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Nadi Vigyan ( नाड़ी विज्ञान ) : Tantra Sharir

AFTER READING NADI VIGYAN, READ NADI PARIKSHA.

पर्याय :-

हिंस्त्रा स्रायुर्वसा नाडी धमनी धामनी धरा। तन्तुकी जीवितज्ञा च शिरा पर्यायवाचकाः॥

स्नायु, हिंस्त्रा, धमनी, धारिणी, धरा, तंतुकी, जीवनज्ञाना, नाङी।

नाड़ी के भेद :-

तत्र कायनाडी त्रिविधा। एका युवा, अन्या मूत्र विड- स्थिर स वाहिनी, अपरा आहार वाहिनी इति ॥

नाड़ी 3 प्रकार की होती है :-

  1. वायु का वहन करने वाली।
  2. मल, मूत्र, हड्डी व रस का वहन करने वाली।
  3. आहार का वहन करने वाली।
स्तिथि :-

पत्रे रेखानिभा भिन्नास्सूक्ष्मावपुस्सिराश्रिताः। मृणालनाडिकारूपास्त्रोतांसि सर्वदेहगाः।।

पत्रो में रेखा के समान, भिन्न और सुषुम्ना रेखा का जाल सिराएं होती है। यह कमल अंग में नाड़ियों के रूप में स्त्रोतस व सम्पूर्ण देह में व्याप्त होती है।

मांसास्थिस्नायुमज्जादिनिर्मितं भोगमन्दिरम् । केवलं दुःखभोगाय नाड़ी सन्ततिगुल्फितम् ।।

मांस, अस्थि, स्नायु, मज्जा आदि से निर्मित यह शरीर केवल दुख भोग के लिए नाड़ी समूह में गुंफित है।

संख्या :-
Nadi vigyan

मनुष्य के शरीर में 3.5 लाख रोम है और व सब नाड़ियों के मुख है जहां से पसीना आता है व उतनी ही (3.5 लाख) नाड़ियां है। इन सब में से 1072 स्थूल नाड़ी है जो कि वायु का धमन व पांच इंद्रियों के गुण का वहन करती है, 700 छोटे छिद्र वाली नाड़ियां है जो कि अन्न रस का वहन करती है। उन सब में से 14 नाड़ियां प्रधान है। 14 प्रधान नाड़ियां :-

  1. सुषुम्ना
  2. इड़ा
  3. पिङ्गला
  4. गांधारी
  5. हस्तिजिह्वा
  6. कुहु
  7. सरस्वती
  8. पूषा
  9. शंखनी
  10. पयस्विनी
  11. वरुणा
  12. अलम्बुषा
  13. विश्र्वोदरी
  14. यशस्विनी

इन 14 में से भी 3 प्रधान है :- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना और इन तीनों में से भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है क्योंकि बाकी सभी नाड़ी इसी का आश्रय लेकर शरीर में रहती है। ( Today it is known as Spinal Cord ).

नाड़ियों की उत्पति :-

इड़, पिंगला व सुषुम्ना अधोमुखी कमल तंतु के समान पृष्ठ में आश्रित है। जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, अग्नि मेरू दंड में आश्रित होती है। और इन तीनों के बीच में चित्रा नामक नाड़ी जाती है, जो कि भगवान शिव को बहुत प्रिय है और वही सुषुम्ना से भी सूक्ष्म ब्रह्मारंध्र है।

चित्रा नाड़ी :-

चित्रा नाड़ी पंचवर्णोउज्वल्ला, शुद्ध व सुषुम्णा के बीच में रहती है। इसके ध्यान मात्र से सभी पाप खत्म होते है, व यह नाड़ी शिवजी को बहुत प्रिय है, अमृत स्वरूप होने के साथ साथ यह मोक्ष का मार्ग कहा गया है।

कुंडलिनी नाड़ी :-

यह 3.5 आवृति से टेड़ी सुषुम्ना (मूलाधार चक्र) से स्थित है, इड़ के वाम मार्ग में स्थित है और सुषुम्ना में आशिलिष्ट होकर दक्षिनासपुट में जाती है। इसके दक्षिण मार्ग में पिंगला रहती है। जिस प्रकार पेड़ के ऊपर जाते है और भाग विभक्त होते है, यह वाणियो का उच्चारण करने वाली वाग्देवी है। यह सदा देवताओं द्वारा नमस्कार की जाती है। यह कुंडलिनी शक्ति सब नाड़ियों को घेरकर 3.5 कुटिल आकृति वाली पूछ को लेकर सुषुम्ना के छिद्र में रहती है, सर्प के समान सोई हुई अपनी प्रभा से स्फुरित हुई सर्प के समान संधि में स्थित है, बीज स्वरूप है। यह विष्णु की निर्मल व तेजस्विनी शक्ति है, सत्व रज व तम की जन्म दती है।

सुषुम्णा नाड़ी :-

इड़ व पिगंला के मध्य में स्थित है, इसके मध्य में 6 स्थानों पर 6 शक्तियां स्थित है जिसे षट चक्र कहते है।

इडा नाड़ी :-

मोर के गले के समान कांति वाली है, पृष्ठ भाग में गांधारी नाड़ी से लेकर बाये पैर से लेकर नेत्र तक जाती है।

हस्तिजिह्वा नाड़ी :-

यह कमल के समान है और इड़ा नाड़ी के आगे स्थित और मस्तिष्क से लेकर पैर के अंगूठे तक जाती है।

पूषा नाड़ी :-

बादल के समान कंति वाली और पिंगला नाड़ी के पृष्ठ भाग में रहती है व दाहिने पैर से लेकर नेत्र तक जाती है।

यशस्विनी नाड़ी :-

शंख के समान वर्ण वाली, पिंगला नाड़ी से पूर्व में स्थित है।

शंखिनी नाड़ी :-

सरस्वती व गांधारी नाड़ी के बीच में स्थित है। सुवर्ण के समान वर्ण वाली वाम पैर से लेकर कान तक जाती है।

कुहू नाड़ी :-

दाहिने पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क तक जाती है।

वैष्णवी नाड़ी :-

शिर में अव्यक्त रूप से रहती है।

देवयान नाड़ी :-

शरीर के दक्षिण भाग में पुण्यकर्म के अनुसार व अग्नि मंडल में प्राप्त व मूला धार से दक्षिण वधि शस्त्रदल पर्यंत रहती है।

ब्रह्मदंड नाड़ी :-

मूलाधार के पृष्ठ भाग में वीणा दंड के समान स्थित मस्तिष्क तक जाती है। इस नाड़ी के अंत में एक महीन छिद्र होता है।

विष्वोदरी नाड़ी :-

32 हाथ प्रमाण वाली, सर्व मनुष्यों के पेट में स्थित है।

अन्य नाड़ी की उत्पति :-

बाकी सभी नाड़ी मूलाधार चक्र से उठती है और उसके बाद में जिह्वा, पैर, कान, हाथ, उपस्थमभ, वायु एवम् सभी जगह जाती है, यह सभी नाड़ियां वायु संचार में दक्ष है और ओथ पोथ होकर शरीर में व्याप्त होती है।

त्रिपुर भैरवी :-

वह स्थान जहां पर कुंडलिनी, सुषुम्ना व काम बीज मिलती है, यह अत्यंत ही तेज़ सम्पन्न है।

त्रिवेणी :-

इड़, पिंगला, सुषुम्ना या गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने के संगठन को त्रिवेणी कहते है।

नाड़ी के कार्य :-
  • सभी नाड़ी में वायु चलती है।
  • 1002 अन्न रस सम्पूर्ण शरीर में जाता है।
  • प्राण का संचार करती है।
  • 1002 नाड़ी वायु के अनुकूल है और वायु का पोषण करती है।
  • पांचों इंद्रियों के गुणों को बहती है।

नाड़ी व गति :-

अंगनाड़ी
ऊपर की तरफइड़, पिंगला, सुषुम्ना
फैलकर गमनगांधारी, हस्तिजिह्वा
दाहिने अंग में गमनअलंबधा, यशस्विनी
वाम अंग में गमनकुहू, शंखिनी
नासिका का वाम भागइड़
नासिका का दक्षिण भागपिंगला
शिरविशेसुषुम्ना
वाम नेत्रगांधारी
दाहिना नेत्रहस्तिजिह्वा
दाहिना कानपूषा
वाम कानयशस्विनी
मुख मेंअलंबका
लिंग की जड़ मेंकुहू
शिर में ऊपरशंखिनी
प्राण का वहन करने वाली नाड़ियां :-

इड़, पिंगला, सुषुम्ना, सरस्वती, गांधारी, हस्थिजिह्वा, कुहू, पुषा, यशस्विनी, चारना, अलंबुषा, विश्वा, शंखिनी, पयस्विनी यह 14 नाड़ियां प्राण का वाहन करती है।

त्रिविध नाड़ी :-

नाड़ीआभादेवतागुणस्थितिअन्य नाम
इड़शंख व चंद्रमा के समानचंद्रमारजोसुषुम्णा नाड़ी के वाम भाग मेंदोषों वाली हैयमुना, असी
पिंगलासफेद व लाल कांतिसूर्यतमसुषुम्णा नाड़ी के दक्षिण भाग मेंअग्नि रूप वालीवरना, गंगा
सुषुम्नावायुसत्वमध्य मेंब्रह्मा द्वार मार्ग वालीसरस्वती
नाड़ी व अंग में उसका प्रमाण :-
अंगप्रमाण
कंठ 1 हाथ
आमाशय10 हाथ
पच्यमान10 हाथ
पक्वाशय10 हाथ
गुदा1 हाथ
नाड़ी के संपादन का कारण :-

परिव्याप्याखिलं कायं धमन्यो हृदयाश्रयाः। वहन्त्यः शोणितस्रोतः शरीरं पोषयन्ति ता:।। हृदयाकुञ्चनाद्वक्तं कियदुत्प्लुत्य धामनीम् ।तत्सञ्चितं तदुत्थं च प्रविश्य चापरास्वपि ॥ब्रजित्वा निखिलं देहं ततो विशति फुप्फुसम् । फुप्फुसाद्धृदयं याति क्रियैवं स्यात्पुनः पुनः॥रुधिरोत्प्लववेगेन धमनी स्पन्दते मुहुः । उत्पुवप्रकृतेभेदाद्भेदः स्यात्स्पन्दनस्य च ॥ स्थौल्यादिकं धमन्याश्च तत्प्रकृत्यैव जायते। तत्प्रकारान्समासेन ब्रुवे वत्स निशामय।।

हृदय के आश्रित होकर धमनी नाड़ी सम्पूर्ण देह में व्याप्त होकर रुधिर को स्रोत्रों से वहन करती है। उसी रुधिर के वहन से शरीर का पोषण करती है। रकताधर यह एक स्थूल मांस नलिका ऊपर की तरफ कूच उठी होती है। नली समुदाय धमनी नाड़ी का मूलभग है। इसी स्थान से धमनी नाड़ी की अनेक शाखा निकलती है, हृदय यंत्र स्वभाव से ही सदैव खुलता, मुंदता रहता है। जैसे छिद्र के साथ जलपूर्ण नलिका को दबाने से जल बड़े वेग के साथ निकलता है, उसी प्रकार हृदय के मूंदने से हृदय से रुधिर कितनी ही अंश उछल कर स्थूल नाड़ी में प्रवेश करता है, और देह परिभरह्मन करके फुफ्फुस में जाकर प्राप्त होता है। फिर हृदय में आता है, इस प्रकार यह बार बार होता रहता है और रुधिर के हृदय से बार बार उछल कर धमनी के छिद्र में होने के कारण नाड़ी बार बार तदफ्ती है।

नाड़ी की विभिन्न गतियों का कारण :-

कल्याणमपि वाऽरिष्टं स्फुटं नाडी प्रकाशयेत् । रुजां कालिकवैशिष्टयाद्भवेत्सापि विलक्षणा ॥यल्लक्षणा तु नैरुज्ये नोदितायां तथा रुजि । वयःकालरुजां भेदैभिन्नभावं बिभति सा ॥

शुभ व अशुभ इन दोनों को नाड़ी प्रत्यक्ष प्रकाशित करती है तथा विभिन्न रोगों में विभिन्न प्रकार की होती है। जैसी आरोग्य परूष की नाड़ी होती है, वह रोग अवस्था में वैसी नहीं होती। इसका कारण है कि अवस्था, काल, रोगों के भेद के कारण नाड़ी भिन्न भाव को धारण करती है।

3 replies on “Nadi Vigyan ( नाड़ी विज्ञान ) : Tantra Sharir”

शरीर की नाङियों को जागृत करने की विधि क्या है। कृपया मार्गदर्शन करें।

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