मध्याह्न चर्या
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इष्ट प्रियजनों , शिष्ट, सभ्य जनों के साथ, त्रिगुन युक्त कथाओं, जिसमें धर्म, अर्थ एवं काम का वर्णन किया गया है उन ग्रन्थों को पढ़ते दिन के मध्याहन को व्यतीत करना चाहिए।
इसके साथ सद्वृत के साथ वर्णन किया गया कि सामाजिक एवं व्यवहारिक नियमों का श्रद्धापूर्वक पालन करना चाहिए।
हिंसा, चोरी, अन्यथा काम, जैसे शारीरिक पापकर्म, पैशुन्य (चुगली करना), परूष ( कठोर वचन ), असत्य वचन सभिन्न आलप (असम्बद्ध प्रलाप) जैसे वाणी पापकर्म, एवं व्याप्रल पर अनिष्ट अभिद्या (दूसरे के धन को लेने की इच्छा ) मिथ्या दृष्टि/ विपरीत बुद्धि जैसे मन की पाप कर्म व्यवसाय में प्रयोग नहीं करना चाहिये।
उपर वर्णित कर्मो से प्राप्त किया धन , दान करने पर भी उसे स्वर्ग एवम् अपवर्ग प्राप्ति बिना कष्ट प्राप्त हो जाते हैं।
अर्थनाम धर्म लब्धानाम दाताऽपि सम्भवात्। स्वर्गापवर्गविभवानयलेनाधितिष्ठति।।
धर्म का पालन करके अर्जित किये गये धन भी दान करने से स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्ति बिना कष्ट प्राप्त हो जाते है।
परोपधातक्रियया वर्जयेतदर्जन श्रियः।।
इन सब चर्या का पालन करते हुये मध्याह को व्यतीत करना चाहिये।
संध्या चर्या एवं रात्रिचर्या
संध्या काल से रात तक करने वाले सभी आचारों का रात्रिचर्या में वर्णन किया गया है।
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संध्या समय वर्जित कर्मः।
- स्वस्थ एवं बुद्धिमान पुरुष सायंकाल के समय में आहार, स्त्री संभोग, निद्रा, अध्ययन तथा मार्ग चलना निषेध करें।
- सध्या समय में भोजन करने से-रोगोत्पत्ति होती है
- स्त्री सम्भोग से-गर्भधारण हो जाता है।
- पठन पाठन से-आयु क्ष्य होता है।
- मार्ग चालने से-रास्ते में सर्प, मूषिका चोरों का भय रहता है।
सध्या काल योग्य कर्म
सन्ध्या काल में स्वस्थ व्यक्ति उपासना में स्वयं को तल्लीन करें।
यहाँ उपासना का अर्थ है जप तथा अभीष्ट देवताओं का अर्चन पूजन करना इससे लंबी आयु , (बुद्धि) ,यश , कीर्ति और ब्रह्मतेज प्राप्त होता है।
सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता । जीवमानो भवेक्षुद्रो मृतः श्वा चैव जायते।।
जिस व्यक्ति को संध्या का ज्ञान नहीं हो और सन्ध्या को उपासना नहीं करता है वह व्यक्ति जीवित होते हुए भी शूद्र के समान होता है।
निशाचर्या :
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निशि स्वस्थ मनास्तिष्ठेन्मौनी दण्डी सहायवान्। एवं दिनानि मे यान्तु चिन्तयेदिति सर्वदा।।
रात्रि चर्या में शयन के पूर्व मन को सभी चिन्ताओं से दूर रखते हुए स्वस्थ पुरुष मौन धारण पूर्वक धर्म चिन्तन करते हुए ध्यान करे कि शेष दिन भी इसी प्रकार सुख पूर्वक सदा व्यतीत हों।
रात्रि के समय योग्य कर्म-रात्रि काल में आहार सेवन, निद्रा और मैथुन करने का उल्लेख किया गया है।
रात्रि में भोजन समय:
रात्रौ च भोजनं कुर्यात् प्रथम प्रहरान्तरो। किञ्चिदूनं समश्नीयाद् दुर्जर तत्र वर्जयेत्।।
रात्रि के प्रथम प्रहर के मध्य में ही, दिन की अपेक्षा, मात्रा में कुछ कम भोजन सेवन करना चाहिये। रात्रि में देर से पचने वाले आहार का त्याग करना चाहिए।
शयन विधि
दक्ष स्मृति के अनुसार रात्रि के प्रारम्भ का समय तथा रात्रि के पश्चिम के समय (ब्रह्म मुहुर्त) में वेदाभ्यास करने का आदेश दिया गया है तथा शेष दो प्रहर अर्थात् 6 घंटे शयन करने में व्यतीत करें। शयन समय– दो प्रहर (6 घण्टे)
रात्रि निद्रा विधि-
पवित्र स्थान होना चाहिये। विशाल (विस्तीर्ण) शय्या, अर्थात् शय्या की लम्बाई और चौड़ाई पर्याप्त विस्तार में होनी चाहिए। अविषम शय्या – टेढा-मेढा न हो। उपधान-अर्थात् तकिये युक्त अच्छे गद्दे पर चादर बिछा के सुखपूर्वक शयन करें। शयन आसन (पलंग)-पलंग अपने घुटने के बराबर ऊँचा हो तथा स्पर्श में मुलायम होना चाहिये।
मैथुन-रात्रि में मैथुन की प्रबल इच्छा होने पर स्त्री सम्भोग करना चाहिये।
शरीरे जायते नित्यं देहिनः सुरता स्पृहा। अव्यवायान्मेह मेदवृद्धिः शिथिलता तनोः।
स्वस्थ व्यक्ति में प्राय: मैथुन करने की इच्छा नित्य होती है। लेकिन यह इच्छा प्रबल हो तब मैथुन कर्म करना चाहिए।
प्रबल इच्छा में यदि मैथुन नहीं किया जाय तो उसमें प्रमेह, मेद की वृद्धि एवं शरीर में शिथिलता होती है।
ज्योत्स्ना शीता स्मरानन्द प्रदा तृपित्तदाहत्त्।। पित्तहत्कफहत्कामवर्धनं क्लमकृच्च तत्।।
रात्रि की चाँदनी शीतल, काम देव सम्बन्धी आनन्द को बढ़ाने वाली होती है। तृष्णा, पित्त और दाह को दूर करने वाली होती है।
यह कामवर्धक भी है। इसलिये मैथुन रात्रि के समय करना चाहिए।
One reply on “Madhay, Sandhya, Ratri Charya ( मध्य, संध्या, रात्रि चर्या )”
Slok reference??