Categories
Swasthavrit

ऋतु सन्धि (Ritu sandhi), ऋतु हरितकी व ऋतु विपर्यय

परिभाषा:

ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहावृतुसन्धिरिति स्मृतः। (अ.ह. सू. 4/15)
दो ऋतु के जोड़ को ऋतु संधि कहते है। वर्तमान ऋतु का अन्तिम सप्ताह और आने वाली ऋतु का प्रथम सप्ताह अर्थात यह चौदह दिन (14 दिन) का समय ऋतु संधि है।


ऋतु सन्धि चर्या :
तत्रपूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात्। असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात्।। (अ.इ.सू. 4/6)
ऋतु सन्धि में वर्तमान ऋतुचर्या का क्रमश: धीरे-धीरे परित्याग तथा आने वाले ऋतुचर्या का क्रमशः धीरे-धीरे सेवन करना चाहिए। क्योंकि वर्तमान ऋतुचर्या का सहसा त्याग तथा आगामी ऋतुचर्या का सहसा सेवन करने से असात्म्य जन्य व्याधि हो जाती है।


ऋतु संधि में पादांशिक क्रम का विधान ( चरक अनुसार)

  1. एकान्तर (1 दिन)– 1 भाग (आगामि ऋतु)
    3 भाग (वर्तमान ऋतु आहार-विहार)
  2. दव्यांतर (2-3 दिन)– 2 भाग (आगामी ऋतु आहार विहार)
    2 भाग( वर्तमान ऋतु आहार विहार)
  3. त्रीयंत्र (4, 5 ,6 दिन) – 3 भाग (आगामी)
    1 भाग (वर्तमान)
    (7 दिन)- 4 भाग (आगामी)

पादांशिक क्रम का महत्त्व :

कमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचित गुणाः। सन्तो यान्त्यपुनर्भावमप्रकम्प्या भवति च । (च. सू. 7/38)
पदांशिक क्रम द्वारा अपचित दोषों (निर्हरित) को पुन: उत्पत्ति नहीं होती एवं क्रमशः हितकर आहार विहार के सेवन से उतपन्न किये गये गुण स्थिर बने रहते हैं।


यमदंष्ट्रा काल: यह काल ऋतु सन्धि के समान है सन्धि हर दो ऋतु के बीच में आता है, लेकिन यमदंष्ट्रा काल का वर्णन कार्तिक मास एवं मार्गशीर्ष के बीच के समय में किया गया है.

कार्तिकस्य दिनान्यष्टवग्रहणस्य च यमदंष्ट्रा समाख्यातः स्वल्पभुक्तोहि जीवितः।। (शा. स. 2/30
कार्तिक मास के अन्तिम आठ दिन और मार्गशीर्ष के प्रथम आठ दिन (कुल 16 दिन) को यमदंष्ट्रा काल कहा गया है।

यहाँ यमदंप्ट्रा का अर्थ है यम के दंष्ट (दांत) का जैसे शरीर पर हानि कारक प्रभाव होता है।
इस समय अल्पआहार सेवन के उल्लेख है। यमदंष्ट्रा काल में आहार, विहार का ऋतुसन्धि काल की तरह पादाशिक क्रम पालन करना चाहिये।

ऋतु हरितकी
रसायन कर्म में उपयोग होने से विभिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिनन अनुपान से लेना चाहिये।

• वर्षा- सेंधव
• शरद- शर्करा
• हेमंत- शुंठी
• शिशिर- पिप्पली
• वसंत- मधु
• ग्रीष्म- गुड

ऋतु विपर्याय

ऋतु विपर्याय एवम ऋतु सात्म्य यह शब्द एक दुसरे से विपरीत है। इन शब्दों का वर्णन ब्रहत्रय और लघुत्री है

इसे ऋतु विपरीत या वैपरित्य भी कहा जाता है।


ऋतु विपर्याय का सन्दर्भ :
रोगों को साध्य असाध्यता का वर्णन करते समय कहा है कि ऋतु विपरीत सें व्याथि असाध्य हो जाती है। इसका अर्थ है, शरद् में प्राकृत रूप से पित्त का प्रकोप होता है, हेमन्त में श्लेष्म का संचय एवम् ग्रीष्म में पित्त का संचय होता है। परन्तु शरद ऋतु में वात दोष का प्रकोप , हेमंत में पित्त दोष का प्रकोप एवम् ग्रीष्म में कफ का प्रकोप होना ही ऋतु विपर्याय है।

परिभाषा(भाव प्रकाश के अनुसार)
ऋतु विपर्याय का अर्थ है कल के विपरीत आहार-विहार का सेवन करना या ऋतु विपरीत लक्षण एवं प्रभाव दिखना (Comic effect) ही ऋतु विपर्याय कहलाता है।

Cosmic effect (अनिवार्य हेतु)– शीत ऋतु में अधिक उष्णता होना, अधिक वायु का बहना, अधिक धूप पड़ना आदि। उष्ण ऋतु में अत्यन्त वर्षा होना, अत्यन्त शीत लगना। व्याधि उत्पन्न करता है।


प्रज्ञा अपराध ( scathefull action)-
वसंत में कफ का प्रकोप होता है. इसके विपरीत आहार विहार सेवन जैसे दिवास्वप्न, गुरु, अम्ल, मधुर आहार सेवन।
हेमंत में प्रवात सेवन, प्रमिताहार सेवन।
ग्रीष्म में धूप सेवन के पश्चात तुरंत शीतल जल पीना।
शीत काल में शीत आहार का सेवन।
उष्ण काल में अधिक धूप सेवन, कटु आहार सेवन। व्याधियां उत्पन्न करता है।

ऋतु विपर्याय का प्रभाव:
अतिसार, कुष्ठ आदि त्वक विकार प्रतिश्याय ज्वर बल कम होना आदि विकार व्यक्त होते हैं।

By Bhawna Tourani

Belonging to Ajmer, Rajasthan. Currently persuading B.A.M.S. 3rd Prof. From Gaur Brahman Ayurvedic College. My Strong point is in Ayurvedic Portion so will help you in that. While Studying Ayurveda for last 2 years i developed hobby about learning about Ayurvedic medicines, also good at reading.

One reply on “ऋतु सन्धि (Ritu sandhi), ऋतु हरितकी व ऋतु विपर्यय”

Leave a Reply