जनपदोद्ध्वंसनीय अध्याय:- एक बार भगवान् पुनर्वसु शिष्यों सहित जनपद मण्डल के पाञ्चालक्षेत्र में श्रेष्ठ द्विजातियों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) की आवासनगरी काम्पिल्य नामक राजधानी में गंगातटवर्ती वन्यप्रदेशों में घूमते हुए आषाढ़ मास में अपने शिष्य अग्निवेश से कहने लगे :-
महामारी फैलने से पहले औषधियों का संग्रह करने का निर्देश :-
अस्वाभाविक रूप में स्थित नक्षत्र, ग्रह, चंद्रमा, सूर्य, वायु, अग्नि तथा दिशाओं में ऋतुविकार होने के लक्षण दिखाई देते हैं, इस समय पृथ्वी औषधियों में रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव आदि के विहीन हो जाती है और उसी कारण से बहुत सारे लोग रोग पीड़ित हो जाते हैं, तो इसलिए औषधियों के गुण विहीन होने से पहले एकत्रित करनी चाहिए व उपयोग योग्य बना कर रखनी चाहिए। इन औषधियों का प्रयोग उन पर करना चाहिए जो कि हमसे चिकित्सा करवाने के इच्छुक हैं अथवा जो हमारे प्रिय है। सही ढ़ंग से रसादि का विचार करके प्रयोग करने से जनपद के रोगों को दूर करने में कठिनाई नहीं होती।
जब मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृति, आहार, देह, बल, सतमय, सत्व और आयु के होते है तोह एक साथ कैसे रोग ग्रस्त होते है :-
बहुत सारे भाव असमान होते हुए भी बहुत सारे भाव एक सामन होते है। उनमें विकार या दोष आ जाने से एक ही समय में एक ही तरह के लक्षण वाले रोग उत्पन्न होकर महामारी के रूप में जनपद उजाड़ देते है। सामान्य भाव :-
- विकृत वायु
- विकृत जल
- विकृत देश
- विकृत काल
विकृत वायु के लक्षण :-
- ऋतु के प्रतिकूल प्रवाहित होने वाली
- बहुत स्थिर
- अति चंचल
- अति कठोर
- अति शीतल
- अति गर्म
- अति रुक्ष
- अति अभिष्यंदी
- अतियंत गर्जन करने वाली
- परस्पर टकराती हुई
- बहुत बवंडर युक्त
- अप्रिय गंध, वाष्यप, बालू, धूल युक्त
विकृत जल के लक्षण :-
- अत्यंत विकृत गंध, वर्ण, रस, स्पर्श वाला हो
- क्लेद युक्त
- उसमें रहने वाले जीव जंतु और पक्षी ने उसे छोड़ दिया हो
- जलाशय बहुत घट गया हो
- जो अच्छा नहीं लगे और गुण हीन हो गया हो
विकृत देश के लक्षण :-
- जिस देश की भूमि का स्वाभाविक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श विकृत हो गया होगा।
- जिसमें नमी या गीलापन अधिक हो।
- जहा सर्प, हिंसक जन्तु, मच्छर, मक्खियां, चूहे, उल्लू, शमशान में रहने वाले गिद्ध, चील आदि की संख्या अधिक हो।
- जहां घास, उलूप व उपवन अधिक हो
- लताए प्रशाखाएं भूत फैली हुई हो
- फसल गिर गई हो, सूख गई हो, नष्ट हो गई हो
- वायु धुएं से भरी हो
- जहां पक्षियों की भयंकर आवाज आती हो , कुत्ते रो रहे हो, झुंड के झुंड पक्षियों के इधर उधर भाग रहे हो
- जहां के लोग धर्म, सत्य, लज्जा, आचार, शील, सद्गुण नष्ट हो गया हो
- जलाशय सदैव सूखे या बाढ़ की लहरों में उछल रहे हो
- बिजली गिरती हो, भूकंप का सिलसिला चलता रहे
- रूखे और लाल या सफेद रंग के बादल सूर्य, चंद्रमा या तारों को ढक कर रखे
- अंधकार में घिरा हुआ प्रतीत हो
विकृत काल के लक्षण :-
- ऋतु का हीन, अधिक व मिथ्या योग दिखाई दे
- अपने प्राकृत लक्षण से विकृत जल, वायु, देश व काल के लक्षण दिखे
देश आदि के प्रधान्य :-
वात < जल < देश < काल ( गुरु )
महामारी की सामान्य चिकित्सा :-
जिन लोगों का रोग मृत्यु दायक नहीं है, ओर जिनका भाग्य या कर्म मृत्युजनक नहीं है उनके लिए :-
- पंच कर्म
- विधि पूर्वक रसायनों का सेवन करे
- महामारी से पहले एकत्रित की औषद्धियों का सेवन
आयु रक्षक वैद्य :-
सत्य का पालन करने वाला, प्राणी मात्र पर दया रखने वाला, दान देना, बलि देना, देवताओं की पूजा करना, शांति रखना, अपनी रक्षा करने वाला, हितकर स्थान पर रहना, ब्रह्मचर्य पालन करने वाला, ऋषियों की सेवा करने वाला, धर्म शास्त्रों की कथा, महर्षियों व जितेंद्र पुरुषों की चर्चा, धार्मिक, सात्विक, वृद्ध द्वारा सम्मानित पुरुषों के साथ बैठने वाला।
वायु आदि की विकृति का मूल कारण :- अधर्म
- धर्म आचरण न करने व देवताओं का त्याग करने से काल विकृत होता है।
- युद्ध जन्य महामारी का कारण भी अधर्म है।
- अधर्म से ही राक्षस आदि के द्वारा महामारी होती है।
- अभिशाप से महामारी होती है।
प्राचीन काल में अधर्म से लोभ विकार की उत्पति :-
- सतयुग में मनुष्य देवताओं के समान ओजस्वी अति निर्मल , विपुल प्रभाव वाले तथा देवताओं, देव ऋषियों, धर्म, यज्ञ कर्म प्रत्यक्ष करने वाले होते थे। उनका शरीर हिमालय के समान संगठित, दृढ़ और स्थिर तथा वर्ण स्वच्छ, इन्द्रिय आवृत व प्रसन्न थी। वे बल और वेग में वायु के समान प्रबल थे व प्रकर्म वाले थे, सुंदर, आकार प्रकार वाले, भरे शरीर वाले थे। वे सत्यवादी, अक्रूर, विनम्र, दानी व जीतेन्द्र थे। क्योंकि उस काल में पृथ्वी समस्त गुण वाली थी।
सतयुग बीतने लगा ➡️ लोगो ने बहुत सारी संपति जुटा ली, अत्यंत भोजन पदार्थ सेवन करने लगे ➡️ शरीर भारी व स्थूल हो गया ➡️ आलसी होने के कारण ➡️ संपति व जीवन उपयोगी समान का संचय ➡️ संपति के प्रति ममता ➡️ लोभ नामक विकार ।। त्रेता युग आरंभ लोभ ➡️ द्रोह ➡️ झूट ➡️ काम, क्रोध, अभिमान, द्वेष, कठोरता, प्रहर, भय, सनताप, शोक, चिंता, उद्वेश।। कृत युग आरंभ ➡️ आयु का ह्रास, गुण का ह्रास ➡️ अन्न में स्निगधता, निर्मलता, रस, गुण आदि का प्रभाव।। कल युग आरंभ ➡️ आहार-विहार सेवन से शरीर सबल नहीं ➡️ अग्नि विकार, वायु विकार ➡️ ज्वर आदि रोग ➡️ आयु का क्षय
आयु समबंधित वार्तालाप :-
अग्निवेश ने पूछा कि प्राणियों की आयु का प्रमाण निश्चित होता है अथवा नहीं? भगवान आत्रेय ने उत्तर दिया आयु युक्ति की अपेक्षा करती है। आयु के बलवान या निर्बल होने में देव व पौरुष की अनुकूलता, निर्बलता या प्रतिकूलता कारण है ।
पूर्वजन्म कर्म – देव
वर्तमान कर्म – पौरुष
पुन: कर्म तीन प्रकार का होता है – हीन, मध्य, उत्तम
कर्म अनुसार आयु :-
- जब दोनों कर्म श्रेष्ठ तो आयु दीर्घ, सुखमय, नियत होती है।
- दोनों हीन तो आयु हीन, दुखमय, अनियत होती है।
- जब दोनों मध्यम तो आयु मध्य, सुख – दुखमय युक्त तथा अनियत।
कर्म फल का काल :-
- कोई कोई कर्म ऐसा होता है जिसका फलप्रद परिणाम काल निश्चित होता है, फल अवश्य संभावी होता है।
- कोई कोई हीन होता है कि उसके फल का कोई निश्चित फल नहीं होता, जब उसे सहकारी अपथ्य सेवन मिलता है, तब जागृत होता है।
काल – अकाल मृत्यु :-
काल और अकाल मृत्यु में युक्ति :- जिस प्रकार रथ में लगा हुआ धूरा स्वभावत: अपने गुणों में युक्त होता है और वह धूरा रथ खिंचे जाते समय कुछ कुछ घिसता रहता है, और विशेष प्रमाण के घिस जाने से वह नष्ट हो जाता है उसी प्रकार शरीर का प्रभाव आयु पर होता है , जब वह क्षीण होते हुए विशेष प्रमाण में क्षीण होकर क्षय को प्राप्त होते है ➡️ काल मृत्यु।
जिस प्रकार धूरे के सामर्थ्य से कहीं अधिक बोझ रथ या गाड़ी पर लाद दे, रथ ऊंची – नीची भूमि पर चलने से या जहां रास्ता न हो वहा पर अगर धूरा चलाए तो वह धूरे या चक्का टूट जाता है उसी प्रकार शरीर भी अपनी वायु के पहले ही नष्ट हो जाता है जैसे अधिक साहस करने से, विषम भोजन करने से, शरीर को टेढ़े – मेढ़े, ऊंचे – नीचे , विषम ढ़ंग से रखने से, अति मैथुन करने से, असज्जनों के साथ, वेगों को रोकने से, विष, भूत, रोग की चिकित्सा न करवाने से ➡️ अकाल मृत्यु।
ज्वर में उष्ण जल की उपयोगिता :-
ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के शरीर, रोग के निदान, देश, काल का अच्छी तरह से विचार कर दोषों के पाचन के लिए उष्ण जल का प्रयोग करवाते है। ज्वर आमाशय में उत्पन्न होता है। आमाशय के रोगो में ➡️ पाचन, वमन, अप्तरपं वाली औषध। उष्ण जल ➡️ पाचक , अनुलोमन, अग्नि प्रदीप, कफ का सूखना, तृष्णा ।
❌इसके साथ साथ बढ़े पित्त ज्वर में या दाह, भ्रम और प्रलाप से युक्त अतिसार में उष्ण जल नहीं देना चाहिए क्योंकि यह पदार्थ और बढ़ जाते है और शीत पदार्थ से शांत होते हैं।
निदान विपरीत चिकित्सा :-
- उष्ण द्रव्य के सेवन से उत्पन्न रोग में शीत पदार्थ सेवन और शीत में उष्ण का उपयोग।
- अपतर्पण में संतर्पण ( अपतर्पण के 3 भेद :-
- लंघन – दोष का बल कम हो – पाचक अग्नि व वायु की वृद्धि – दोष सुख जाते है
- लंघन – पाचन – मध्यम दोष
- दोषअवसेचन – अत्यन्त दोष बढ़ा हुआ हो
अचिकित्सय रोगी :-
- जिसकी चिकित्सा करने से वैद्य की निन्दा हो
- निर्धन हो
- जिसकी सेवा करने वाला कोई न हो
- जो अज्ञानी होकर भी अपने को वैद्य माने
- जो उद्दंड हो
- गुरुजनों के दोष को देखे
- जो धर्म के प्रति रुचि न रखे
- जिसका बल, मांस, रक्त नष्ट हो गए हो
- असाध्य रोग से पीड़ित हो
- मृत्यु सूचक लक्षण दिखें
देश भेद :-
- जांगल – जल की कमी, वृक्ष भी कम, तीव्र हवा, तेज धूप, रोग कम होते हो।
- आनूप – जल अधिक, वृक्ष भी अधिक, वायु का वेग कम, धूप कम, रोग अधिक
- साधारण – न जल व वृक्ष अधिक, धूप न अधिक न कम, न अधिक रोग, वायु तीव्र।
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One reply on “जनपदोद्ध्वंसनीय / Janpadodvansniya Charak samhita – Viman sthan”
[…] जनपद विध्वंश के विषय पर आचार्य चरक ने विमान स्थान के दूसरे अध्याय में बहुत अच्छी प्रकार से व्याख्या की है परन्तु आचार्य भेल ने सूत्र सूत्र स्थान पर वर्णन किया है एक ओर चीज़ जो चरक से बिल्कुल अलग है यह है कि याहा पर भगवान पुनर्वसु ने पांचाल देश में होने वाली महामारी से पहले का वर्णन मिलता है परन्तु आचार्य भेल के इस अध्याय में आचार्य आम तौर पर होने वाली ओर किस प्रदेश में केसी महामारी होती है उसके विषय में बताते है वह एक ओर बात गोर करने वाली है महामारी के विषय में भगवान पुनर्वसु के किसी भी शिष्य ने प्रश्न नहीं किया अपितु गुर्दालुभेकि नामक ऋषि ने पूछा और फिर भगवान आत्रेय ने उत्तर दिए। आज हम इसी अध्याय के बारे में आपको बाटेंगे। […]