AFTER READING NADI PARIKSHA, READ MUTRA PARIKSHA.
नाड़ी परीक्षा का महत्तव :-
नाड्या मूत्राशय जिह्वायां लक्षणं यो न विन्दते।
मारयत्याशु वै जन्तून् स वैद्यो न यशो लभेत्।। (योग चिंतामणि)
अर्थात् :- जो वैद्य नाड़ी, मूत्र, जिह्वा के लक्षणों को नहीं जानता, वह कभी भी यश का भागी नहीं होता।
सर्वासां चैव नाड़ीनां लक्षणं यो न विन्दति। मारयत्याशु व जन्तून्स वैद्यो न यशो लभेत् ।।
जो मूढ़ वैद्य सब प्रकार की नाड़ियों के लक्षणों को नहीं जानता, वह शीघ्र मनुष्यों को मारता है और यश का भागी नहीं होता।
सर्व प्रथम नाड़ी परीक्षा :-
दोषकोपे घनेऽल्पे च पूर्व नाडी परोक्षयेत् । अंते चादौ स्थितिस्तस्या निःशेषा मिषजा स्फुटम् ।।
अर्थात् :- दोष के ज़्यादा व अल्प कोष में वैद्य को सबसे पहले नाड़ी परीक्षा (Nadi Pariksha) करनी चाहिए। ऐसा ही आचार्य चरक व नागार्जुन ने भी कहा है कि सबसे पहले नाड़ी परीक्षा करनी चाहिए, प्रशन के बाद स्पर्श का महत्व आचार्यों ने दिया है; इसे ही नाड़ी परीक्षा (Nadi Pariksha) का महत्त्व प्रकट होता है।
नाड़ी परीक्षा का उपयोग :-
यथा वोणागता तंत्री सर्वान् रागान् प्रभाषते। तथा हस्तगता नाड़ी सर्वान् रोगान्प्रकाशते ।। वातं पित्तं करफ द्वन्द्व त्रितयं सान्निपातिकम् ।साध्यासाध्यविवेकं च सर्व नाडी प्रकाशते ॥
वीणा में जिस प्रकार तार, सब राग को बोलता है, उसी प्रकार हाथ में नाड़ी सब रोगों पर प्रकाश डालते है। वात, पित्त, कफ, द्वंद्व, सन्निपातज, साध्य, असाध्य को नाड़ी प्रकट करती है।
नाड़ी परीक्षा के 9 स्थान :-
नाड्योष्ठौ पाणिपात्कण्ठनासोपान्तसमाश्रिताः। पादयोर्हस्तयोर्घाणमूलयोः कण्ठमूलयोः॥ पादयो डिकास्थानं गुल्फस्यांगुलिकात्रयम्। कण्ठमूलेंऽगुलिद्वन्द्वं नासामूलेंऽगुलाधिगम्॥
- कान
- कंठ
- पैर
- हाथ
- नाक का मूल
- जुबान
- जांघ
- लिंग
- आंख
स्त्री पुरुष की नाड़ी में भेद :-
स्त्रीणामूर्ध्वमुखः कूर्मः पुंसां पनरधोमुखः। अतः कूर्मव्यतिक्रान्तात्सर्वत्रैष व्यतिक्रमः॥ लक्ष्यते दक्षिणे पुंसा या च नाडी विचक्षणाः| कूर्म भेदेन वामानां वामे चैवावलोक्यते॥
स्त्रियों में कूर्म का उर्ध्वमुख तथा पुरुषों में अधोमुख नाड़ी परीक्षा करें। पुरुषों में दांए हाथ व स्त्रियों में बाएं हाथ की परीक्षा करनी चाहिएं।
हाथ नाड़ी परीक्षा कब करनी चाहिए :-
- अजीर्ण
- आम दोष
- ज्वर
- क्षुधा
- वात आदि दोष की दुष्टी
कंठ नाड़ी परीक्षा कब करनी चाहिए :-
- आगंतुक ज्वर
- तृष्णा
- परिश्रम
- मैथुन
- क्रोध
- कमल
- भय
- शोक
नाक की नाड़ी परीक्षा कब करनी चाहिए :-
- मरण
- जीवित
- काम
- श्रवण – मुख जनय रोग
- शिर शूल
- नेत्र रोग
- कंठ रोग
- शिर की पिडिकाएं
- कान में होने वाले वात रोग
नाड़ी परीक्षा कब नहीं करनी चाहिए :-
- भूख लगने के वक्त
- खाना खाने के तुरंत बाद
- नहाने के तुरंत बाद
- प्यास लगते वक़्त
- धूप लेने के बाद
- सोते वक्त
- सुंदरी संयोग के बाद
- व्यायाम के बाद
- मति भ्रम के बाद
- भूत के वशीभूत होने पर
- मद्यपान के बाद
- अपस्मार
- शांत देह युक्त
- मंडूक, सर्प, कुक्कुटी, खरगोश के भक्षण के बाद
- तैल से शरीर की मालिश की हो
नाड़ी परीक्षा के समय वैद्य की मानसिक स्थिति :-
वैद्य को स्थिर चित करके, प्रसन्न आत्मा व मन को अच्छे विचार करके भगवान का नाम लेकर नाड़ी परीक्षा (Nadi Pariksha) करनी चाहिए।
विधि :-
वैद्य रोगी के दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल के नीचे वैद्य अपने दाहिने हाथ से रोगी को जानने के लिए नाड़ी को 3 अंगुलियों से छू कर देखें (परीक्षा से पूर्व नाड़ी का मर्दन करें)। कुछ झुके हुए हाथ से संयुक्त और फैली हुई अंगुलियों वाला प्रपीड़न से रहित बाहु को प्रसारित करके नाड़ी परीक्षा (Nadi Pariksha) करें।
तीन-तीन बार परीक्षा करें और पकड़कर नाड़ी को छोड़ते जाए और बुद्धि से बहुत प्रकार से विचार कर रोगी की प्रगता को कहें।
नाड़ी परीक्षा का काल :-
प्रात: काल वैद्य उचित शौच आदि कर्म से निवृत्त होकर सुख पूर्वक बैठे और रोगी भी इसी प्रकार वैद्य को अपनी नाड़ी दिखाएं।
अंगुलिया , देवता और नाडिया :-
अंगुली | दोष | देवता | |
अग्र भाग | तर्जीनी | वात | ब्रह्मा |
मध्य भाग | पित्त | महादेव | |
अंतिम भाग | अनामिका | कफ | विष्णु |
जीवित व रोग विभिन्न मुक्ति में नाड़ी की गति :-
गति | निष्कर्ष |
लघु | जीवित |
लघु | ज्वर मुक्ति |
बिना चंचलता के | निरोग |
निर्मल | निरोग |
स्वच्छ, केचुवे | पुरुष निरोग |
वाम नाड़ी दीर्घ रेखा के आकार से भुजा की जड़ में हो | 100+ साल तक जीता है |
वाम नाड़ी आकार में लंबी होकर कान की जड़ में प्रतीत हो | 75 + साल जीता है |
वाम नाड़ी स्वलप रेखा में हो और तोड़ी की जड़ तक जाए | 5+ साल जीता है |
दोष का प्रभाव :-
गति | निष्कर्ष |
वात | वक्र नाड़ी, अग्र भाग में वहन, सर्प, जलोका के समान, टेढ़ी-मेढी, गति हमेशा रहती है, टेढ़ी चलती है वात की अति दुष्टी में स्तंभता युक्त व तंत्री के समान होती है |
पित्त | चपला नाड़ी, मध्य भाग में वहन, कूद कूद कर चलती है पित्त की अधिकता में दुष्टी नाड़ी चपल व काक के समान होती है |
कफ | स्थिर, अंत भाग में वहन, मंद गति वाली कफ के अधिक दुष्ट होने पर बक, चतक, वर्तिका, हंस, कुकुट, कपोट के समान मंद गति की होती है |
सन्निपात | अतुद्रूत गति, मंद मंद, शिथिल शिथिल व व्याकुल, भुविध, असाध्य व निरंतर स्कन्द के साथ सफुरन करती रहती है या फिर कभी मंद और कभी तेज चले |
वात – पित्त | बार- बार सर्प के समान व मेंढ़क के समान |
वात – कफ | भूजग व राज हंस के समान |
पित्त – कफ | मेंढक व मयूर के समान |
मृत्यु सूचक नाड़ी :-
व्याकुल, शिथिल, स्थिर, अस्थिर, स्थान से हटी हुई या फिर अत्यंत शीतल, वासा व नेत्र में स्तेमिताय युक्त नाड़ी मृत्यु सूचक होती है, एक ही स्थान पर 30 बार से ज्यादा फरके, जो नाड़ी ठहर ठहर कर चले वह नाड़ी प्राण हरने वाली होती है।
असाध्य नाड़ी :-
उत्कट, अति स्थिर, मंदगामिनी, सूक्ष्म, वक्र इन सब में से एक या एक से अधिक लक्षण युक्त नाड़ी असाध्य होती है। पहले पित्त की गति धारण करे फिर वात की गति और अंत में कफ की गति धारण करे, अपने स्थान से बार- बार घूमती हुई, चक्र के समान घूमती हुई, भयानक कम्पन करती हुई व सूक्ष्म हुई नाड़ी को विद्वान लोग असाध्य कहते है।
रोगों में नाड़ी :-
गति | निष्कर्ष |
कठिन, पुरित व जड़, बिना कोमलता के | अजीर्ण |
प्रसन्न, स्फुटत , शुद्ध | क्षुधा |
गम्भीर | मास का वहन करने वाली |
वेग व गर्मी सहित | ज्वर |
शीघ्र वहन | काम, क्रोध |
क्षीण | चिंता, भय |
अति मंद | मंदाग्नि, क्षीण धातु |
गर्म, भारी | रक्त से पुरीत |
अति भारी | आम से पुरीत |
लघु, वेग वाली | दीप्त अग्नि वाली |
चपल | भूख युक्त |
स्थिर | तृप्त |
अग्र में मंद गति, मध्य में उत्प्लूत गति, अंत में नाड़ी प्रबलता से चले | ज्वर पूर्वरूप |
पित्त के समान, उष्णता, वेग के समान | ज्वर |
जोंक के समान, शीघ्र, ठंडे स्पर्श वाली | वात ज्वर |
कठिन, पुष्ट, अवका दीर्घ वेग वाली | पित्त ज्वर |
अति सूक्ष्म, मंद, हंस के समान, शीत | कफ ज्वर |
उष्ण, मंद | वात कफ ज्वर |
चंचल, शीघ्र, स्थूल, स्तंभ, परिपुष्ट | वात पित्त ज्वर |
सूक्ष्म, कृश, अल्प शीत, स्थिर | पित्त कफ ज्वर |
निरंतर उष्णता युक्त | दुष्ट रक्त युक्त |
दाहिने पैर की ऐडी की नाड़ी की गति हंस के समान, हाथ में मेंढक के समान मरे हुए सर्प के समान, मंद वेग युक्त, बीच बीच में थोड़ी उभर जाती है | ग्रहणी |
ज्यादा वेग से, शांत | संग्रहणी |
अति कोमल, ज्यादा वेग से | अतिसार |
मेंढक के समान | विलमबिका |
गुरु, पृथु | आम अतिसार |
मेंढक के समान | विसूचिका |
गुरु | आनाह , मूत्रकृच्छ |
वक्र | वात शूल |
उष्ण , वक्र | पित्त शूल |
स्थूल, वक्र | आम दोष के कारण शूल |
गुरु, वक्र | आध्मान |
नाड़ी बीच बीच में गाथ युक्त, जड़, सूक्ष्म, मृदु, तृप्त | प्रमेह |
उष्ण, गम्भीर, कंप युक्त, स्फुटित | आम वात |
उछलती हुई | विष |
वायु की अधिकता से, तिरछी, काप हुए | गुल्म |
कफ के समान | वमन |
स्थिर, कभी वक्र, कभी मंद और कभी सीधी | कोष्ठबंधता के कारण बवासीर |
कुटिल, कम्पन युक्त, धीमी | अम्लपित्त |
सूक्ष्म, सुखी | प्लीहा रोग |
गति बल हीन | जलोदर |
सूक्ष्म, स्थिर, धीमी | कास |
तीव्र | श्वास |
हाथी की चाल | क्षय |
गरिष्ठ, जड़ता युक्त | मूत्रकृच्छता |
कुटिल, विशिर्ण, पिश्चिल , विलुप्त, गंभीर | उपदंश |
बहुत चंचल, निर्मल, वात कफ के समान | शूक |
फैली, फटी हुई | मूर्च्छा |
क्षीण, तीव्र | अपस्मार |
उष्ण, वक्र, दाहवत | उन्माद |
बल पूर्वक ऊपर और नीचे, गम्भीर, वक्र | धनुस्तम्भ |
उछलती हुई, वक्र | पक्षाघात |
रस्सी के समान घूमती हुई, गुरु | जिह्वा स्थंभ |
बार बार रुकती है | पंगु |
कठिन, स्थिर, प्रवर्तन रहित | कुष्ठ |
विभिन्न गति वाली, विचलित, कठिन, सफुट व कंठ नाड़ी स्थिर | गलगंड |
कृच्छसाध्य रोगों की नाड़ी :-
जिस नाड़ी में तीनों दोष पूर्ण रूप से वृद्धि हो जाये।
मृत्यु से पहले दिन व नाड़ी गति :-
गति | दिन |
चलती हुई, चलती वेग वाली, नासिका के आधार से युक्त, शीतल | 1 प्रहर में मृत्यु |
अंगूठे के मूल से 2 अंगुल नीचे चले | 4 घड़ी बाद मृत्यु |
सुंकी गति से चले, अति चारक चले और फिर एक जगह रुक जाए | 6 प्रहर बाद मृत्यु |
डमरू के समान | 1 दिन में मृत्यु |
स्थिर, बिजली की भांति गति | 2 दिन में मृत्यु |
धीरे धीरे चले फिर एक दम से बिजली के समान चले | 2 दिन में मृत्यु |
मल से युक्त नाड़ी, शीतल | 2 दिन में मृत्यु |
अग्र भाग में नाड़ी न हो, मध्य भाग में शीतल हो, शरीर में ग्लानि हो | 3 दीन में मृत्यु |
नाड़ी मल युक्त हो, शीघ्र चले, मध्य में अग्नि के सामन ज्वर हो | 3 दिन में मृत्यु |
ज्वर के ताप से व्यकुल हो, त्रिदोष के लक्षण हो, शीत हो | 5 दिन में मृत्यु |
मुख में सिघ्र, शीतल, सचिकना पसीना | 7 दिन में मृत्यु |
देह शीतल, मुख से श्वास, दाड़ वाली नाड़ी शीघ्र चले | 15 दिन में मृत्यु |
आयु सूक्ष्म वेग, अति वेग, शीतल | आयु का किसी भी समय खतम |
बिजली की तरह दिखे, फिर बिजली कि तरह न दिखे | यमपुरी में जाने को तैयार हो जाए |
कफ से पूरित कंठ वाला मनुष्य, नाड़ी तिरछी व गर्म सर्प के समान चले, अति वेग युक्त हो | जीना दुर्बल है |
चरण में नाड़ी दिखे व हाथ में नाड़ी में दिखे, खिला हुआ मुख हुए | 30 दिन में मृत्यु |
केचुए के समान, शीनता, शरीर पर सूजन | 60 दिन में मृत्यु |
नाड़ी के स्पर्श के लक्षण :-
लक्षण | दोष |
किंचित उष्ण | वात |
किंचित शीत | कफ |
अति उष्ण | पित्त |
नाड़ी के रूप के लक्षण :-
लक्षण | दोष |
अतिशम | वात |
हारित रक्त वर्ण | पित्त |
पंडूर | कफ |
विवर्ण | सन्निपात |
बालक, वृद्ध व मूक व्यक्तियों की नाड़ी :-
व्यस्त, समस्त, द्वंद्व रूप या दोषज रूप, यह नाड़ी आचिर दीप दर्शन की भांति होती है।
त्रिकाल नाड़ी लक्षण :-
समय | गति | गुण |
प्रात: समय | कफ नाड़ी गति | स्निग्ध |
दिन के बीच में | अति पित्त की गति वाली नाड़ी | उष्ण |
शाम को | वात नाड़ी गति | शीघ्र |
अर्द्ध रात्रि | पित्त नाड़ी गति |
भोजन के साथ नाड़ी :-
पदार्थ | गति |
तैल व गुड मिली वस्तु | मोटी नाड़ी |
मास | कठोर व केडी नाड़ी |
दूध | मंद |
मीठे | मेंढ़क के समान |
केला, गन्ना, गुड विकार भोजन, पिट्ठी, बड़े, रूखे सूखे अन्न | वात पित्त के सामन गति |
ख्ट्टे पदार्थ | ठंडी |
छोले , चाबने वाले पदार्थ | मंद गति |
पुष्टि कराक पदार्थ | कम चंचलता |
उपवास | सर्प के अग्र भाग के समान, मंद गति |
नाड़ी ज्ञान न जानने वाले वैद्य का दोष :-
नाडीगतिमविज्ञाय यः करोति चिकित्सितम्। आरोहति गिरि सोऽन्धम्तम्य यानसमं विदुः।
को वैद्य नाड़ी का ज्ञान किए बिना रोगों कि चिकित्सा करता है वह उसी प्रकार से है, जैसे अंधा व्यक्ति पर्वत पर चढ़ता अर्थात् :- चिकित्सा में कभी सफल नहीं हो सकता।
नाड़ी ज्ञान सीखने हेतु अभ्यास की आवश्यकता :-
परीक्षणीयाः सततं नाडीनां गतयः पृथक् । न चाध्ययनमात्रेण मात्रेण नाड़ी ज्ञान भवेदिह ॥
वैद्य को निरंतर नाड़ी की गति की परीक्षा करनी चाहिए क्योंकि केवल पढ़ने से, नाड़ी के बारे में बहुत कुछ सुनने से नाड़ी का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान केवल अभ्यास से हो सकता है और अभ्यास देखनें से ही होता है। इसके अलावा करोड़ों साधनों से भी नहीं।