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Ritucharya / ऋतुचर्या : Science of Seasonal Habits for Well Being

प्रस्तुति :

कालो हि नाम भगवान् स्वयम् भूरनादिमध्यनिधनोऽत्र।।।

काल को भगवान कहा जाता है, जो किसी से उत्पन्न ना हो। काल आदि, मध्य और अंत रहित है। 

काल विभाजन

 काल विभाग इस प्रकार है-

  • अक्षिनिमेष-1 मात्रा
  • 15 मात्रा-1 काष्ठा
  • 30 काष्ठा-1 कला
  • 2 नाड़ीका-1 मुहूर्त
  • 4 याम-1 दिन
  • 4 याम-1 रात
  • 15 दिन रात-1 पक्ष
  • 2 पक्ष-1 मास
  •  3 ऋतु-1 अयन
  • 2 मास-1 ऋतु 
  • 2 अयन-1 वर्ष

निरुक्ति:-

ऋतु चर्या, ऋतु और चर्या दो शब्दों से बना है, यहाँ ऋतु का अर्थ काल से है। ।। 

परिभाषा:-

ऋतु के अनुसार आहार विहार का पालन करना ही ऋतु चर्या है। 

विभाग:- काल को दो विभागों में विभाजित किया गया है। यह अयन दो है। इस विभाजन शीत, उष्ण, वर्षा लक्षण और चन्द्र व सूर्य के मार्ग गमन के आधार पर किया गया है। 

 अयन दो हैं, उत्तरायण और दक्षिणायन प्रत्येक अयन में तीन ऋतुएँ हैं।

उत्तरायण (आदान काल) :

परिभाषा:

उदग उत्तर दिशं प्रति, अयनं गमनमुदगयनम्।। 

 जब सूर्य का गमन उत्तर दिशा में प्रारम्भ होता है, उस काल को उत्तरायण काल कहा जाता है। उत्तरायण काल को ही आदान काल कहा जाता है, क्योंकि 

आददाति क्षययति, पृथिव्याः सौम्यांशं प्राणिनां च बलमित्यादानम्।अयनमुत्तरं सवितुरुत्तरमार्ग प्रतिपत्ति उत्तरायणम् आदानं जानीयात्।।।

पृथ्वी के स्नेहांश एवम् प्राणियों के बल को खींच लेने के कारण इस काल को आदान काल कहते हैं। अग्नि गुण प्रधान काल है।

उत्तरायण काल में :-

  • शिशिर ऋतु ( मकर एवम् कुंभ)- तिक्त रस प्रधान
  • वसंत ऋतु (मीन एवम् मेष)- कषाय रस
  • ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ एवं आषाढ़)- कटु रस

 इस काल में सूर्य के उत्तरदिशा में चलने से सूर्य की किरणे- अत्यन्त तीक्षण एवं उष्ण होती है।

वायु उष्ण एवं रुक्ष होती है। तथा (भूमि का सौम्यगुणक्षीण) प्राणियों का बल क्षीण हो जाता है। शिशिर, वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुएँ आदानकाल के अन्तर्गत आती हैं। आदान काल के अन्तर्गत छ: मास होते हैं।

दक्षिणायन :

परिभाषा:

दक्षिणा दिशं प्रति अयन दक्षिणायन ।। 

इस काल में सूर्य का गमन दक्षिण दिशा से प्रारम्भ होता है. इसे दक्षिणायन काल कहा गया है। 

 प्राणियों में बल एवं आप्य् अंश की उत्पत्ति (वृद्धि) करने के कारण इसे विसर्ग  काल कहा जाता है। 

दक्षिणायन काल की ऋतुएँ :

 वर्षा, शरद तथा हेमन्त नामक तीन ऋतुएं, दक्षिणायन में होते हैं। 

विसर्ग काल की ऋतुओं का राशि सम्बन्ध :

  • वर्षा-1, नभ (श्रवण)-कर्क 2. नभस्य (भाद्रपद) सिंह 
  • शरद-1. ईश-(आश्विन)कन्या 2. उज़ौ-(कार्तिक) तुला 
  • हेमन्त-1. सह-(अगहन/मार्गशीर्ष)-वृश्चिक 2, सहस्य-(पौष)-धनु 

विसर्ग काल लक्षण :

सौम्यगुण वाला सोम (चन्द्रमा) बलवान रहता है। सूर्य का बल क्षीण हो जाता है। बादलों का आच्छादित होना, वर्षा का होना। शीतल वायु का बहना। (इन सब कारणों से भूमि का सन्ताप शान्त होता है।) इसके कारण वर्षा ऋतु में-अम्ल रस ।शरद ऋतु में-लवण रस। हेमन्त ऋतु में-मधुर रस बलवान होता है। 

शारीरिक स्थिति-प्राणियों के देह बल अधिक होता है।

Comparitive table :-

शिशिरवसंतग्रीष्मवर्षाशरदहेमंत
कालआदान आदानआदानविसर्पविसर्पविसर्प
मासमाघ – फाल्गुण चैत्र- वैशाखज्येष्ट – आषाढश्रावण – भद्रपद अश्विन – कार्तिक मार्गशीर्ष – पौष
सूर्य बलअल्पमध्यउत्तमउत्तममध्यअल्प
चन्द्र बलउत्तममध्यअल्पअल्पमध्यउत्तम
शारीरिक बलउत्तममध्यअल्पअल्पमध्यउत्तम
दोष संचयवातपित्तकफ
दोष प्रकोपकफवातपित्त
दोष प्रशमनकफवातपित्त
रस प्रधानतिक्तकषायकटु अम्ललवनमधुर
रस ग्रहण का आदेश लवन, कटु, मधुर
आहार – विहारगर्मशीतो उष्णशीतशीतो उष्णशीतो उष्णगर्म

1. हेमन्त ऋतुचर्या : (मार्गशीर्ष-पौष)

 

 हेमन्तः हन्ति लोकान शैत्येनेति। 

शीत के द्वारा पृथ्वी में स्थित सभी मनुष्यों को जो मारता है, वह हेमन्त है जिसके अन्त में हिम होता है, इसलिए मनुष्य उसे हेमंत कहते हैं।

लक्षण:

हेमन्त ऋतु में दिशाएँ धूम के समान धूम्र (मलिन), रज से व्याप्त हो जाती है। तुषार से दिशाएं एवं सूर्यमण्डल आविल/मालिन ही जाता है। उत्तरीय वायु गमन होती है। उत्तरीय वायु, शीत, वृक्ष होने से रोमहर्ष उत्पन्न करती है। प्रियुंग, पुन्नाग, लवली आदि सुन्दर फल खिलते हैं। हाथी, अजा, महिष. घोड़ा और सूकर मदोन्मत हो जाते हैं। नदियाँ बर्फ से ढक जाती है। नदियों के जल में से वाष्प निकलता है।मछलियाँ तथा जलचर पक्षी छिप जाते हैं। कूप का जल उष्ण हो जाता है। रात्रि लम्बी होती है।

 शरीर पर प्रभाव

 बलिन: शीतसंरोधाद्वेमन्ते प्रबलोऽनलः । भवत्यल्पेन्धनो धातून स पचेद्वायुनेरितः। अतो हिमेस्मिन्सेवेत् स्वाद्वप्ललयणात्रसान् |

यहाँ काल स्वभाव के कारण (शीत) रोम कूप शीत से अवरुद्ध होने के कारण बलवान हो जाती है। प्रदिप्त अग्नि स्वभाव आदि से गरु आहार को पचाने में समर्थ होती है। यदि आहार रूपी ईधन कम लिया जाता है, तो वह अग्नि वायु द्वारा प्रेरित होकर रस आदि शरीरस्थ धातुओं को पचाने लगती है। 

आहार   

 हेमन्त (शीत) ऋतु में रात लम्बी होने के कारण प्रात: काल उठते ही भूख लगती है। इसलिए समय पर उठकर शौच आदि क्रिया करने के बाद आहार सेवन करना चाहिये। 

आहार गुण:

रस में-मधुर, अम्ल, लवण रस प्रधान होने चाहिये।  गुण-स्निग्ध, गुरु आहार सेवन, उष्ण भोजन। 

सेवनिय आहार:

  • शालिधान्य-नवशालि..
  • शिम्बी धान्य- माष
  • मांसवर्ग -बिलेशय (बिलों में रहने वाले) गोधा, साही आदि। औदक (कछुआ, मछली आदि) आनूप (महिष) आदि प्राणियों का भुना हुआ मांस।
  • इक्षुवर्ग-गुड़, पीठी (पिष्ट) से बना हुआ आहार। इक्षु विकार-गुड़, शर्करा, राव, फाणित
  • शर्करा से बना हुआ-पिष्ठान, मिश्री, मधु। मद्य वर्ग-विविध प्रकार की तीक्ष्ण मद्य, प्रसन्ना, सीधु। गोरस वर्ग-दूध, तो, मलाई रखड़ी आदि।
  • जल वर्ग-उष्ण  जल। 

विहार- स्वेदन ,पाद आघात, अभ्यंग, कुश्ती, अंजन, आतप सेवन।

लेपन– कुमकुम, कस्तूरी उष्ण गुण प्रधान द्रव्यों का लेप करे।

 स्नान-मंद उष्ण जल वारि कटाह (टब) में अवगाहन ,अगर धूप सेवन ,जूतों व जुराब को सदैव धारण करें, उष्ण गर्भगृह में रहना, उष्ण भूमिग्रह (तहखाना)।

वस्त्र– प्रावार (रूई से बने भारी वस्त्र) अजिन (सुखकरी रोम वाले चर्म) कोषेय (रेशमी वस्त्र) प्रवेणी (सन, जूट  से बने वस्त्र) कुथक (उनी रंग-बिरंगा कम्बल आदि वस्त्र बिछाकर बैठना।) वस्त्र प्रयोग करें। 

निवास विधि

जलते अंगारों से तपे हुए घरों में व गर्भ भूवेश्म (घर के भीतर बनी हुई गुफा) अर्थात् भूमि के नीचे के घरों में निवास करें।

अहितकर आहार विहार:

आहार– लघु एवं वातवर्धक आहार, अल्पाहार , कटु कषाय आहार, शीतल आहार।

विहार- (तीव्र वायु से सेवन) व दिवा शयन 

2. शिशिर ऋतुचर्या : (माघ-फाल्गुन)

परिभाषा:-शशति गच्छति वृक्षादिशोभायरमात।।

 शशक (खरगोश) आदि जीव जंतुओं का विवरण एवं वृक्ष पुष्पादियों से सुशोभित हो जाता है, यह शिशिर है। 

पर्याय: कम्पन शीत हिमकूट आदि। 

 ऋतु लक्षण 

शिशिर ऋतु से मेघ वायु और वर्षा के कारण शीत अधिक होता है। आदान काल होने से रुक्षता अधिक होती है। 

चर्या पालन-हेमन्त ऋतु चर्या का पालन अधिक मात्रा में करना चाहिए।

3. वसंत ऋतु चर्या :

पर्याय– पुष्प समय, सुरभि (शब्द रत्नावली) ऋतुराज

आदान काल में रूक्षता, रस और दौर्बल्य  सारणी–  मध्यरूक्षता ,कषायरस एवं मध्यदौर्बल्य।

  • भारतीय मास- चेत्र वैशाख
  • अग्रेजी महीना-  मार्च अप्रैल
  • सूर्य बल- पूर्णतर
  • चन्द्र बल-  क्षीणतर
  • रस की वृद्धि- कषाय
  • प्राणी बल- मध्य बल
  • प्रकुपित दोष- कफ़

वसंते निचितः श्लेष्मा दिनकृदभाभिरीरितः कायाग्रिं बाधते रोगांस्ततः प्रकुरूते बहुन॥ तस्माद् वसन्ते कर्माणि वमनादी कारयेत्।

वसंत में पञ्चकर्म-विधान- हेमन्त काल में  संचित हुआ कफ वसन्त काल के आने पर सूर्य की किरणों से पिघल कर ( स्रोतों द्वारा शरीर में  फैलकर ) जठराग्नि को मन्द कर देता है और अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोगों को उत्पन करता है इसलिए वसंत ऋतु में काफशोधनआर्थ वमन आदि पंचकर्म करने चाहिए।।

 गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नं वरज्यते।

वसंत ऋतु में भारी पदार्थ, अम्ल पदार्थ, सिनिग्घ और मधुर पदार्थ का आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए तथा दिन में सोना भी नहीं चाहिये।

वसन्त ऋतु का आहार-विहार- व्यायाम उबटन लगाना, धूमपान, कवल धारण,

अंजन लगाना, गुनगुने जल से हाथ पैर धोना, या स्नान करना। चंदन और अगर का लेप लगाना चाहिए। आहार में जॉ का आटा, शरभ ( हरिण भेद ) का मांस खरगोश,  काला हिरण, लावा, बटेर, और सफेद तीतर का मांस खाए। सिधू माध्विक का पान उत्तम है। कुसुमित वन उपवन का अनुभव करना चाहिए।

ऋतु लक्षण–  दक्षिण दिशा से वायु बहती है। वृक्षों में नये पत्ते तथा नई छाल आती है।कोयल और भ्रमरों के आलाप व्याप्त हो जाते है। 

 हितकर आहार-(कफ दोष के शमन या शोधनार्थ आहार)

आहार गुण

  • रस- तीक्ष्ण कटु कषाय
  • गुण- रुक्ष लघु उष्ण
  • शूक धान्य-पुराण यव, पुराण गोधूम।
  • शमीधान्य-मुंग, कुलत्थ, नीवर, कोद्रव (कोदो) 
  • मांसवर्ग- जांगल पशु पक्षियों का मांस सेवन, विष्किर मांस (बिखेर कर खाने वाले), शरभ, खरगोश हरिण, लावा, बटेर सफेद तीतर।
  • शाक वर्ग-तिक्त रस शाक, परवल पत्र,  बैगन (वार्ताक), करेले के शाक। 
  • मद्य वर्ग-मध्वासव, द्राक्षारिष्ट, सीधु, अरिष्ट
  • इक्षुवर्ग-मधु (क्षौद्र)

 हितकर विहार-कफदोष को शीघ्र निकालने के उपाय, शोधन कर्म- तीक्ष्ण वमन ,निरुहन बस्ति आयात (दण्ड-बैठक),धूमपान

व्यायाम-नियुद्ध (बाहु युद्ध), अध्व और शिलानिर्घात (पत्थर फैकना) रूपी व्यायाम करना चाहिये।

लेप- चन्दन लेप – (चरक)

 केसर, कस्तूरी, अगरु आदि उष्ण द्रव्य लेप (सुश्रुत) 

कपूर, अगरु, चन्दन, कुंकुम-अनुलेप (वाग्भट)

अहितकर आहार

रस-अम्ल, मधुर, लवण

 गुण-स्निग्ध, गुरु, (उदाहरण – घृतपान)

अहितकर विहार-दिवाशयन।

 4. ग्रीष्म ऋतु चर्या ( ज्येष्ठ-आषाढ) 

 परिभाषा :- ग्रसु अटने+ग्रीष्म:। सूर्य जगत की रस को ग्रसित करता है,इसे ग्रीष्म ऋतु कहते है। 

पर्याय: निदाध

ऋतु लक्षण:

तीक्ष्णं शुरतितीक्ष्णांशुग्रीप्मे संक्षिपतीव यत् प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते ।।

इस ऋतु में सूर्य जगत के स्नेह का ग्रहण (आदान) अधिक मात्रा में कर लेता है। सूर्य तेज किरणों वाला होता है। अतसी पुष्प के समान चमकता है। भूमि और दिशाएँ जलती हैं। नैऋत्य दक्षिण-पश्चिम) कोण से बहने वाली वायु सुखकर होती है। आतप से पीड़ित प्राणियों हाथी, महिष नदियों में उतर कर नदियों को मैला कर देते हैं। सूर्य की किरणें नदियों के जल को सुखा देती है। वृक्ष के पत्ते झड़ जाते हैं, वृक्ष छाया हीन हो जाते हैं। पत्ते गिर जाते हैं। (जीर्ण होने के बाद) व छाल सूख जाती है। लताएँ सूख जाती हैं। शरीर लक्षण :

सूर्य की तीक्ष्ण किरणें संसार के जलीय तत्व को सुखा देता है, जिसके कारण शरीरस्थ जलीय अंश, कफ धातु क्षय होने लगता है। वात दोष की वृद्धि होती है।

हितकर आहार:

  • रस-मधुर  गुण-लघु, स्निग्ध, शीतल, द्रव। शूकधान्य-शालि चावल, गोधूम.
  • पान-शर्करा मिश्रित शीतल पानी, पञसार पान रसाल, राग, खाण्डव (खट्टे मधुर नमकीन रसों के  घोल मन्थ (सत्तू) का घोल पिये। मधुर शीत द्रवान्त। नारियल जल, द्राक्षाजल।
  • मांस-जंगल पशु पक्षी, मांस हरिण मांस, तीतर, बटेर आदि।
  • दुग्ध वर्ग-घृत, दुग्ध 
  • मद्यवर्ग-मद्यपान न करे। यदि पीना हो तो थोड़ा पीयें अथवा उसमें बहुत जल मिलाकर पिये।

हितकर विहार

– फूलों एवं रत्नों की माला धारण करें। पंखों की हवा (शीतल हवा), शीतल जल से बार बार सिंचाई करे। चन्दन लेपन करे। पतले एवं हलके वस्त्रों का धारण। स्फटिक माला धारण

 वर्जित आहारविहार आहार रस-लवण, कटु, अम्ल, मद्य व मधु वर्जित है। 

विहार-व्यायाम, व्यवाय (अथवा 15 दिन में एक बार सेवन करे।) धूप सेवन (आतपसेवन)

5. वर्षा ऋतु चर्या : (श्रावण-भाद्रपद)

निरुक्तिः 

वर्षों वर्षणामस्त्यास इतिः ॥

जिस ऋतु में वर्षा (बारिश) एवं वायु (मानसून) वर्षण होता है. वह वर्षा ऋतु है। 

पर्याय – प्रावट, जलार्णव, मेघागम, घना काल  

वर्षा ऋतु लक्षण:

सभी प्रकार के अनाज उत्पन्न होते हैं। आकाश नीले बादलों से आच्छादित एवं वर्षा के जल से पुणकरणी (बावली) की सीढ़ियां डूब जाती हैं और कमल खिल जाते हैं। नदियाँ समुद्र के सदृश दिखाई पड़ती है।  मेघ मन्द गरजने लगते है।मयूर तथा मेंढ़क (दर्दर) बोलने लगते हैं। इन्द्रगोप, इन्द्रधनुष चमकने लगता है। कुटज के फल खिते हैं ।

आदान काल (शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म) में मनुष्यों का शरीर एवं जठराग्नि अत्यंत दुर्बल राहती है वर्षा ऋतु आ जाने पर दूषित वातादि दोषों से दुष्ट जठराग्नि और भी दुर्बल हो जाती है। इस ऋतु  में भूमि से वाष्प निकलने से, आकाश से जल बरसने से और जल के अम्ल विपाक होने से, अग्नि अत्यंत क्षीण होकर वातादिक दोष को कुपित कर देती है।

 हितकर आहार:

 साधारण आहार-विहार जो वातादि दोष शामक व जठराग्नि वर्धक हो, इसका सेवन करें। 

आहार गुण:

रस-अम्ल, लवण रस ।गुण-स्निग्ध, लघु ।शूकधान्य-पुरान जॉ, परान गेहूँ, परान शालि सेवन । शिम्बी धान्य-मुँगादि दालों के यूष, चने का सेवन । मांस आहार-जाल मांसरस। हरिणादि मांस का सेवन।

पान

  • मधु मिलाकर अल्प मात्रा में माधविक
  • अरिष्ट आसव (पुरान) 
  • जल को गरम करके शीतल किया हुआ जल पीये। 
  • कूप एवं सरोवर का जल पीना चाहिए। मस्तु, कालानमक मिश्रित पंचकोल (पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक, नागरमोथा) के चूर्ण को मांस रस में मिलाकर सेवन करें।

हितकर विहार:

प्रघर्षण (देह का घर्षण)  आस्थापन (निरुह बस्ति) उदर्तन (उबटन) लेप-चन्दन आदि संबंधित द्रव्य लेप। पवित्र एवं हल्के वस्त्र धारण , सुगंधित पुष्प माला धारण क्लेदरहित स्थान में निवास।

अहितकर आहार विहार :

नंगे पैर चलना, अधिक मैथुन व रात्रि जागरण वर्जित है, दिवास्वप्न।

आहार-नदी जल,  (मट्ठा), सत्तू, उदमन्यथ (जल – शर्करा मिश्रित सत्तू)

 विहार-व्यायाम (अधिक परिश्रम) 

6. शरद ऋतु चर्या : (आश्विन-कार्तिक):

परिभाषा :-

 पर्याय शारदा, काल ग्रभात, वर्षावसन, मेघान्त प्रावृइल्ययः। 

शरद ऋतु लक्षण :

पृथ्वी थोड़ी-थोड़ी कीचड़ युक्त, खेती धान्यों से सुशोभित, दिशाएं निर्मल हो जाती है आकाश सफेद बादलों से व्याप्त होता है। काश, सप्तपर्ण, कुमुद खिलने लगते हैं। सूर्य को तीक्ष्ण किरणें व्याप्त होती है। झीलों में तरंगे उठती है।

 शरीर लक्षण :

 वर्षा ऋतु में शीत सात्मय हुआ व्यक्ति में संचित पित्त, शरद् ऋतु को सूर्य की किरणों से प्रकूपित हो जाता है।

हितकर आहार सेवन :

  • रस-तिक्त, स्वादु  रस युक्त।
  • गुण-शीत व लघु आहार।
  • शुकधान्य-शालि चावल, गेंहू, जो, साठी चावल। 
  • शिंबी धान्य-मूंग दालों का सेवन ।
  • क्षीरवर्ग- दही, खोया, मलाई. शर्करा, सेवन (सुश्रुत)।
  • शाक आहार- परवल। 
  • फल-आमलकी      
  • मांस सेवन-लाव  ककपनज़ल. उरभ्र  बारहसिंगा खरगोश मांस का सेवन (जंगल प्राणी मांस)
  • पान-हंसोदक सेवन, जल-सभी प्रकार के भूमि जल श्रेष्ठ है-शर्करा जल व मधु।

हितकर विहार 

 तिक्त घृत सेवन-महा तिक्त घृत, पंच तिक्त घृत, पंचतिक्त गुग्गुल घृत, ये पित का शोधन करते है।

विरेचन।  रक्तमोक्षण।

लेप-चन्दन, ऊषिर, खस, कपूर लेप। 

माला धारण-मोतियों की माला,चुने से पुते हुए भवन की छत पर बैठना। 

अहितकर आहार विहार :

  • अनूप मांस सेवन (मछली आदि)
  • वसा, तैल, सेवन
  • भरपेट भोजन, तीक्ष्ण मद्य सेवन अहित है।

विहार:

साफ-सुधर वस्त पहनना। चन्द्रमा के किरणों का सेवन करना।

भाप सेवन, ओस का सेवन, दिवा शयन, पूर्वी वायु सेवन अहित है।

हंसोदक:

हंसोदक, शरद ऋतु चर्या में बताया गया है। यह श्रेष्ठ जल पान है, जो मलिन रहित है।

निरुक्ति:

हंससेवायोग्यं हसोदकं, हंसाः किल विशुद्धमेवोदकं भजनते।

हंस शुद्ध जल का ही सेवन करता है। इसलिए हंस के सेवन योग्य जल को हंसोदक कहा गया है। इस तरह अमृत समान राख निर्मल जल, शरद ऋतु में पाया जाता है।

परिभाषा

चरक के अनुसार:

दिवासूर्याशुसन्तप्तनिशिचन्द्रांशुशीतलम्। कालेन पक्वं निदॉषमगस्त्येनाविधीकृतम्। हंसोदकमिति ख्यातं शारदं विमलं शुचि।

 वाग्भट के अनुसार :

तप्तं तप्तांशुकिरणैः शीतं शीतांशुरश्मिभिः ॥ समन्तादप्यहोरात्ररामगस्त्योदयनिर्विषम् । शुचि हंसोदकंनाम निर्मलं  मलिज्ज जलम। 

 दिन में स्वाभाविक रूप से सूर्य की किरणों से तस ( गरम) हुआ और रात्रि में चन्द्रमा को किरणों से के होने के प्रभाव से विषरहित है जल हंसोदक कहा जाता है।

हंसोदक गुण :

शुचि हंसोदके नाम निर्मल मलइज्जलम । ना अभिष्यन्दि न वा रुक्ष पानादिष्चमूतोपम् ।

 शुचि , निर्मल, निविष, दोष रहित, दोष नाशक, न रूक्ष ।

हंसोदक उपयोग :

स्नानपानावगाहेषु शस्यते तद्यथाऽमृतम्।। 

  • स्नाना के लिए
  • पीने के लिए

अवगाहन कार्यों में अमृत के समान फल देने वाला है।

प्रावट ऋतु

विंध्य के दक्षिण भाग में वृष्टि अधिक होने से और शीत कम पड़ने से वर्षा ऋतु की प्रावट (वर्षा का प्रथम काल) और वर्षा यह दो भेदों में मानते हैं ।। 

विन्ध्य दक्षिण भाग में ऋतुएँ- वस्नत, ग्रीष्म, प्रावट, वर्षा, शरद, हेमंत।

विंध्य के उत्तरी भाग में ऋतु- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत।

7. प्रावृट् ऋतु चर्या :

 ऋतु लक्षणः आकाश मण्डल मेघ से व्याप्त हो जाते हैं। वायु पश्चिम दिशा से बहती है। पृथ्वी कोमल और श्याम रंग की घास से व्याप्त हो जाती है। इन्द्रगोप चमकने लगती है। कदम्ब, नीम, कुटज, सर्ज, केतकी से मौसम भूषित रहता है।

सेवनिय आहार

रस-मधुर, अम्ल, लवण,

गुण-अभिष्यन्द, गुरु

आहार

  • तैल सेवन
  • मन्द उष्ण दुग्ध, घृत सेवन
  • औषध सिद्ध मांस रस सेवन 
  • पुरान गेहूँ सेवन करे।
  • पुराना शालि 
  • मद्यवर्ग-पुराना मद्य ,पुराण मैरेयक
  • जल-उष्ण जलपान

हितकर विहार

वातनाशक उपाय, स्नेहन, स्वेदन, निरुह बस्ति

अहितकर आहार

नवीन अन्न वृक्ष, शीतलं अन्न/आहार शीतल जल, नदी जलं

वृज्य विहार

धूपसेवन, दिवा शयन, व्ययाम, स्त्री संभोग।

साधारण ऋतु ( शोधन योग्य) 

शरद् ऋतु-पितप्रकोप- विरेचन एवं रक्तमोक्षण

प्रावट ऋतु-वातप्रकोप -बस्ति कर्म ।

वसन्त ऋतु-कफ प्रकोप-तीक्ष्ण वमन, तीक्ष्ण नस्य कर्म। 

By Bhawna Tourani

Belonging to Ajmer, Rajasthan. Currently persuading B.A.M.S. 3rd Prof. From Gaur Brahman Ayurvedic College. My Strong point is in Ayurvedic Portion so will help you in that. While Studying Ayurveda for last 2 years i developed hobby about learning about Ayurvedic medicines, also good at reading.

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