीछे लेकर दो बून्द डालना चाहिये। डालने के बादे, साँस को पिछे खींचना चाहिए। स्नेह के बुन्द मुख में आने पर थूंके।
नस्य काल-योग रत्नाकर ने स्वस्थ व्यक्तियों के तीन काल बताये हैं।
• कफ प्रकृति पुरुष में प्रात:काल
• पित्त प्रकृति पुरुष में -मध्याह्न काल
• वात प्रकृति पुरुष में-सांयकाल
आचार्य वृद्धवार्भट्टानुसार
• शीतकाल (शिशिर एवं हेमन्त ऋतुओं) में -मध्याह
• शरद एवं वसन्त ऋतु में- पूर्वाह्न
• ग्रीष्म ऋतु में-अपराह्न
• वर्षा ऋतु में-सर्यदर्शन के समय नस्य कर्म करना चाहिए।
सुश्रुत ने प्रतिमर्श नस्य के 14 काल बताये हैं
चक्र दात्त के अनुसार 15 काल प्रतिमर्शनस्य के बताये गये हैं।
वाग्भट्ट के अनुसार प्रतिमर्शनस्य के पन्द्रह काल होते हैं। |
1.प्रात:काल- स्रोतो शुद्धि, शरीर लघुता, मन प्रसन्नता।
2.मलत्याग करने के बाद-दृष्टि प्रसादन।
3.मूत्र त्याग के बाद -दृष्टि प्रसादन।
4.दन्तधावन के बाद-दाँतों में दृढ़ता - अंजन के बाद- दृष्टि प्रसादन
- कवल धारण के बाद- दृष्टि प्रसादन
- शिर अभयंग- दृष्टि प्रसादन
- व्यायम के बाद- थकावट, क़लम, स्वेद, स्तब्धता नाशक
- भोजन के बाद- शरीर लघुता, स्रोतों शुद्धि
- दिवास्वप्न- निद्रा, गुरूता का नाश
- अत्यंत हसने के बाद- वायु शांति
- वमन के बाद- स्रोतों में लीन श्लेष्मा नाश
13.मार्ग गमन के बाद- श्रम - दिन के अंत में- स्रोत शुद्धि
- व्यवाय के बाद- क़लम, श्रम, स्वेद नाशक।
प्रतिमर्श नस्य की कामुकता:–
नासा मार्ग से प्रयुक्त स्नेह , सूक्ष्म स्रोत से श्रंंगआटक प्रदेश से सम्पूर्ण मेधा में व्याप्त होकर कंठ आदि अंगों की सिराओं में व्याप्त होकर ऊधर्व जत्रुगत दोषों को मस्तिष्क से अपकर्षण करता है।
प्रतिमर्शनस्य के लाभ- शिर का स्थान कफ होने से स्वस्थ मनुष्यों के लिए स्नेह (तैल) ही प्रशस्त (अन्य घृत आदि उपयुक्त नहीं है, क्यूंकि वे कफ की वृद्धि करते है।
Promotive benefits :-
सिर के बाल तथा दाढ़ी-मूछ अकाल में श्वेत और कपिल नहीं होती है। नेत्र नासिका आदि व्याधि ग्रस्त नहीं होते।
Probable Mode of Action :-
seen on cribriform plate of ethmoid bone, Nasya dravy triggers the nerve of the and sends the message to the CNS and initiates the normal physiological functions Of body.
Sticky nature of the Nasya dravya (Anu taila, katu tail) avoids the entry of dust particles entering into the nasal tract. Venous circulation of nose drains in the cavernous sinus. Cavernous sinus has emissary veins, which also receives Nasya drug may act on brain through cavernous sinus from the brain. Hence, the potency active principle of the nasay drugs May act on brain.
No any scientific analysis of entry of drug as a whole in brain by surpassing the BLOOD BRAIN BARRIER
गण्डूष एवं कवल:
परिभाष:
असंचार्या तु या मात्रा गण्डूष स प्रकीर्तितः ॥ (सु चि. 40/62)
औषधि द्रव या द्रव्य की जो मात्रा केवल मुख में रखी जाए और इधर उधर ना घुमाई जा सके वही गंडूष है।
गण्डूष के प्रमाण :- द्रव्य में एक कोल या आधा कर्ष गंडुष प्रमाण होता है।
भेद-गण्डूष 4 प्रकार के हैं –
१.स्नेहिक गण्डूष-वात दोष (वात प्रकृति पुरुष)
२. शमन गंदूष-पित्तदोष (प्रसादन/स्तम्भन )
३..शोधन गण्डूष-कफ दोष के लिये, कफ लेखनार्थ
४.रोपण गण्डूष-मुख व्रण नाशक
प्रयोग विधि:
स्वस्थ व्यक्ति में ,वायु रहित स्थान में ,धूप में एकाग्रचित होकर सुखपूर्वक बैठकर गंदूष द्रव्य को मुख में धारण करना चाहिये।
गण्डूष धारण कालावधि:
गण्डूष को उस समय तक मुख में रखना चाहिए जब तक कि कपोल (या मुख) कफ से परिपूर्ण न हो जाये। नासा से नाव न होने लगे। नेत्र से साव न होने लगे मलीभूत कफ के द्वारा ओषधि गुण नष्ट ना होने लगे।
गंदूष द्रव्य-
१. स्नेहन गंदुष द्रव्य- मधुर, अम्ल, लवण रस युक्त, उष्ण औषधि द्रव्य से सिद्ध स्नेह। केवल स्नेह या मांस रस, जल व दूध से गण्डूष कर सकते हैं।
२.शमन गण्डूष द्रव्य- तिक्त, कषाय, मधुर रस युक्त द्रव्य। शीत वीर्य औषधि द्रव्य जैसे-पटोल, जम्बू, आम्र, मधूक के क्वाथ। शीतोदक, क्षीर, इक्षुरस, घृतादि।
३. रोपण गण्डूष द्रव्य -कषाय एवं मधुर रस, उष्ण गुण युक्त द्रव्य, धान्याम्ल (कांजी), गोमूत्र
४. शोधन गण्डूष द्रव्य -तिक्त, अम्ल, लवण रस एवं उष्ण गुण युक्त द्रव्य, लेखन, छेदन गुण युक्त हो उस द्रव्य का उपयोग करना चाहिए।
गण्डूष का लाभ:
हन्वोर्बलं स्वरबलं वदनोपचयः परः । स्यात परं च रसज्ञानमन्ने च रुचिरुक्तमा ।(च. सू. =५/७८)
Promotive Benefits:
स्वर में तीव्रता उत्पन्न होती है। रस का उत्तम ज्ञान होता है।हनु(mandible) में बल को वृद्धि। जिहवा स्वच्छ रहती है। अन्न में रुचि उत्पन्न होती है।
Preventive Benefits :
मुख व कण्ठ में शुष्कता नहीं होती है। होंठ फटते नहीं है। दाँतों का नाश (दन्त क्षय) नहीं होता है, मूल दृढ़ हो जाते हैं। दन्त शूल व खट्टी वस्तुओं के भक्षण करने पर भी दन्तहर्ष नहीं होता है।
कवल ग्रह:
परिभाषा:
मुखं संचार्यते या तु मात्रा स (सा) कवल: स्मृतः।। (सु.चि. 40/62)
औषधि द्रव या द्रव्य की जो मात्रा मुख में सुखपूर्वक इधर-उधर संचारित हो उसे कवल ग्रह कहा जाता है। इसमे कल्क प्रयोग होता है।
कवल के प्रकार-
• स्नेहन-वातज व्याधि में-स्निग्ध और उष्ण द्रव्य से।
• प्रसादन-पितज व्याधि में -मधुर और शीतल द्रव्य से।
• शोधन-कफज व्याधि में-कटु, अम्ल, लवण, रुक्ष और उष्ण द्रव्य से।
• रोपण-घाव में-कषाय, तिक्त, मधुर द्रव्य से। प्रयोग विधि और लाभ गण्डूष के समान है
Probable Mode of Action :
Most of the time sukoshna (Luke warm) Gandusha and Kavala dravyas are used – this improves the circulation of oral cavity and enhances the rapid acceptability of potency of drugs.
Every cell membrane of human body is made up of lipid bi layer, anything get observed rapidly when it is combined with the oil or fat. Similarly mucous membrane of oral cavity has ability to absorb the lipid soluble drugs hence the potency or active principle of dravy present in gandusha / Kavala dravya are absorbed.
Gargling procedure of Kavala poses the massaging effect over the oral mucosa and even strengthens the muscles of cheek, face and jaw bones.
धूमपान
परिभाषा
धूम अभ्यवहारमोक्षाः धूम्रपान।।
धूम पान का तात्पर्य धूम के ग्रहण से होता है। औषधि इ्व्य निर्मित धूम वर्ती से निकलने वाले धूम का मुख से ग्रहण करना ही धूम पान कहलाता है। यदि इस धूम को नासा छिद्र द्वारा ग्रहण किया जाये तो उसे नासापान के नाम से उल्लेख किया जाता है।
धूमपान भेद
चरक सम्बन्धित तीन प्रकार :
- दैनिक( प्रायौगिक)
- आवस्थिक (सनेहिक एवम विरेचनिक)
सुश्रुत के अनुसार प्रकार ५ प्रकार
• दैनिक (प्रायोगिक)
• आवस्थिक (स्नेहिक, विरेचनिक, कासघन एवम् वामक)
अष्टांग के अनुसार
• दैनिक(प्रायोगिक, स्नेहन एवम् विरेचन)
• आवस्थिक ( ककाघन, वामक एवम् घाव धूप)
धूमपान विधि:
दन्त प्रक्षालन के बाद भोजन के बाद
जिसे धूमपान करना हो, उस व्यक्ति को प्रसन्नचित होकर सीधे बैठना चाहिए। पहले श्वास- प्रश्वास (उच्छवास-नि:श्वास) की प्रक्रिया को प्राकृत अवस्था में लेके आये। ओष्ठ एवम दातों को निवृत्त (खुला) रखकर धूम वर्ती के अग्र भाग से धूम को खांचे | मुख मे ग्रहण किये गये धूम को मुख से ही बाहर निकाले। यदि धूम को नासिक से ग्रहण करना हो तो, पहले धूम नेत्र के अग्रभाग पर दृष्टि को रखते हुए एक के बाद एक नासापुट को क्रम से बन्द करके दुसरे नासापुट से धूम को खींचे। नासापुट से ग्रहण किये गये धूम को भी मुख से ही बाहर निकालना चाहिए।
धूमपान काल-यह प्रायोगिक धूमपान, जो स्वस्थ व्यक्तियों में प्रयोज्य हैं, उसके आठकाल माने गये है।
• भुक्त्वा – भोजन करने के बाद
• क्षुत्वा – छींक आने के बाद
• नावनान्ते – नस्य लेने के बाद
• निद्रान्ते – निद्रा से उठने के बाद
• स्नात्वा- स्नान करने के बाद
• समुल्लिख्य – वमन करने के बाद
• देतानिवृष्य – दातुन करने के बाद
• अंजन्नंत्ते – अञ्जन लगा लेने के बाद
बुद्धिमान व्यक्ति को दिन के इन कालों में प्रायोगिक धूम दो बार ,स्नेहिक धूम एक बार और वैरेचनिक धूम तीन या चार बार पीना चाहिये।
परयोगिक धूम नेत्र प्रमाण-
• १२ अंगुल लंबा
• अग्रभाग बेर की गुठली के समान
• सीधा
• त्रिकोष वाला
• स्वर्ण रजत आदि द्रव्य से नेत्र निर्माण करे।
Promotive Benefits:
कफ दोष अपकर्षण होना, हृदय कंठ ओर पांच इन्द्रियां शुद्धि।
अतियोग धूमपान लक्षण अकाल धूम्रपान लक्षण:
बेहरापन, अंधापन, मूकत्वम, रक्त पित्त, शिर भ्रम
Promotional benefits:
नरो धूमोपयोगा प्रसन्नेन्द्रियवाडमनाः। दृडकेश द्वीजश्मक्षु: सुगन्धिचिशदाननः । (सु. सू. 40/15)
मन प्रसन्न होते हैं। केश दांत और मूंछ के बाल मजबूत होते है। मुख सुगंधित और निर्मल होता है शिरोरहकपालानामिन्द्रियाणां स्वरस्य च ।।
Preventive benefits : उधर्वजत्रूगत व्याधियों का नियन्त्रण जैसे- अरोचक, उपजिहविका मुखमाय, अधिक तंद्रा , बुद्धि का व्यामोह , शीरो गौरव, कान व नेत्र शूल, कास, हनू ग्रह आदि।
When the Dhumapana Dravyas are lightened with fire, it releases the smoke, soot and even co२. carbon atom in co२ has the tendency to stimulate the respiratory center present in brain stem this may trigger the norm, physiological function of respiratory system.
Dis-infection action of the Dhumapana Dravya like Haridra, Guggulu and Vacha cleanses the respiratory tract, oral cavity and Pharynx.
धूमपान वर्जय व्यक्ति
विरेचन, बस्ती , रक्त स्राव के बाद। शोक मग्न में ,आम दोष में, मूर्च्छा अवस्था में तृष्णावस्थ में ,शराब पीये व्यक्ति में, विषबाधा में ,थकावट में , कमजोर व्यक्ति में ,दग्ध सेवन , पितज प्रकृति में, पित्त प्रकोपक काल में, ग्रीष्मकाल में , गर्भिणि में धूम्रपान वर्जित है।
ताम्बूल भक्षण विचार :
धूम पान करने के पश्चात स्वास्थ्य रक्षक क्रिया में ताम्बूल सेवन वर्णित है ।
ताम्बूल द्रव्याणि :
कर्पूर जाती कंकोल लवंग कटुकाहयैः । सचूर्णपूगैः सहितं पत्र ताम्बूलं शुभम्।(सु. चि.२४/२१)
ताम्बूल पत्र, जातिफल (Myristica fragrans) , कपूर कंकोल (शीतल चीनी) (Piper cubeba linn) , Hibiscus Abelmosehous Linn,
ताम्बूल द्रव्य प्रमाण :
वाग्भट के मतानुसार 2 तांबूल पत्र ,1 पूगफल, कत्था और चूना आदि द्रव्यों के योग से ताम्बूल का उपयोग बताया गया है। जायफल, कपूर, लवंग, एलादि महंगी वस्तु होने से वाग्भट आचार्य ने इन द्रव्यों का उल्लेख नहीं किया होगा।
ताम्बूल सेवन समय :
- सुप्तोत्थिते-सोकर उठने के बाद
- भुक्ते-भोजन करने के बाद
- वमन करने के बाद करने के बाद
- राजा और विद्वान की सभा में
- मैथुन के बाद
ताम्बूल लाभ: Promotive benefits:
सेवन /ताम्बूल खाने से मुख में निर्मलता एवं सुगन्धिता आती है, त्वचा कान्तियुक्त एवं सुन्दर होती है। दन्त मल नष्ट होता है। जितेन्द्रिय का शोधन होता हैं। मुख प्रसेक को शांत करता है। हनु, दन्त, स्वर मल तथा जिव्हेन्द्रिय का शोधन होता है। हृदय में शक्ति आती है।
Preventive benefits:
गलरोग में उपयोगी बताया है।
रोगविशेषे से ताम्बूल चर्वणविधि :
आलस्य, विद्रधी, दन्त रोग , गल रोग, मुख रोग, कफ रोगों में तांबूल का चर्वण (चबाना) उत्तम बताया गया।
Probable Mode of Action : मधुर, उष्ण, कषाय कटु तिक्त गुण युक्त – Stimulates the taste buds, increase salivation (ptyline enzyme), Scrapes the deposited matters.
Preventive Benefits : क्रिमिहर, फफहर, दुर्गन्धनाशकार
Promotive Benefits: कामाग्नि वर्धन
ताम्बूल निषेध :
अवस्था विशेष निषेध-विरेचन कर्म के बाद
रोग विशेष निषेध: रक्तपित्त, तृष्णा, दुर्बल, मूर्च्छा, मुख शोष।
अति ताम्बूल भक्षण निषेध से होने वाले विकार शोष रोग, पित्त विकार, वात विकार रक्त विकार।
अभयंग
परिभाषा:-
शरीर पर तेल लगाकर सर्व शरीर का मर्दन करना हि अभ्यंग है। इसका व्यवहारिक नाम है ‘मालिश करना। तैल अभ्यंग, शरीर की त्वचा पर ही किया जाता है, स्पर्शनेन्द्रिय (त्वचा) में वायु की अधिकता होती और तेल का गुण है वातनाशक, इसलिए तैल से मर्दन त्वचा के लिये हितकर माना गया है।
त्वचा में ही स्वेदवह अर्थात् पसीना लाने वाली, स्पर्शवह या स्पर्श का ज्ञान करने वाली तथा वात वह अर्थात् शरीरस्थ वायु का संचरण करने वाले उपस्थित होते हैं, उन स्रोतों का शोधन करने के लिये अभ्य+अंग
समय :
अभयंग प्रतिदिन करना चाहिए, क्योंकि वह और वातजविकारों , जरा, श्रम को नष्ट करता है।
मात्रा
300 मात्रा से 900 मात्रा तक।
(1 मात्रा- हस्व स्वर इ, या उ आदि किसी एक को उच्चारण करने में जितना समय लगता उतने समय को 1 मात्रा कहा गया है।)
प्रमुख स्थान- सिर, कान एवम पैरों के तलवे।
Promotive benefits:
कपाल में बल वृद्धि होती है। केश मूल में मजबूती आती है। केश लम्बे होते है। इंद्रिय प्रसादन होता है। सुख पूर्वक निद्रा आती है।
Preventive benefits:
-बालों का श्वेत न होना।
-केश नहीं गिरते हैं।
शिर में होने वाले रोगों का नाश हो जाता है।
कर्णपूरण विधि:
• स्वस्थ व्यक्ति को एक करवट लिटाकर, उसके दूसरी तरफ के कान में तैल पूरण करना चाहिए।
• पश्चात कान के मूल में मदन करें।
• सौ गिनती गिनने की अवधि तक तैल को धारण करना चाहिए।
कर्ण पूरण ( अभ्यङ्ग) लाभ:
न कर्णरोगा वातोत्था न मन्याहनुसंग्रहः। नो चै श्रुतिर्न बाधिर्य स्यान्नित्यं कर्णं त्पणात्।। (च. सु. 5/81)
वातजन्य रोग नहीं होते है।मन्या स्तम्भ या हनु स्तम्भ नहीं होता।
उच्चश्रुति (धीमे शब्द को ना सुनना)।
पादाभ्यांग लाभ :
Promotive benefits:
जायते सांकुमार्य च चलं स्थैर्य च पादयोः। दृष्टि प्रसादं लभते मारुतश्चोपाशाम्यति ।(च.सू.५/९)
पाद अभ्यंग नित्य करने से, पैरो में- सौकुमार्य पैरों में कोमलता, नेत्रों में प्रसन्नता आती है।पग में बल आता है। पैरों में होने वाले वात रोग का नाश होता है, निद्राकारक ,पैरों में मृदुता आती है।
Preventive benefits :
पैरों में अभ्यङ्ग करने से पैरों का- खुरदरापन , जकड़ाहट, रुक्षत्व ,श्रम ,सुप्ति (पाद शुन्यता) शीघ्र ही नष्ट हो जाते है। गृध्रसी, सिर स्नायु संकोच और पैरों का फटना नहीं होता है।
जरा (बुढ़ापा). श्रम, और वातज विकार नष्ट हो जाते है। दृष्टि स्वच्छ हो जाती है। शरीर पुष्ट हो जाता है। आयु बढ़ती है। गहरी नींद आती है। मांसपेशियाँ दृढ़ हो जाती है।
Probable Mode of Action : Manipulation of body parts by massage enhance the overall blood circulation and transport the potency of drugs to desired part. It enhances the nerve stimulation Induces the release of endorphins which shows analgesic effect. Triggers the acupressure points.
अभ्यङ्ग निषेध:
विरेचन, वमन, निरूहन कर्म के बाद।साम दोष, नवीन ज्वर, अजीर्ण में।
व्यायाम :
परिभाषा
शरीरयामजननं कर्म व्यायाम संज्ञितम्।॥ (सु. चि. 24/38)
शरीर की मांसपेशियों का पर्याप्त मात्रा में संचलन प्राप्त होकर थकावट निर्माण कराने वाली क्रिया को व्यायाम कहा गया है।
व्यायाम आयु, बलादि अवस्था (आयु, बल, देश, कालादि) देखकर मात्रा वत करना चाहिये।
व्यायाम का प्रकार :- (सुश्रुत के अनुसार)
सुश्रुत आचार्य ने हेमन्त ऋतुचर्या के वर्णन में व्यायाम के विविध प्रकारों का वर्णन किया है
• नियुद्ध (बाहु युद्ध)
• अध्व (मार्ग) गमन
• शिलानिर्घात (पत्थर फेंकना)
वाग्भट आचार्य ने भी हेमन्त ऋतु में व्यायाम के प्रकारों का वर्णन किया है।
• पादाघात (पैरों से शरीर को दवाना) (अतिसार व्याधि प्रकरण में-अधिक तैरना)
चेष्टा-पाँच प्रकार, यह भी व्यायाम के प्रकार माने जा सकते हैं
• प्रसारण
• आंकुचन
• विनमन
• तिर्यक् गमन।
• उन्नमन
व्यायाम मात्रा:
हित चाहने वाले स्वस्थ व्यक्तियों को सभी ऋतुओं में व्यायाम अर्द्धशक्ति (बल) तक करने का निर्देश मिलता है।
व्यायाम बलार्ध लक्षण :-
कक्षाललाटनासासु हस्तपादादि संधिषु। प्रस्वेदान्मुखशोषश्च बलार्ध तद्वि निर्दिशेत्। (सु. चि. 24/50 ड. टी)
चरक ने मात्रावत व्यायाम लक्षण का उल्लेख किया है, लेकिन बलार्ध का उल्लेख सुश्रुताचार्य ने किया है।
मात्रावत् व्यायाम के निम्न लक्षण होते हैं,
1.शरीर में लघुता उत्पन्न होना
हृदय में उपरोध की प्रतीति होना।
3..स्वेद आना यह सम्यक व्यायाम का लक्षण है।
श्वास गति वृद्धि होना
सुश्रुत के अनुसार स्वेद सम्बन्धि लक्षण:
ललाट (माथें) पर नासिका छिद्र में (शरीर संधि हाथों, पैरों की सन्धियों में कक्षा (बगल) आदि स्थानों में से पसीना आने लगे मुख सूख जाये, ये सभी व्यायाम के अर्ध-शक्ति लक्षण है।
व्यायाम करते हुये मनुष्य के हृदय में स्थित वायु जब मुख में आने लगे, यह बलार्ध समझना चाहिये।
व्यायाम काल:
व्यायाम कुर्वतो नित्यं विरुद्धमपि भोजनम्।। (सु. चि. 24/44)
व्यायाम ही नित्य करना चाहिये। जिससे विरुद्ध भोजन आदि का भी दोष रहित पाचन हो जाता है।
ऋतु भेद- शीतकाले वसंत च मन्द मेव ततोअन्यदा।
हेमन्त शिशिर ऋतू व बसन्त तु में अर्धशक्ति तक व्यायाम करना चाहिये। अन्य ऋतु में अर्थात् वर्षा ऋतु, शरद ऋतु, ग्रीष्म ऋतु में अर्धशक्ति से भी मन्द (आधा) शक्ति व्यायाम करे।
आचार्य सुश्रुत के मतानुसार काल अर्थात ग्रीष्म ऋतु में व्यायाम वर्जित है।
व्यायाम लाभ:
शरीरोपचयः कान्तिगांत्राणां सुविभक्तता। दीप्ताग्नित्वमानलस्यं स्थिरत्वं लाघवं मजा।। श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता। आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते।। (सु. चि. 24)
Promotive Benefits:
कर्म सामर्थ्य-कार्य करने की शक्ति अर्थात् ऊर्जा मिलती है। दुःख सहने की क्षमता आती है। अग्नि वृद्धि-जठराग्नि-धात्वाग्नि वृद्धि पायी जाती है। शरीर लघुता, शरीर में स्थिरता आती है। शरीर की सम्यक पुष्टि होती हैं। मृज-शरीर की शुद्धि होती है। वृद्धावस्था भी देरी से आती है।
Preventive Benefits:
स्थूलता को अपकर्षित करता है। मेद क्षय होता है।
Probable Mode of Action
• Develops musculature by improving circulation to all body parts.
• Exercise also gives massage effect over the vital organs like liver, pancreas, spleen. capacity. stomach which may secrets the digestive juices and enzymes, by this it enhances the digestive capacity.
• Increases the carbohydrate metabolism (Glycolysis)
• Lypolysis of accumulated adipose tissue. (Gluconeogenesis)
• Perspiration takes out the accumulated toxins from the body.
• Makes body to feel light & active.
• Increases oxygen supply to remote tissue.
• Increases Basal metabolic rate.
व्यायाम का निषेध :
वातपितामयी बालो वृद्धोऽजीर्णे च तं त्यजेत्। (अ. ह. सु. 2/11)
• अधिक मैथुन करने वाला भार
• अधिक भार वहन करने वाला
• अध्व-अधिक रास्ता चलने वाले
• बाल-बालक, वृद्ध-बुढ़ापे में,
• -उच्चस्वर से बहुत बोलने वाला।
• अधित-भूख से पीड़ित।
• -पिपासा से पीड़ित।
• अजीर्ण में भोजन के बाद वात व्याधि, पित्तज व्याधि, काश्य, श्वास, कास, क्षत, भ्रम व्याधि की अवस्थाओं में व्यायाम नहीं करना चाहिये।
अतिव्यायाम व्यापद
अति व्यायाम करने से-थकावट, रसादि धातुओं का क्षय, कलम, अधिक प्यास लगना, रक्तपित रोग, श्वास कास, ज्वर, वमन (छर्दि), अरुचि रोग हो जाते है।
चंक्रमण:
जो व्यक्ति व्यायाम के अयोग्य है, उनमें चंक्रमण (टहलना) उपदेश किया जा सकता है।
परिभाषा:
यतु चक्रमणं नातिदेहपीडाकरं भवेत्। तदायुर्बल मेधाग्निप्रदमिन्द्रियबोधनम्।। (सु.चि. 24/80)
मार्गगमन (टहल्ने) से शरीर में विशेष वेदना न उत्पन्न हो वह चंक्रमण कहलाता है। चंक्रमण से आयु, बल, मेधा और अग्नि वृद्धि, इन्द्रियों में चैतन्य उत्पन्न होता है।
स्नान :
स्नान का काल :
प्रातः स्नानमलं च पापहरणं दुःस्वप्न विध्वंसन। (चा. 2. ने. 4- 72)
स्नान का समय प्रातः काल बताया है।
स्नान की मात्रा:
स्नान, हाथी समान करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि पानी को मात्रा अधिक होना चाहिए। अधिक पानी इस्तेमाल करने से पूरे शरीर का शुद्धि हो जाती है। 140-150 litres per person for daily purpose &it includes bathing स्नान के प्रकार-सप्त विधि स्नान: मन्त्र, भौम, आग्नेय, वायव्य, दिव्य, वारुण और मानस यह क्रम से स्नान के सात प्रकार वर्णित है ।
स्नान के योग्य स्थान : नदी, देवतातीर्थ (तीर्थ स्थान), तालाब, सर: सु (नदी समान जल प्रवाह), गर्त, प्रसवण (झरना) इनमे नित्य स्नान चाहिये।
स्नान विधि:-
उष्णाम्बुनाऽध: कायस्य परिषेको बलावह: । (अ. स. सू. 3/60)
आयुर्वेद में यह कहा गया है कि, शीत जल से शिर धोना चाहिये और उष्ण जल से अध: काय का परिषेक (स्नान) करना चाहिए।
उष्ण जल से अध काय परिषेक करने से बल की वृद्धि तथा वात कफ दोष का क्षय होता है।
अवगुण:- उष्णेन शिरसः स्नानमहितं चक्षुषः सदा ।। (सु. चि. 24/59)
उष्ण जल सिर पर डालने से अक्षि का तेज़ कम हो जाता हैं और केशों का बल नष्ट हो जाता है
शीत जल स्नान के गुण व अवगुण :
गुण:- सिर पर शीतल जल से परिषेक करने से अक्षि का तेज़ बढ़ जाता है ।
स्नान के गुण: Presentative & Promotive:
शुक्र धातु की वृद्धि होती है , थकान मिट जाती है , हृदय को शक्ति देता है, पवित्रता अती है, आयु वर्धक, स्वेद व मल का हास होता है आदि।
Preventive Benefits:
स्वेद हर, दाह हर, तंद्रा हर।
स्नान निषेध
रोग- अतिसार में, आध्यमान में , ज्वर में ,कर्ण शूल, पिनस में , वात व्याधि में स्नान वर्जित हैं।
उद्वृतन
परिभाषा :
उद्वर्तन का अर्थ है, किसी रस युक्त द्रव्यों के चूर्ण से शरीर को रगड़ना।
उद्वृतन के दो भेद होते है- 1. उद्घृष्ण (रूक्ष द्रव्यों से निर्मित)। 2. उत्सादन-(स्निग्ध द्रव्यों से निर्मित)
उद्वर्तन काल :
उदर्तन, चूर्ण द्रव्यों से होता है। चूर्ण ड द्रव्यों का उपयोग करने से त्वचा रुक्ष बन जाती है। इसी कारण स्वस्थ मनुष्यों में सर्वदा अभ्यङ्ग के पश्चात् उपयोग करना है। कफ काल में और वसन्त काल में श्रेष्ठ माना है।
उद्वर्तन चूर्ण:
त्रिफला चूर्ण या यव चूर्ण ये चूर्ण स्वस्थ व्यक्ति में उद्वर्तन के लिए उपयोगी है।
उद्वर्तन लाभ-(उबटन लगाने के लाभ)
स्थिरीकरणमङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम्। सिरामुखविविक्तत्वं त्वक्थस्याग्नेश्च तेजनम।। (सु.चि. 24/52)
उद्वर्तन अङ्गप्रत्यङ्ग को स्थिर दृढ़ तथा त्वचा को स्वच्छ व कान्तिमान बनाता है। त्वचा में स्थित सिराओं के मुख खुल जाते है तथा त्वचा में स्थित भ्राजक पित्त दीप्त हो जाता है। (उत्सादन स्नेहयुक्त)-स्त्रियों में विशेष रूप से शारीरिक सुन्दरता आती है।
Preventive Benefits :
वातहर, कफ हर, कोठ हर, संतर्पणजन्य व्याधि- उदाहरण-अति स्थौल्य और स्थूल प्रमेह नाशक ।
Probable Mode of Action :
Powder massage enhances the hepatic circulation which may releases the enzymes which induces the gluconeogenesis and lypolysis by this it helps to overcome the cholesterol level.
Rubbing body with Kalka dravya (utsadana) imparts the effect similar to the abhyanga
अनुलेपन:
सुगन्धित द्रव्यों का कल्क शरीर पर लगाना अनुलेपन कहलाता है।
अनुलेपन काल: प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात
काल अनुसार अनुलेपन :
- शीत ऋतुओं (हेमन्त एवं शिशिर ऋतु) कुंकुम, कस्तूरी, अगरु ,उष्ण गुण प्रधान द्रव्यों का कल्क से अनुलेपन
- वसंत ऋतु में- कपूर, अग्रू, चन्दन, कुंकुम।
- ग्रीष्म ऋतु- चन्दन
- शरद ऋतु- कपूर, चन्दन, सिंदूर लेप।
- अनुलेपन अयोग्य व्यक्ति :
- स्नान के अयोग्य व्यक्ति, अनुलेपन का भी अयोग्य होता है।
लाभ :
सौभाग्य प्रदान करता है। वर्ण कर है। बल की वृद्धि करता है। मन को प्रसन्न करता है।
Preventive benefits : दुर्गन्धहर, विवर्णता नाश, श्रम नाशक है।
18. वस्त्र धारण :
प्रतिदिन स्वच्छ वस्त्र को धारण करना चाहिये।
काल अनुसार वस्त्र धारण:
1.हेमन्त ऋतु (शीत ऋतु)-
• प्रावार (उत्तरीय वस्त्र, लबादा या चोंगा)
• अजिन (व्याघ्र चर्म)
• प्रवेणी (ऊनी वस्त्र/Woolen)
• कौशेय (रेशमी वस्त्र /Silk)
• चित्रित रंग रंग कम्बल ये वस्त्र गुरु एवं उष्ण गुणयुक्त होने से हेमन्त (शीत) ऋतु में श्रेष्ट माने है
2.ग्रीष्म ऋतु
• श्वेत वस्त्र (Light)
• सुरभि वस्त्र (Purfumed/Sainted)
• सूक्ष्म वस्त्र (Thin Cloth)
• Kshay वस्त्र (Orange Colour) यह सभी प्रकार के वस्त्र शीत, लघु एवं पित घन गुण युक्त होते हैं।
3.वर्षा ऋतु
• शुक्ल वर्ण (White colour)
• अम्बर वस्त्र (Sky blue colour) -चरक
Promotive:
सौन्दर्य, यश एवं आयु की वृद्धि होती है था दरिद्रता नाशक व मनप्रसनता दायक है।
Preventive Benefits: अभिघात व्याधियों को नियन्त्रण काता है। (Sunstroke, warm infestation etc.)
गन्ध द्रव्य एवं माला धारण:
वृष्ता वृद्धि आयु वृद्धि, शरीर पुष्टि, बल वृद्धिकर है। मनप्रस्त्र दायक है एवं दरिद्रता नाशक होता है।
रत्न धारण :
सौभाग्य प्राप्ति, मङ्गलकारी, आयु वृद्धि राज सुख प्राप्ति व ओजवृद्धि कारक होता है।
पादत्र धारण : चक्षु के लिए हितकारी, पैरों के तलवों (Sole) के लिये हितकर, बलवृद्धि व वृषता वृद्धिकर होता है।
नखादिकर्तनविधि :-
पाँच रात्रि व्यतीत होने के बाद नख, दाढी, मूछ, केश और रोम कंतरवावे। यह शोभाजनक, पुष्टिकारक, धन प्राप्ति का कारण, आयु बढाने वाला, पवित्रता एवं कान्ति को उत्पन्न करने वाला होता है।
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