परिचर्या के विभिन्न कर्मों को करने का जो क्रम दिया गया है, यह सभी में अलग-अलग वर्णित है-
Trick:- PSM की गर्भ पर नज़र। (चरक अनुसार)
- P – प्राण प्रत्यागमन
- S – स्नान
- M – मुख विशोधन
- गर्भ – गर्भोदक वमन
- पर – परिमार्जन – उल्वा परिमार्जन
- न – नालछेदन
- ज – जात कर्म
- र – रक्षा कर्म
नाल छेदन
१.चरक अनुसार = आचार्य चरक ने प्राणप्रत्यागमन के उपरान्त ही नाभिनाल-कर्तन का वर्णन किया है। नाभिनाल के नाभि से 8 अंगुल छोड़कर चिह्न लगा दें और जिस स्थान पर छेदन करना हो उसे दोनों ओर पकड़कर तीक्ष्ण स्वर्ण, चांदी या लोहा किसी एक धातु के बने अर्धधार वाले चाकू से काट दें। कटा हुआ जो भाग नाभि से संलग्न है उसके अग्रभाग में सूत्र बांधकर बालक के कंठ में बाँध दे ।
यदि नाभि पकने लगे तो प्रीयुंग, हरिद्रा- साधित तेल का अभ्यंग करें। इन्हीं द्रव्यों के चूर्ण का पके हुए भाग पर अवचुरणन करें। यह नाड़ीकल्पन की उचित विधि है।
२.सुश्रुत अनुसार = तदोपरान्त (नाभि से) नाभि नाड़ी 8 अङ्गुल नापकर, सूत्र में बांधकर, कैची से काट देवे । फिर उस सूत्र के दूसरे सिरे को बालक के गले में बांध दे। (जिससे 8 अंगुल लम्बी नाभि लटक कर मल-मूत्र से गन्दी न हो सके)
३.अष्टांग अनुसार = बच्चे को स्वस्थ होने पर (प्राणप्रत्यागमन के बाद) इसकी नाभि नाल को 4 अंगुल ऊपर से बाँधकर काट देवे । इस बचे भाग को सूत्र से गले में लटका दे कुष्ठतैल का परिषेक नाड़ी पर करे ।
आज भी कुछ विद्वानों का मत है कि यदि नाभिनाल को स्पन्दन बन्द होने के बाद काटा जाय तो शिशु में करीब 100 सीसी रक्त अपरा से चला जाता है।
यदि शिशु स्वस्थ है तुरन्त श्वसन प्रारम्भ कर दिया है तो मुख-विशोधन कर नाभिनाल स्पन्दन समाप्त होने पर ही नाभिनाल काटे। अन्यथा प्रसवोपरान्त तुरन्त काट ले ।
यदि लम्बाई कम कर दी जाय तो गले में बाँधने को आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आजकल नाभि में १.५”-२” की दूरी पर दो तरफ से पकड़कर, काट कर संक्रमण विहीन सूत्र से बांध दे और कार्ड क्लेंप लगा देते है।
कार्ड कलेंप (Umbilcal Cord Clamp)
- The umbilical cord clamp is a medical device used to hold the cord in place when the cut is made, and the clamp may stay on for several days while the remaining cord attached to the baby dries.
नाभि नाल का 2 से 4 घण्टे के मध्य रक्तस्राव हेतु परीक्षण करते हैं, सूत्रबन्धन के ढीला होने से या नाभिनाल के सिकुड़कर ढीला होने से रक्तस्राव हो सकता है। पाक आदि से बचाने के लिए Tripl dye का स्थानीय प्रयोग, संक्रमण से बचाने हेतु जीवाणुनाशक चूर्ण का प्रयोग किया जाता है (Neomycin, bacitracin and polymyxin)
नवजात का मुखशोधन
१. चरक अनुसार –
प्राणप्रत्यागमन के बाद अब बालक के तालु, होठ, कंठ, जिह्वा को नख कटे हुए अंगुली के ऊपर स्वच्छ एवं श्वेत रुई को लपेट कर साफ़ करना शुरू करे। पहले तालु पर कपास का फाया स्नेह में भिगोकर रख दें। इसके बाद सेंधव एवम् घी खिला कर वमन करायें।
२. सुश्रुत मतानुसार –
जन्म लिये हुए बालक के जरायु को हटाकर सैन्धव युक्त घी से मुख को विशोधित करके उसके सिर पर घी से भीगा फाया रखें।
३. वाग्भ्ट के अनुसार –
सीधे हाथ की तर्जनी से तालु को ऊंचा उठाकर तेल के फाहे को शिर पर रखे।
आधुनिक काल में नाभिनाल-कर्तन के उपरान्त पहला कार्य यह करते हैं कि मुलायम वस्त्र से शिशु का मुख, गला एवं नाक साफ कर देते हैं। यदि कफ अधिक हो तो इसे हटाने के लिए श्लेष्मा चूसक यन्त्र का प्रयोग करते हैं।
श्लेष्मा चूषक (Mucous sucker)
- This is used with a suction machine to maintain an airway by removing secretions from the mouth, throat, or lungs. It is particularly important in Neurological diseases where the ability to cough or swallow is impaired.
इसके ( Mucus suction catheter) तीन भाग है :-
- स्थूल मापन भाग
- पतली नलिका (शिशु के मुख में डालने के लिए)
- पतली नलिका के अग्रभाग पर चूसने हेतु बना होता है ।
पतली नलिका के भाग से ही नाक के अन्दर का भी भाग साफ कर सकते हैं। इसके द्वारा मुख एवं गला साफ करने के अतिरिक्त ग्रास नलिका द्वारा आमाशय में डालकर आमाशयिक द्रव को निकाला जा सकता है। आमाशय का धावन कार्य कर सकते हैं। कुछ यंत्रों में बल्ब में द्रव मापन हेतु निशान लगे होते है। जिससे आमाशयस्थ द्रव जो निकाला गया अथवा आमाशय धावन हेतु डालकर निकाला गया है, उसका मापन हो जाता है।
विंभिन्न आचार्यों ने अपने अपने मत अनुसार अपरा गिराने के बाद किए जाने वाले उपयुक्त कार्यों का वर्णन किया है।
आचार्य चरक का मत = प्रसूता स्त्री की अपरा गिराने लिए कार्य करते होने के बाद कुमार लिए निम्नाङ्कित कार्य करने चाहिए।
- दो पत्थरों के टुकड़े को लेकर बालक के कान के मूल अर्थात् कान के पास बजाना चाहिए और गरम या शीतल जल बालक के मुख पर सिंचन करना चाहिए।
- इन क्रियाओं से प्रसव उत्पन्न हुए कष्टों से पीडित प्राण पुन: बलिष्ठ हो जाते हैं।
- बालक के भूमिष्ठ होने पर उसमें चेष्टा का अभाव सींक से निर्मित तब तक वायु करें जब तक कि श्वास-प्रश्वास एवं अन्य चेष्टाएँ सामान्य ना हो जायें।
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गर्भोदक वमन
- जब बालक गर्भ उदक का पान कर लेता है तो उसके लिए सेंधव सर्पी खिला कर वमन कराना चहिए । अष्टांग के पाठान्तर में सैंधव, सर्पि के साथ वचा का भी उल्लेख मिलता है।
- आजकल इसके लिए वमन द्रव्यों का प्रयोग नहीं करके श्लेष्मा चूषण यन्त्र का प्रयोग करते है और आमाशय का सम्पूर्ण द्रव निकाल लेते है ।
गर्भोदक (Amniotic fluid) का सामान्य रूप से गर्भस्थ शिशु पान करते ही है ।उसका आंतो दारा शोषण एवम् शरीर में संग्रह होता है । अतिरिक्त मात्रा शिशु मूत्र त्याग से निकाल देता है । यह गर्भोदक कभी- कभी स्वयं या गर्भ विषमयता के कारण अपरा के कार्य क्षमता में आयी कमी के कारण या (Hypoxia) के कारण से गर्भस्थ शिशु के मलत्याग के कारण मल-मिश्रित गर्भोदक का पान गर्भ शिशु कर जाता है । उसमें नवजात शिशु प्रायः प्रथम दिन आमाशयिक क्षोभ के कारण वमन करते है । इससे बचाव हेतु आमाशय का प्रक्षालन नमक से करते हैं।
Nasogastric intubation
is the medical process involving the insertion of a plastic tube through nose, Thorat,and down in stomach.
उल्वा-परिमार्जन
उल्वा (vernix caseosa) हटाने के लिए सेंधव और घृत का प्रयोग करते है फिर बला तेल का अभ्यंग करते है । आजकल जैतून का तेल या सरसों का तेल प्रयोग करते है ।
स्नान
मन्दोष्ण क्षीरीवृक्षकषाय से(जैसे- उदुंबर, पलाश, वट) सर्वगन्ध युक्त जल से( कपूर , कंकोल, गुरु, लवङ्ग अथवा एलादिगण की औषधियाँ आदि) कपित्थपत्रकषाय से दोष, काल एवं सामर्थ्यानुरूप बालक को स्नान करायें।
शीतकाल में अल्प उष्ण एवं गर्मी में कुछ शीतल जल का प्रयोग करना चाहिए ।
आधुनिक काल में Hexachlorophene lotion एवं औषधियुक्त विभिन्न साबुनों का प्रयोग स्नानार्थ करते हैं। अच्छी तरह सफाई के बाद Chlorhexidine (Hibitone) Cream 5% का लेप कर देना चाहिए।
- (जातकर्म के बाद) रक्षाविधान का अनुष्ठान करना चाहिए । आदानी (कड़वा तुरई), खदिर, बैर, पीलू एवं परूषक इन वृक्षों की शाखा लेकर जिस घर में बालक हो, उस घर के चारों ओर लटका देवें ।
- सुतिकागृह के चारों ओर पीली सरसो, अतीस, तण्डुल के दाने बिखेर दे, और नामकरण के पूर्व’ लगातार दोनों समय तण्डुलबलि नामक होम करें ।
- द्वार पर चौखठ के ऊपर तिरछा मूसल रखें। वचा, कुष्ठ, हिंग, अतीस, लशुन का दाना एवं चावल के कण एवं भूत-प्रेत को दूर करने वाली अन्य औषधियों की पोटली बनाकर सुतिकागृह के दरवाजे के ऊपर लटका दे ।
- सूतिकागृह के भीतर कण्टक की आग और तिन्दुक की आग सदैव जलती रखें ।
- सूतिका ग्रह में प्रिय बोलने वाली स्त्रिया जो सूतिका की सेवा में लगी है वे और अन्य सूतिका की हितैषी सखियाँ 10 दिन गीतगायन, बाजा बजाना आदि करना चाहिए ।
- इन दिनों सूतिकागार में खान-पान की सभी सामग्री भरी रहे ।
- कुमार एवं सूतिका की कल्याण कामना से अथर्ववेद को जानने वाला ब्राह्मण शान्ति के लिए होम करे, शान्तिपाठ पाठ करें या 12 दिन तक जागती रहे, लगातार दान, मङ्गलपाठ, आशीर्वाद, स्तुतिपाठ, और स्वच्छ रखनी चाहिए। इस प्रकार रक्षाकर्म करते हैं ।
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आहार-विधान
बालक का प्रथम दिन से चतुर्थ दिन तक का आहार-विधान इस प्रकार बतलाया गया है
चरक का कहना है कि मंत्र से अभिमन्त्रित कर पहले बालक को मधु एवं घत चटाने को दीजिए। फिर इसी विधि से सर्वप्रथम दक्षिण स्तन का दूध बालक को पिलायें। (अर्थात् दुग्धपान प्रथम दिन से ही प्रारम्भ कर दें।)
सुश्रुत का मत इसके विपरीत है, प्रथम दिन बालक को मन्त्रपूरित अनन्तमिश्रित (सुवर्ण या अनन्ता) मधु-सर्पि दिन भर में 3 बार पिलाये/चटायें, दूसरे एवं तीसरे दिन लक्ष्मण सिद्ध घृत 3 बार दें। चौथे दिन बालक की हथेली में जितना मधु एवं घृत आ पाए, उतना उसे दो बार पिलाना चाहिए । तदुपरान्त माता का दूध देना चाहिए।
वागभ्ट ने अष्टांगहृदय एवं संग्रह में सुश्रुत की ही बात मानी है अनन्त का अर्थ सुवर्ण है, वाग्भट ने अनन्ता कहा है, इसके विभिन्न अर्थ है-दूर्वा (इन्दु टीका), यवासक अरुण दत्त), सारिका । चौथे दिन जहाँ सुश्रुत ने मधुसर्पि कहा है, अष्टाङ्ग हृदय में नवनीत तथा अष्टासंग्रह में घी कहा गया है।
आधुनिक चिकित्सा के विचार से 2.5 कि.ग्रा. से कम शरीर भार के प्रत्येक बच्चे को रक्तस्राव होने की सम्भावना से बचाव हेतु विटामिन ‘के’ का सूचीवेध देना चाहिए । दुर्वा रक्तस्तम्भक है। इसका बाहा एवं आभ्यन्तर दोनों ही रूप में रक्तस्तम्भन हेतु प्रयोग होता है । अत: आयुर्वेद मनीषियों ने अनन्त या अनन्ता द्वारा दूर्वा का संकेत कर प्रत्येक शिशु को रक्तस्राव से बचाव हेतु इसे देने का विधान किया है।
चरक के मत का प्रतिपादन आधुनिक वैज्ञानिक भी करते हैं । अन्य आचायों ने चतुर्थ दिन् स्तनपान कराने को कहा है, मगर उसके पूर्व का निषेध नहीं किया है।
सम्भवत: अल्पमात्रा में स्तन्य आने के कारण 3-4 दिन हेतु विशेष व्यवस्था की गयी होगी। प्रथम दिन स्तन में स्तन्य आये या न आये पर माता एवं शिशु दोनों उससे लाभान्वित होते हैं –
बालक की चूषण-क्षमता (Sucking Reflex) का ज्ञान होना है।
- स्तन पकड़ने से मस्तिष्क के पिट्यूटरी ग्रंथि को सूचना एवं प्रतिक्रिया स्वरूप prolactin एवं Oxytocin का उत्पादन होता है।
- Prolactin द्वारा स्तन्य की उत्पति होती है।
- Oxytocin के द्वारा गर्भाशय संकोच होता है।
कुमारागार
वास्तुविधा में कुशल पुरुष श्रेष्ठ, सुन्दर, अन्धकार रहित, तीव्र वायु के प्रवेश से रहित किन्तु हवादार हो, जहाँ कुत्ता आदि अन्य हिंसक पशु, मच्छर, मूषक आदि न जा सके, जहा अलग-अलग विधिपूर्वक जल का स्थान हो, ऊखल रखने का स्थान हो, मूत्रालय, शौचालय, स्नान घर एवं रसोईघर अलग-अलग हो; प्रत्येक ऋतु में सुखकारी एवं ऋतु के अनुसार जहाँ शयन, आसन, बिस्तर रखा हो ऐसा स्थान शिशु के रहने हेतु बनाये ।
बालक के शय्या-वस्त्र आदि का वर्णन
कुमार का आसन, बिस्तर, प्रावरण मृदु, लघु, पवित्र (स्वच्छ) और सुगन्धित होना चाहिए जिस शय्या, आसन, बिस्तर, प्रावरण आदि में स्वेद सूखा हो, गन्दा एवं मल-मूत्र लगा हो, उसे बालक प्रयोग में न लायें।
नवीन वस्त्र का प्रयोग करें एवं उन्हें ठीक से धोकर सुखा लें। धूपन द्रव्यों से धूप करे। यव, अतीस, वचा, चोक, वयस्था, गोलोमी, जटामांसी, अशोक, कटुकी, सर्प द्रव्य का चूर्ण बनाकर घृत मिलाकर धूपन करे।
प्रसव-कक्ष में शिशु की देखभाल
- प्राणप्रत्यागमन आदि हो जाने के बाद सर्वप्रथम बच्चे की सुरक्षा ठंडक से करनी चाहिए । बच्चे का परीक्षण सहज विकारों एवं जन्म कालीन आघात के लिए करना चाहिए।
- नेत्रों को अलग-अलग संक्रमणविहीन पिचु स्वच्छ अब Gonococcal संक्रमण की कमी कारण सामान्य रूप में Silver nitrate का प्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्यथा उपद्रवस्वरूप रसायनिक अभिष्यन्दि होने की सम्भावना रहती है।
- जिन शिशुओं का वजन 2.5 कि.ग्रा. कम हो उन्हें VitaminK 0.5 to 1.0 मि.ग्रा. की मात्रा में मांसगत सूचीवेध लगा देना चाहिए।
इनके अतिरिक्त आघात लगने वाले प्रसव में, (Forceps and vaccum extractions) का प्रयोग करना चाहिए।
- कुक्षी पाटन से उत्पन्न शिशु ।
2 अत्यधिक श्वास अवरोध (asphyxia) पीड़ित शिशु
- मल-मिश्र गर्भोदक ।
- Polyhydramnios
- नाभि नाल में एक ही धमनी हो।
6.Low birth weight babies (Small-for-date)
शिशु-भार 2 kg से कम हो ।
गर्भावस्था 35 सप्ताह से कम हो ।
असामान्य प्रसव।
जन्मजात श्वास अवरोध ।
विशेष सहज विकृति ।
शिशु को कोई सांस्थानिक विकार (Respiratory Distres)
निम्नलिखित अवस्थाओं में शिशु को विशिष्ट शिशु सेवा कक्ष (Special are nursery) में रखना चाहिए।
अपरा का परीक्षण
- भार-मान्य 500 से 600 ग्राम होता है। यह भार शिशु भार का 12 से 15% होता है ।LBW शिशु में असमान्य रूप से अपरा का भार भी कम होता है (कुपोषण के कारण, Trisomy, Rubella)
अधिक बड़ी अपरा Polyhydramnios, Erythroblastosis, Diabetes mellitus Congenital nephrosis ,Syphilis ,Toxoplasmosis and cytomegalic inclusion व्याधि में होती है।
2. वर्ण एवं सतह-dull एवं दूधिया सतह की अपरा एवम् दुर्गन्ध युक्त गर्भोदक जीवाणु संक्रमण में मिलती है।
Greyish yellow अपरा एवं जरायु में गर्भ का गर्भाशय में मलत्याग तथा Erythroblastosis में मिलता है।
3. अपरा मध्य रक्त स्राव (Retro-placental haemorrhage) शिशु में रक्त के नाश (Blood-loss) का द्योतक है।
नवजात शिशु-परीक्षण
यह परीक्षण विशेष रूप से तीन कार्यों हेतु करते है-
- जन्मजात आघात ।
- जन्मजात विकृति ।
- फुफ्फुस कार्यक्षमता एवं मार्गावरोध परीक्षण करते है।
जन्मजात विकृति का शीघ्रातिशीघ्र निदान
इसके लिए मां का इतिवृत्त, Teratogenic अर्थात गर्भ में विकृति पैदा करने वाली औषधि लेने यथा Goitrogenic drugs, radiation एवं विषाणु (Viral) संक्रमण गर्भावस्था में होने (प्रथम 3 माह में) के विषय में लेना चाहिए ।
Polyhydramnios माता में होने पर आन्त्र के ऊपर किसी भाग में अवरोध की सम्भावना रहती है ।25% Esophageal atresia, 75% पच्यमानाशय अवरोध (Duodenal jejunum) Oligohydramnios. पारिवारिक इतिवृत्त भी सहज विकार के विषय में लेना चाहिए ।
निम्नाङ्कित विषयों पर शीघ्र परन्तु पूर्ण परीक्षण करना चाहिए
- जन्म-भार एवं गर्भावस्था आयु
- नाभिनाल में एक धमनी एवं हथेली में धारियाँ (Palmar crease)
- श्वसन में कठिनाई।
- सामान्य सांस्थानिक परीक्षण ।
- छिद्रों की गणना एवं उनका खुला होना (विशेष रूप से अल्पभार शिशु, एक धमनी नाभिनाल, Polyhydramnios एवं अधिक लाला स्रावी शिशु में)।
प्रथम दिन शिशु का परीक्षण
- आवश्यकता
- कुछ प्रमुख मापों का संकलन ।
- किसी सहज विकृति का न छूटना ।
- शिशु की चूषक शक्ति का परीक्षण ।
- कामला।
- मुख झाग या श्लेष्मा आना।
- स्तनपान के बाद वमन ।
- मूत्र एवं मल के त्याग का प्रथम समय ।
- सामान्य व्यवहार आदि ।
- प्रमुख माप निम्नलिखित है, जिन्हें देखना चाहिए
- शिशु भार
- शिशु-लम्बाई।
- 3.सिर की परिधि (occipito-Frontal head) (इन सभी का विशेष विवरण किसी भी अच्छी Neonatology की पुस्तक में देखा जा सकता है। यहाँ ‘शिशु परिचर्या’ नामक अध्याय 5) में भी विवेचन दिया गया
- वक्ष की परिधि (चुचुक के पास)। इत्यादि ।
सामान्य नवजात शिशु-परिचर्या
१.यह आवश्यक है कि एक सामान्य शिशु को उसकी माँ के साथ रखा जाय । इससे माता एवं शिशु का मानसिक लगाव बढ़ता है । शिशु की परिचर्या में माँ सहायक हो जाती है।
२.चिकित्सालय-जनित संक्रमण (Cross infection) की सम्भावना घटती है।
३.स्तनपान की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है ।
४. शिशु को स्वच्छ चद्दर या तौलिये में रखें।
५. बच्चे का वर्ण, श्वसन, तापक्रम एवं कटी हुई नाभिनाल का परीक्षण कक्ष में लाने से पूर्व करना चाहिए ।
६.मलद्वार से दिन में 2 बार तापक्रम लेना चाहिए ।
७. नेत्रों की नित्य सफाई स्वच्छ कापस के नमकघोल (Normal saline) में डूबे पिचु से करनी चाहिए । यदि नेत्र में चिपचिपापन हो तो Sulphacetamide drop 2 से 4 घण्टे पर 2-2 बूंद की मात्रा में डालें।
किसी भी गम्भीर व्याधि का शीघ्र निदान शिशु की मृत्युदर को घटाता है। इसके लिए विशेष ध्यान निम्न तथ्यों पर देना चाहिए
- किसी स्थान से रक्तस्त्राव
- 24 घंटे के अन्दर कामला की उत्पत्ति
- 48 घंटे के अन्दर मूत्र त्याग न करना ।
- वमन या अतिसार ।
- स्तनपान में अरुचि या कम स्तनपान करना ।
- अति रोदन या अति क्लान्ति ।
- मुख से अति झाग आना या अति हास्यमुद्रा ।
- श्वास-प्रक्रिया में कठिनाई या नीलिमा के साथ ।
- एकाएक शरीर का तापक्रम बढ़ना या घटना।
- किसी प्रकार का संक्रमण ।