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Parad ( पारद ) / Mercury : Ras

रसशास्त्र में रस शब्द से पारद (Parad) का ही ग्रहण किया जाता है।

संस्कृत – पारदः

हिंदी – पारा

English – Mercury

Latin – Hydrargirum

Parad

Melting point= ( -35.87℃)

Freezing point= (-)36℃

Atomic no.= 80

Mass no.= 200

Synonyms :-
  1. रस
  2. रसेन्द्र
  3. सूत
  4. पारद
  5. मिश्रक
निरुक्ति :-

1. रस :-

स्वर्णादि सभी धातुओं एवं अभ्रकादि महारसों को भक्षण करके सभी धातुओं आदि की शक्ति स्वयं में लेने के कारण ही इसे रस कहते हैं।

●जरा, रोग, मृत्यु आदि को नष्ट करने में समर्थ होने से भी इसे रस कहते है।

2. रसेन्द्र :-
अर्थात् रसों एवं उपरसों का राजा होने के कारण इसे रसेन्द्र कहते है।

3. सूत :-

अर्थात् देह सिद्धि एवं लौह सिद्धि को देने वाला होने के कारण इसे सूत कहते है।

4. पारद :-

अर्थात् रोगरूपी कीचड़ वाले समुद्र में डूबे हुए मनुष्यों को पार करने वाला कारण इसे पारद कहते हैं।

5. मिश्रक :-

अथोत् जिसमें सभी धातुओं का तेज मिश्रित हो, उसे मिश्रक कहते है तथा इसे अनेक प्रकार का फल देने वाला कहा गया है।

Parad

गलद्रुप्यनिभम् :-

अर्थात् हीरे की चमक के समान, हीरे से ज्यादा चमकदार, पर्पटिका की आभास वाला और द्रव चाँदी के समान पारद (Parad) को बतलाया गया है।

पारद के खनिज :-

१) मुक्तावस्था (Native mercury):

इस अवस्था में पारद (Parad) स्वतन्त्र द्रव स्वरूप में पिघली हुई चाँदी सदृश मिलता है।

२)यौगिकावस्था (Ores mercury):-

प्रकृति में पारद, गन्धक, क्लोरीन आदि तत्वों के
साथ मिला हआ यौगिक के रूप में पाया जाता है। पारद मुक्तावस्था में कम मिलता है।

  1. हिंगुल (Cinnabar – HgS)
  2. मेटा सिन्नेबार (HgS)
  3. गिरिसिंदुर (Brick ore) HgO
  4. लिविंगस्टोनाइट (Living Stonite -2Sb2 S3 HgS)
  5. Barsenite

पारद के प्राप्ति स्थान :-

पारद (Parad) की अधिकतर खाने ज्वालामुखी पर्वतों के पास मिलती है। किन्तु सभी खाने ज्वालामुखी पर्वतों के पास होना आवश्यक नहीं है। पारद के खनिजों के प्राप्ति स्थान महाद्वीपों की दृष्टि से निम्नानुसार है:

  1. ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप
  2. एशिया महाद्वीप
  3. यूरोप महाद्वीप
  4. अफ्रीका महाद्वीप
पारद निष्कासन :-

हिंगुलोत्थ पारद=

पातन यन्त्र में शुद्ध हिंगुल चूर्ण रखकर अच्छी प्रकार से सन्धि बन्धन करके चूल्हे पर 2 घण्टे तक पाक करना चाहिए

यन्त्र के ऊपरी भाग को शीतल रखें

स्वांगशीत होने पर पात्र को सन्धि बन्धन को हटाकर दोनों पात्र को अलग अलग रखें

ऊपर के पात्र के अंदर कपड़ा से रगड़कर पारद को प्राप्त करके चतुर्गुण मोटे स्वच्छ वस्त्र से 2-3 बार छान लिया जाता है।

★पारद सर्वदोषरहित एवं शुद्ध होता है।

ग्राह्य-अग्राह्य पारद के लक्षण =

According to रसेन्द्र मंगल –

अन्तः सुनीलो बहिरुज्जवलयो यो मध्याह्न सूर्यप्रतिमप्रकाशः। शस्तोऽथ धूम्र परिपाण्डुरश्च चित्रो न योज्यो रसकर्मसिद्धये।।। “( र.म.1/15)

★शुद्ध पारद को काँच के पात्र में रखने पर अन्तस्तल से नीलाभ, बाहर से उज्जवल वर्ण एवं मध्याह्न के सूर्य की तरह प्रकाशित हो, वह पारद (Parad) श्रेष्ठ होता है।

★धूम्रवर्ण, पाण्डुवर्ण और कई वर्णों से युक्त पारद रसकर्म सिद्धि के लिए ग्रहण योग्य नहीं होता है।

पारद के दोष :-

●पारद में कुल 12 दोष होते हैं।

●स्पत कंचुकों का भिब 7 औपाधिक दोषों में समावेश हों जाता है।

१) नैसर्गिक दोष:- (Natural )

विष, वन्हि (अग्नि) और मल 3 होते हैं।

★विष से – मृत्यु

★वन्हि से – संताप

★मल से- मूर्च्छा।

२) यौगिक दोष :-

मिलावट के कारण है दोषों को यौगिक दोष कहते हैं।

नाग और वङ्ग 2 यौगिक दोष है।

★ नाग से – जड़ता, आध्मान

★वङ्ग से – कुष्ठ

३) औपाधिक दोष :-

  1. भूमिज= पारदीय खनिज भूगर्भ में जिस मिट्टी के सम्पर्क में रहता है, उस मिट्टी में से कुछ दोष पारद (Parad) में आ जाने से भूमिज दोष कहलाते हैं।
  2. गिरिज= पारदीय खनिज भूगर्भ पाषाणों के सम्पर्क से दोष आ जाने से गिरिज दोष कहलाते हैं।
  3. वारिज= पारदीय खनिज के सम्पर्क में आये हुए जल के कारण दोष पारद में आने से वारज दोष कहलाते हैं।
  4. नागज= पारद का सीसे के सम्पर्क से आगत दोष नागज दोष कहलाते हैं। ये संख्या में दो होते हैं।
  5. वङ्गज= वङ्ग के सम्पर्क से पारद में आगत दोष वङ्गज दोष कहलाते हैं। इनकी संख्या भी दो होती है।
सप्तकंचुक दोष और शरीर पर प्रभाव :-
  1. पर्पटी – शरीर की चमड़ी पपड़ी जैसी हो जाती है।
  2. पाटनी – शरीर को फाड़ देता है।
  3. भेदी – मल भेदन करता है।
  4. द्रावी – शरीर के धातुओं को द्रव कर देता है।
  5. मलकरी – शरीर में मल को बढाता है।
  6. अन्धकारी – पारद को खाने से मनुष्य अन्धा हो जाता है।
  7. ध्वांक्षी – कौए के स्वर जैसा कर्कश स्वर हो जाता है।
पारद का शोधन :-

किसी द्रव्य के अन्दर स्थित अशुद्धि का निवारण कर्म करने को शोधन कहते हैं।

यह दो प्रकार से होता है –

१) सामान्य शोधन २) विशेष शोधन

पारद का सामान्य शोधन :-

METHOD: 1

सर्वप्रथम पारद के समान भाग चूना लेकर

3 दिन तक खल्व में अच्छी तरह मर्दन करना चाहिए

पारद को द्विगुण वस्त्र से छानकर, पुनः खल्व में डालकर

Equal to amount of पारद छिलका रहित लहसुन लेकर तथा+लहसुन का 1/2 भाग सैंधव लवण डालकर

कल्क के कृष्ण वर्ण होने तक मर्दन करना चाहिए

जल से प्रक्षालन कर शुद्ध पारद प्राप्त करें

METHOD: 2

अशुद्ध पारद को एक लहसुन और सैंधव लवण के साथ 7 दिन तक तप्तखलव में मर्दन करने के बाद

कांजी से प्रक्षालन करने पर पारद शुद्ध हो जाता है।

पारद का विशेष शोधन :-
दोषनिवारणार्थ विधिअनुमान
नाग दोषगृहधूम, ईंट का चूर्ण, हरिद्रा चूर्ण, ऊन का चूर्ण षोडशांश मात्रा में लेकर पारद के साथ घृतकुमारी स्वरस से मर्दन कर कांजी से प्रक्षालन करें।
वंङ्गइन्द्रायण, अंकोल, हरिद्रा चूर्ण
अग्निचित्रकमूल चूर्ण
मलअम्लतास त्वक् चूर्ण
चापल्यकृष्णधत्तुर बीज या पंचांग
विष त्रिफला चूर्ण
गिरी त्रिकटु
असह अग्नि दोषगोक्षुर
Difference between शोधन और संस्कार :-

■ शोधन से केवल द्रव्य स्थित दोषों का नाश होता है, किन्तु संस्कार से द्रव्य स्थित विकृतियों का नाश होकर कुछ नवीन एवं विशिष्ट गुणों की उतपत्ति होती है।

पारद के संस्कार :-

पारद संस्कारों की संख्या रसाचार्यो की तीन प्रकार की मान्यताएँ है।
(1) आठ संस्कार (2) अठारह संस्कार (3) उन्नीस संस्कार।

पारद के अष्टादश संस्कार :-

Sno.संस्काररसार्णव, र.र.स., र.से.चू.
1.स्वेदन+
2.मर्दन+
3.मूर्च्छन+
4.उत्थापन
5.पातन
6.रोधन
7.नियामन
8.दीपन
9.गगनभक्षणमान
10.चारण
11.गर्भद्रुति
12.बह्यद्रुति
13.जारणा
14.रञ्जन
15.सारण
16.संक्रामण
17.वेध
18.भक्षण
19.अनुवासनआ.प्र.
पारद के अष्ट संस्कार की विधियाँ :-

(1) स्वेदन संस्कार=

परिभाषा:- क्षार एवं अम्ल औषधियों के साथ पारद को दोला यन्त्र में पकाकर जो कर्म किया जाता है, उसे स्वेदन कहते है। इस पारद का मल शिथिल हो जाता है।

मलशैथिल्यकारकम्।।” (रसे. चू)

(2) मर्दन संस्कार=
परिभाषा:- मर्दन संस्कारार्थ कथित औषधि, अम्ल कांजी के साथ पारद को घोटने की क्रिया को मर्दन कहते हैं।

● इससे पारद में स्थित बाह्य मल का नाश
हो जाता है।

बहिर्मलविनाशनम्।।” (रसे. चू.)

(3) मूर्च्छन संस्कार=

परिभाषा:- मूर्च्छन संस्कारार्थ उक्त औषधियों के साथ पारद को नष्ट पिष्ट हो जाने तक घोटने की प्रक्रिया को मूर्च्छन कहते है।

इससे पारद का विष, वह्नि और मल आदि सर्वदोष नष्ट हो जाते है। पारद को नष्ट पिष्ट करना ही मूर्छन है।

मर्दन करने से पारद अपनी चपलता एवं द्रव को छोडकर नागवर्ण का हो जाता है इस अवस्था को मूू्र्च्छन कहते हैं।

सर्वदोषविनाशनम्।। “‘(रसे. चू. 4/83)

(4) उत्थापन संस्कार=
परिभाषा:- मूर्च्छन संस्कार के क्रम में पारद नष्ट पिष्ट होकर मूर्च्छित हो जाता है। उसे पुनः अपने स्वरूप में लाने की क्रिया को उत्थापन कहते है।

मूर्छाव्यापत्तिनाशनम्।। “(रसे. चू. 4/85)

(5) पातन संस्कार=

परिभाषा:- पातन संस्कार हेतु कथित औषधियों द्वारा पारद का मर्दन करके ऊर्ध्व, अधः एवं तिर्यक्पातन यन्त्र द्वारा पारद को प्राप्त करना पातन कहलाता है।
जिससे पारद स्थित नाग-वङ्ग के सम्पर्क से उत्पन्न कञ्चुक दोषों का नाश होता है।’

पातन के प्रकार :- पारद का पातन तीन प्रकार होता है :
(1) उर्ध्वपातन (2) अधः पातन (3) तिर्यक् पातन

(1) ऊर्ध्वपातन विधि:-

ऊर्ध्वपातन में पारद (Parad) का ऊर्ध्वगमन होता है। इसमें नीचे के पात्र में पारद होता है। उसी पात्र को नीचे से अग्नि देते है। ऊपर के पात्र को जल से ठंडा रखकर ऊर्ध्वपातित पारद को प्राप्त करते है।

(Sublimation)

  • पारद तीन भाग एवं ताम्रचूर्ण एक भाग को खल्व में डालकर आवश्यकतानुसार नींबू स्वरस डालकर पिष्टी हो जाने तक मर्दन करें।
  • इस ताम्र चूर्ण से निर्मित पारद पिष्टी को डमरूयन्त्र के निचले पात्र के तल में लेपकर ऊपर के पात्र को अधोमुख कर निचले पात्र के मुख को इसके मुख में डालकर संधि बन्धन करें।
  • ऊपर वाले पात्र के ऊपरी तल पर मिट्टी का आलवाल बनाकर शीतल जल डाले या आर्द्र वस्त्र रखें।
  • आलवाल के पार्श्व में छिद्र बनाकर एक नली लगावे ताकि आवश्यक होने पर उष्णजल को बाहर निकालकर शीतल जल भर दिया जावें।
  • फिर संधि बन्धन करके इसे चूल्हे पर चढा देवें।
  • अग्नि जलाकर चार प्रहर (12 घण्टे) तक अग्नि द्वारा पाक करें।
  • इसके पश्चात त्स्वाङ्गशीत होने पर यन्त्र की संधि को खोलकर सावधानीपूर्वक ऊपरी पात्र के अन्त तल से पारद को प्राप्त करें।
  • इस पारद को द्विगुण वस्त्र से छान लेना चाहिए।
  • इसमें पारद ऊपर की ओर गमन करता है, अतः इसे उर्ध्वपातन कहते है।

(2) अधःपतन:- (Sublimation)

अधःपातन में पारद नीचे की ओर गमन करता है।
इसमें पारद ऊपर के पात्र में होता है, अग्नि भी ऊपर से दी जाती है। तथा नीचे के पात्र में जल होता है। जिससे अधःपातित पारद को प्राप्त करते हैं।

(3) तिर्यकपातन:- (Distillation)

तिर्यक् पातन में एक पात्र में पारद (Parad) भरकर अग्नि पर रखा जाता है। यह पात्र एक नली से जुड़ा होता है और नली का दूसरा सिरा जलयुक्त पात्र में रखे, जलयुक्त पात्र में वाष्पीभूत पारद शीतल जल संपर्क से द्रवस्वरूप में एकत्र होता है।’

★त्रिविध पातन में जहाँ पारद हो वहाँ अग्नि की व्यवस्था एवं जहाँ पारद को प्राप्त करना हो वहाँ शीतल जल की व्यवस्था की जाती है।

(6) बोधन संस्कार:-

परिभाषा:- स्वेदन संस्कार से पातन संस्कार तक की प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पारद मन्दवीर्य, षण्ढ एवं मरणासन्न हो जाता है। फिर से उसमें वीर्योत्कर्ष के लिए की जाने वाली प्रक्रिया को बोधन कहते है।

मन्दवीर्यत्वात्। (र. ह. तं. 2/16)

(7) नियमन संस्कार:-

परिभाषा:- बोधन/रोधन संस्कार द्वारा वीर्योत्कर्ष प्राप्त पारद के चपलत्व को नियन्त्रित करने हेतु की जाने वाली स्वेदन क्रिया को नियमन संस्कार कहते है।

चपलत्वनिवृत्तये। (र.र.स.)

(8) दीपन संस्कार:-

परिभाषा:- पारद (Parad) में बुभुक्षा उत्पन्न करने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया को दीपन संस्कार कहते है।

पारद की गतियाँ :-

रसरत्नसमुच्चय में पारद (Parad) की पाँच प्रकार की गतियों का उल्लेख है-

(1) जलगति (2) हंसगति (3) मलगति
(4) धूम गति (5) जीवगति

  1. जलगति– पारद (Parad) को मर्दन, मूर्च्छन आदि संस्कारोपरान्त उष्ण जल, के साथ प्रक्षालन किया जाता है। प्रक्षालन करते समय पारद के सूक्ष्म कण भी जल के साथ निकल जाते है। जिनको भ्रमवश जल मान लेने के कारण पारद के मान में कमी हो जाती है।
  2. हंसगति– पारद को अन्य पदार्थों के साथ मर्दन करते समय, एक पात्र से दूसरे पात्र में डालते समय शीघ्रता करने से सूक्ष्मकण उछलकर चले जाते हैं। हंस पक्षी के समान पारद के श्वेत शुभ्रकण उड़कर गिर जाने से पारद के भार में कमी आ जाती है। इस क्रिया को हंस के उछलने या उड़ने की क्रिया से साम्य होने से इसे पारद की हंसगति कहते है।
  3. मलगति– नागवङ्गादि पारद के बालों को दूर करने के लिए पारद की पातनादि क्रियाएँ की जाती है। उस समय मलों के साथ मिलकर कुछ पारद निकल जाता है। मर्दनादि के पश्चात् उष्ण जल, काजी आदि द्रवों द्वारा प्रक्षालन करने पर मर्दनादि के कल्क द्रव्यों में कृष्ण धूसर आदि वर्णों का मलीयांश निकलता है, उसके साथ पारद की हानि मल के साथ निकल जाने के कारण होती है। इसे ही मलगति कहते है।
  4. धूमगति– उत्थापन, पातन, गन्धक जारणा आदि प्रक्रियाओं के समय तथा पारद की मूर्च्छना के समय गन्धकादि के साथ अग्नि तीव्र हो जाने से असावधानीवश/ स्वभावतः पारद वाष्प बनकर धूमरूप में उड़ जाता है। और पारद के वजन में कमी हो जाती है। धूम के रूप में निकलते हुए पारद की इस गति को धूमगति कहते है।
  5. जीवगति– उपरोक्त विचारों गतियाँ प्रत्यक्ष दृश्य होती है, किन्तु चारों गतियों के अतिरिक्त पाँचवी गति जीव गति होती है, जो अदृश्य होती है। इस गति को मन्त्र ध्यान आदि से ही रोका जा सकता है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर से आत्मा निकलते समय दिखाई नहीं देती है। ठीक उसी प्रकार प्रयोग के क्रम में पारद के निकलने की इस गति को न कोई देख पाता है और न ही पारद की इस गति को रोक सकता है।
पारद बंध :-

जिन जिन प्रक्रियाओं को करने पर पारद (Parad) की चंचलता और दुर्ग्रहत्व (पारद की ग्रहण करने में होने वाली कठिनाई ) दोष का नाश हो, उन प्रक्रियाओं को पारद का बन्धन कहते हैं।
पारद के 25 प्रकार के बन्धन हैं :-

  1. हठ बन्ध
  2. आरोट बन्ध
  3. आभास बन्ध
  4. क्रियाहीन बन्ध
  5. पिष्टिका बन्ध
  6. क्षार बन्ध
  7. खोट बन्ध
  8. पोट बन्ध
  9. कल्क बन्ध
  10. कज्जली बन्ध
  11. सजीव बन्ध
  12. निर्जीव बन्ध
  13. निर्बीज बन्ध
  14. सबीज बन्ध
  15. श्रृंखला बन्ध
  16. द्रुति बन्ध
  17. बालक बन्ध
  18. कुमार बन्ध
  19. तरुण बन्ध
  20. वृद्ध बन्ध
  21. मूर्ति बन्ध
  22. जल बन्ध
  23. अग्नि बन्ध
  24. सुसंस्कृत बन्ध
  25. महा बन्ध
  26. जलूका बन्ध (कुछ आचार्य 26 वां बन्ध मानते हैं।)

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