आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन –
“स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा एवम् रोगी के रोग का निवारण करना“
इस मुख्य प्रयोजन की सफलता पूर्वक पूरा होने के लिक विभिन्न चर्या का वर्णन आचार्यों ने किया है
चर्या का अर्थ होता है आचरण यानि आहार, विहार जो की इस लोक में ही नहीं परलोक में भी लाभप्रद हो उसे चर्या कहते है। चर्या आयु प्राप्त होता है
आयुर्वेद के अनुसार सात चर्या मानी गई है। जो कि निम्न है-
इन सभी चर्या पर भिन्न भिन्न आचार्य अपने अपने मत रखते है।
अब मै आपको इन सातों चर्या को अपनाने के महत्व को बताऊंगी की आखिर क्यों आज के युग में इनमें लिखे कार्यों का पालन करना जरूरी हो गया है।
दिनचर्या
दिन और चर्या दो शब्दो से बना है “दिनचर्या”
दिन का अर्थ है दिवस एवम् चर्या का अर्थ है आचरण।
प्रतिदिन की चर्या को दिनचर्या नाम से बताया गया है।
- दिनचर्या में कहे गए कर्मो का सेवन हमें प्रकृति के अनुसार निर्धारित समय (सुबह, दोपहर) पर करना चाहिए। इसलिए हमे पूर्ण रूप से स्वस्थ रहने के लिए प्रकृतिक क्रम के अनुसार अपने शारीरिक कर्मो के क्रम को व्यवस्थित करना चाहिए।
- दिनचर्या का पालन करना परलोक व इहलोक दोनों में हितकर है। क्योंकि इसके पालन से इंसान स्वस्थ रहता है और परिवार व समाज के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण कर पाता है।
- जो व्यक्ति दिनचर्या का पालन करता है वो रोगों को होने से पूर्व ही सम्भल जाता है या कहे उसे रोग कम होते हैं।
- अतः शरीर की ऊर्जा शक्ति, बल, स्मरण शक्ति आदि को बनाने के लिए सुबह उठते से ही व्यक्ति को दिनचर्या में कहे अनुसार सभी कर्मों को यथाविद्घ करना चाहिए।
ऋतुचर्या
ऋतु और चर्या से बना है ऋतुचर्या
- आयुर्वेद ने छह ऋतुएं (शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत) मानी है अर्थात् उन ऋतुओं में किए जाने वाले कर्म और खाने योग्य आहार का वर्ण एल आचार्यों ने ऋतु चर्या में किया है।
- ऋतु चर्या को पालन करके व्यक्ति मौसमी बीमारियों से ग्रसित नहीं होता एवम् उनसे लड़ने की शक्ति अपने अंदर उत्पन्न कर लेता है।
- मौसम में बदलाव के साथ ही खान पान में बदलाव जरूरी है।ये बदलाव ही मौसमी रोगों से बचाता है। इन्ही बदलावों का वर्णन ऋतु चर्या में हमे मिलता है।
- आचार्यों ने सबसे उपयोगी तत्व “ऋतु संधि” वर्णन किया है। जिसका वर्णन करके हमें सिखाया है की केसे आने वाले ऋतु के अनुसार अपने शरीर को धीरे धीरे अग्रिम ऋतु के मुताबिक ढालना चाहिए । अत: उसके आहार विहार का पालन करना शुरू कर देना चाहिए ताकि सहसा सेवन से शरीर रोग युक्त ना हो जाए।
- उत्तर आयन एवम् दक्षिण आयन में शारीरिक शक्ति का बल कम या ज्यादा होने के कारण ऋतु चर्या में कथित आहार विहार को अपनाने से ,जल्दी रोगों का असर व्यक्ति को नहीं होता।
रात्रिचर्या
रात्रि चर्या यानी संध्या काल से प्रात: काल तक का समय तक के नियम का पालन करना।
- सभी करणीय कर्म जैसे रात्रि भोजन, शयन, निद्रा एवम् स्वप्न ये सभी रात्रि चर्या के अंग है, जिनका पालन करके इंसान सुखपूर्वक निद्रा लेकर प्रात: उठकर हर्ष और ऊर्जा से युक्त रहता है।
- रात्रि चर्या का पालन करने पर भोजन, नींद, पढ़ना एवम् मार्ग गमन इन कार्यों को त्यागना चाहिए, क्यों कि इस समय भोजन से व्याधि , मैथुन से गर्भ विकार, नींद से दरिद्रता, पढ़ने से आयु की हानि ओर मार्ग गमन से भय होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए रात्रि चर्या का सुखपूर्वक पालन करना चाहिए।
- इस चर्या को अपनाने से भोजन नलिका को पचाने हेतु पर्याप्त समय भी मिल जाता है और व्यक्ती को प्रात: काल मल त्यागने में कष्ट नहीं होता।
- जैन धर्म में सूर्यास्त के पूर्व भोजन खाने का नियम है, ताकि संध्या काल के समय उतपन होने वाले जीवाणु आदि भोजन के साथ अंदर ना चले जाएं।
इसका पालन करके रोगी रोग मुक्त अवश्य ही हो जाता है, क्यों कि बीमारी की जड़ मुख्य तौर पर व्यक्ति का आहर है , जिसका पाचन इस क्रिया को अपनाने से खुद ब खुद हो जाता है। अतः रोगी स्वस्थ हो जाता है।
गर्भिणी चर्या
गर्भ धारण करने से लेकर प्रसव काल तक का आहर विहार गर्भिणी चर्या के अन्तर्गत बतलाया गया है।
- गर्भवती और शिशु दोनों पर इसका प्रभाव पड़ता है।
- गर्भावस्था के नौ महीने तक गर्भवती को पोषक तत्वों का सेवन करना चाहिए ताकि शिशु को कोई शारीरिक और मानसिक कमी का शिकार ना होना पड़े।
- आचार्यों ने नौ महीने के हिसाब से अलग अलग आहर लेने का वर्णन किया है जिससे शिशु व स्त्री दोनों का स्वास्थ्य बना रहे।
- इसके सेवन से शिशु के ह्रदय , मस्तिष्क आदि अवयवों का पोषण होता है, तीनों दोष संतुलित रहते है, शिशु की गर्भ वृद्धि अच्छे से हो पाती है।
- इसके सेवन से गर्भिणी को प्रसव काल के समय ज्यादा पीड़ा को नहीं भोगना पड़ता, गर्भावस्था के वक़्त भी पीड़ा या वमन (बेचैनी) आदि रोग से मुक्त रहती है एवम् वात सम अवस्था में रहता है।
नवजात शिशु परिचर्या
जन्म से लेकर एक मास तक की आयु का शिशु नवजात कहलाता है, इसकी चर्या का विस्तार पूर्वक वर्णन नवजात शिशु परिचर्या में किया गया है।
- नवजात शिशु सुरक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य नवजात शिशु परिचर्या और पुनर्जन्म में स्वास्थ्य कार्यकर्ता को दर्शाना करना है।
- इस कार्यक्रम का शुभारंभ जन्म के समय परिचय, हाइपोथर्मिया से बचाव, स्तनपान शीघ्र आरंभ करना तथा बुनियादी नवजात पुनर्जीवन के लिए किया गया है।
- नवजात शिशु परिचर्या महत्वपूर्ण प्रारंभिक बिंदु होने से लेकर नाज़ुक अवस्था भी है, इसमें भूल होने से या इसका ज्ञान ना होन से नवजात की मृत्यु तक हो सकती है।
- जीवन में सर्वोत्तम शुरुआत सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।
शिशु परिचर्या
जब तक बच्चा आठ वर्ष का नहीं हो जाता शिशु कहलाता है , इस चर्या में शिशु द्वारा किए गए आचरण का वर्णन है।
- जैसे जैसे शिशु की आयु में वृद्धि होती है उसे ठोस आहर विहार की आवश्यकता होती है, इन बातों को समझने के लिए शिशु चर्या का ज्ञान आवश्यक है।
- इस चर्या को अपनाने से बच्चे का पूर्ण जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है, या ऐसा कन्हे की नीव इतनी मजबूत हो जाती है, की आगे उसे रोग होने की सम्भावना कम हो जाती है।
- शिशु का रोना, खाना, बेचैनी, स्तनपान, आदि सभी की जानकारी हमें शिशु परि चर्या से भली भांति मिल जाती है।
- नियमित पालन से। बच्चे को शारीरिक , मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
रजस्वला चर्या
महीने-महीने में स्त्रियों के जो रज:स्राव होता है, उस समय वो स्त्रियाँ रजस्वला कहलाती हैं ।
उन दिनों में उन्हें किस किस वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए, देव-शास्त्र और गुरु के दर्शन का ज्ञान , रजस्वला स्त्री के स्नान, अलंकार का ज्ञान, अतः ब्रह्मचर्य का पालन करने का ज्ञान विस्तार पूर्वक रज स्वला चर्या में मिलता है।