जो सम्पूर्ण शरीर तथा मन को पीड़ित करता है, उसे शल्य (Shalay) हैं।
आशुगमनार्थक ‘शल् धातु’ से यत् प्रत्यय जोड़कर शल्य शब्द निष्पन्न होता है। इस अध्याय में लोह आदि शल्य के लक्षणों तथा उनको निकालने के उपायों का वर्णन किया जायेगा।
वक्रर्जुतिर्यगूध्ध्वाधः शल्यानां पञ्चधा गतिः।
शल्य (Shalay) की गतियां = शरीरावयवों में प्रविष्ट होते समय शल्यों की गति पांच प्रकार से होती है।
- वक्र (टेढ़ी)
- ऋजु (सीधी)
- तिर्यक् (तिरछी)
- ऊर्ध्व (ऊपर की ओर )
- अधः (नीचे की ओर)।
ध्यामं शोफरुजावन्तं सवन्तं शोणितं मुहुः ॥ १ ॥
अभ्युनतं बुद्दवत्पिटिकोपचितं व्रणम्। मृदुमांसं च जानीयादन्तःशल्यं समासतः।।
१. अन्तःशल्य के लक्षण:-
संक्षेप से अन्तःशल्य (भीतर गये हुए शल्य) के ये लक्षण होते हैं। ध्याम ( काला या मलिन ) वर्ण वाला, उस स्थान पर शोथ तथा पीड़ा का होना, जिस स्थान से बार-बार रक्तम्रा हो रहा हो, जो स्थान बुलबुला की भांति उभार युक्त हो, जिसके आस-पास में अनेक छोटी-छोटी पिडकाएं हो गयी हों और जहाँ का मांस मृदु (कोमल) हो गया हो, अन्तःशल्य के लक्षण हैं।
२. त्वचा गत शल्य के लक्षण:-
विशेष करके यदि शल्य (Shalay) त्वचा में प्रविष्ट होता है तो उस स्थान पर त्वचा का रंग बदल जाता है। वह स्थान स्पर्श में कठोर तथा चौड़ा हो जाता है।
३. मांसगत शल्य के लक्षण:–
यदि शल्य (Shalay) मांस धातु में प्रविष्ट होता है, तो चोष (चूसने की जैसी पीड़ा) होती है, उस स्थान पर शोथ होने लगता है, उस स्थान को छूने में कष्ट होता है। वह स्थान पक जाता है और चिकित्सा करने पर शल्यमार्ग (जहाँ से शल्य भीतर घुसा है) शीघ्र भरता नहीं है।
४. पेशीगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य मांसपेशियों (मांस धातु में ही प्रविष्ट होकर वायुपेशियों का विभाजन करता है) के भीतर प्रविष्ट हो जाता है, तो इसमें भी मांसगत शल्य के उक्त सभी लक्षण हो जाते हैं, किन्तु इसमें सूजन नहीं होती।
५. स्नायुगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य स्नायुओं में प्रविष्ट हो जाता है तो स्नायुजाल में आक्षेप (खिंचाव), संरम्भ (हलचल), स्तम्भ (जड़ता) तथा पीड़ा होती है और यह शल्य बड़े कष्ट से निकाला जा सकता है। वक्तव्य = स्नायु-परिचय-इनसे शरीर में स्थित मांसपेशियो, अस्थियों, मेदोधातु तथा सन्धियों में दृढता से बनी रहती हैं। ये शिराओं से अधिक मजबूत होती हैं ।
६. सिरागत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य (Shalay) सिराओं में प्रविष्ट हो जाता है तो सिराएं आध्मान युक्त हो जाती हैं अर्थात् फूल जाती हैं।
७. स्रोतोगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य स्रोतों में प्रविष्ट हो जाता है तो स्रोतों के कर्मों तथा गुणों की हानि हो जाती है।
८. धमनीगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य धमनी में प्रविष्ट हो तो वायु झागदार रक्त को बाहर की ओर निकालता है तथा शब्द करता हुआ वायु भी उसमें से निकलता है और सम्पूर्ण शरीर में वेदना होती है, जी मिचलाता है।
९. अस्थि-सन्धिगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य (Shalay) अस्थि की सन्धि में प्रविष्ट होता है तो उसमें जोरदार रगड़ लगती है और अस्थि का वह पोला भाग, उस शल्य से भर जैसा जाता है, यही उसकी पूर्णता है।
१०. अस्थिगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य अस्थि में प्रविष्ट होता है तो अनेक प्रकार की (भग्र, रुग्ण, मृदित, पीड़ित, नीचे की ओर को झुकाना आदि) पीड़ाओं की उत्पत्ति होती है और उसके आसपास सूजन भी हो जाती है।
११. सन्धिगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य संधियों में धंसा होता है तो अस्थिशल्य के समान लक्षण इसमें भी होते हैं और उस संधि में पहले की भांति लोच नहीं रह जाती अर्थात् वह सन्धि ठीक से मुड नहीं सकती।
१२. कोष्ठगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य कोष्ठ में प्रविष्ट हुआ हो तो व्रण के मुख में अन्न, मल तथा मूत्र का दिखाई देना, पेट में हलचल तथा आनाह (अफरा); ये लक्षण दिखलायी पड़ते हैं।
१३. मर्मगत शल्य के लक्षण:-
यदि शल्य (Shalay) मर्मस्थान में धंसा हो तो उसमें मर्मविद्ध के लक्षण दिखलाई देते हैं।
यथास्वं च परिसावस्त्वगादिषु विभावयेत् ।
सामान्य निर्देश—’यथास्वं ‘ का अर्थ है त्वचा आदि के घावों को देखकर शल्य कहाँ धंसा है, उसका निर्णय इस दृष्टि से करें। यथा त्वचा में लसीका स्राव को देखकर, सिरा में रक्तस्राव से, अस्थि में मज्जा स्राव से, आमाशय में अन्न के निकलने से, मलाशय में मल के निकलने से और मूत्राशय में मूत्र के निकलने को देखकर शल्य का निर्णय कर लेना चाहिए।
शल्य व्रण का रोपण:-
- वमन तथा विरेचन आदि शोधन क्रियाओं द्वारा शुद्ध शरीर वालों का यह शल्य (Shalay) के चुभने से हुआ व्रण शल्य के अनुलोम गति से भीतर स्थित रहने पर भी स्वयं ही भर गया है, ऐसा प्रतीत होता है।
- पुनः पीड़ा कर्तृत्व = शल्य के निकल जाने पर ही व्रण को सम्यक् रूढ़ नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि इस ग्रहण स्थान पर पुनः कभी दोषों का प्रकोप होने पर, चोट लगने पर या धक्का आदि के लगने पर भीतर स्थित शल्य फिर भी पीड़ा पहुँचा सकता है।
शल्य ज्ञान के उपाय:-
- त्वचा गत शल्य = जब त्वचा में शल्य (Shalay) प्रवेश कर अदृश्य हो गया हो तो उसका पता लगाने के उपाय; अभ्यंग, मर्दन और स्वेदन से उस स्थान विशेष पर लालिमा, पीड़ा, दाह होती है।
- अस्थिगत शल्य = अस्थियों में अदृश्य हुए शल्य को अभ्यंग, स्वेदन, पीडन तथा मर्दन विधियों से उसका स्थान-निर्धारण कर लें।
- सन्धिगत शल्य = सन्धिगत अदृश्य शल्य का ज्ञान अस्थिगत शल्य की भांति करें। विशेष करके प्रसारण (फैलाना) तथा आकुंचन (सिकोड़ना या बटोरना ) आदि क्रियाओं से समझें।
- पेशीगत आदि शल्य = इसी प्रकार मांसपेशियों के मध्य में, अस्थिसन्धियों में तथा कोष्ठप्रदेश के अन्तर्गत अदृश्य शल्य के प्रमुख स्थान को पहचान लेना चाहिए।
- मर्मगत शल्य = यहाँ मर्मगत शल्य को अलग से नहीं कहा गया है, क्योंकि मर्मस्थलों के आश्रयस्थल मांस, सिरा, स्नायु, अस्थि तथा सन्धियाँ हैं।
- स्नायु आदि गत शल्य = स्नायु, सिरा तथा धमनियों में प्रविष्ट शल्य जब अदृश्य हो जाय तो उस रोगी को टूटे पहिये वाले रथ पर बैठाकर उसमें पोडा जोतकर शीघ्र ले जाएं, उसके संरम्भ से जहाँ शल्य होगा, वह स्थान दुःखने लगेगा।
• सामान्य निर्देश :- सामान्य रूप से वहाँ शल्य है, ऐसा समझना चाहिए, जहां हिलने डुलने तथा दबाने से पीड़ा हो।
• शल्य के स्वरूपों का अनुमान :-अदृश्य (जो देखा गया न हो ऐसे) शल्य के स्वरूप का ज्ञान घाव की आकृति से समझने का प्रयास करना चाहिए।
चार प्रकार के होते हैं :-
- वृत्त (गोल)
- पृथु (चौड़ा)
- चतुष्कोण (चौकोर )
- त्रिपुट (तिकोना)
शल्य-निर्हरण के उपाय:-
उन शल्यों को निकालने के उपाय दो प्रकार के है:-
- प्रतिलोम (वह शल्य शरीर के भीतर जैसे ही घुसा, उससे उलटा अर्थात् उसी मार्ग से बाहर को निकालना; जैसे कांटा निकाला जाता है।)
- अनुलोम (जहाँ से निकालना सरल हो, उसे अनुलोम कहते हैं।)
१. अर्वाचीन आदि शल्य:-
अर्वाचीन शल्य को प्रतिलोम-विधि से i
२. तिर्यग शल्य (तिरछे गये हए):-
शल्य को उस ओर से काटकर निकाले, जहां से वह सुख से निकल सके।
३. निर्घातन के अयोग्य शल्य:-
उरस, कका, बंदाण तथा पार्श्व (पशुकास्थियों) के भीतरी अवयवों में गये हुए शल्यों का नितिन नहीं करना चाहिए।
४. विशल्यघ्न शल्याहरण निषेध:-
विशल्यन (शल्य को निकाल देने पर मार देने वाले) शल्य को, नष्ट शल्य (‘णश अदर्शने’ अर्थात् जो न दिखलायी दे रहा हो और जो पीडादायक भी न हो) को अथवा उपद्रव रहित शल्य को निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।
५. शल्यनिरहरण विधि:-
तदनन्तर हाथ से पकड़ने योग्य शल्य को हाथ से पकड़कर खींच लेना चाहिए। क्योंकि सुश्रुत ने हाथ को ही प्रधान यंत्र माना है।
६. दृश्य शल्य-निर्हरण:-
जो हाथ मे न पकड़ा जा रहा हो किन्तु दिखलाई दे रहा हो, उसे सिंहमुख, सर्पमुख, मकरमुख, वर्मि (मत्स्य-विशेष) मुख अथवा कर्कटमुख नामक यंत्रों द्वारा पकड़कर निकालना चाहिए ।
७. अदृश्य शल्य-निर्हरण:-
अदृश्य शल्य का आहरण घाव की आकृति को देखकर जिन यंत्रों से पकड़ कर निकाला जा सकता है, वे यन्त्र हैं-कंकमुख, भृंगराजमुख, कुररमुख, शरारिमुख अथवा काकमुख। यहाँ मुख शब्द का अर्थ है- इन पक्षियों की चोंच की आकृति के यन्त्र ।
८. संदंश यंत्र:-
प्रयोग त्वचा तथा मांस में गए हुए शल्य को संदंश नामक यन्त्रों से पकड़कर निकालना चाहिए।
९. ताल यन्त्र:-
प्रयोग त्वचा आदि में स्थित सुषिर (भीतर से छिद्रवाले ) शल्य को तालयन्त्रों की सहायता से निकालना चाहिए, न कि सन्दंशयन्त्रों से।
१०. नाडीयन्त्र:-
प्रयोग- सुषिरस्थ (भीतर से पोली अस्थि अथवा अस्थियों में चुभे हुए) शल्य को नाड़ी यंत्रों से पकड़कर खींचना चाहिए।
११. सिरा-स्नायु गत शल्य:-
सिरा तथा स्नायु में गए हुए शल्य को शलाका यंत्र से हिला डुला करके उसे ढीला करके निकालें।
शेष यन्त्र = प्रयोग- शेष (ऊपरवर्णित शल्यों से अतिरिक्त) शल्यों को उन यंत्रों से सोच-समझकर निकालना चाहिए, जिनका वर्णन ऊपर नहीं किया गया है तथा जो यन्त्र जिस शल्य को निकालने में समर्थ हो।
निर्हुत शल्य का पश्चात कर्म = अथवा (जब शल्य चुभे हुए स्थान को बिना काटे यंत्रों की सहायता से न निकल सके तो) पहले उस स्थान को जहाँ शल्य धंसा हो, काटकर शल्य को निकालकर उसमें बहते हुए रक्त को रोकने का उपाय कर, तदनन्तर घाव में लगे हुए रक्त को धोकर अर्थात् साफ़ करके
गुनगुने घी से उस घाव के स्थान का स्वेदन करके, उसमें व्रणरोपण लेप (मलहम ) लगाकर, उसे व्रणोपचार की विधि समझा देनी चाहिए।
१२. हृदय गत शल्य:-
जिसे चुभा हो, उस व्यक्ति पर शीतल जल की छींटे डालकर उसे घबडा़ दें, फिर उचित यंत्र की सहायता से निकाल लें।
शलायाहरण की अन्य विधि = उस शल्य को खींचकर दूसरी ओर से ऐसे ही निकालें।
१३. अस्थिगत शल्य:-
यदि शल्य अस्थि में चुभा हो तो, उस पुरुष को पैरों से दबाकर शल्य को पकड़कर जोर से निकाले।
दूसरी विधि = यदि अस्थिगत शल्य को अकेला चिकित्सक न निकाल सके तो बलवान् सेवकों द्वारा उसे पकड़वा कर शल्य को निकलवा दें।
तीसरी विधि = यदि उक्त विधि से शल्य न निकल सकें तो उसे पकड़ने योग्य उपरी भाग (मूठ) को टेड़ा करके धनुष की डोरी से भली भांति बाँधकर, उस डोरी के दूसरे छोर को सावधान होकर पंचांगी (चारों पैर तथा मुख) से बान्धे गये घोड़े के मुखकटक (लगाम) से बांध दें और फिर उस घोड़े को कोड़े से इस प्रकार मारे, जिससे घोड़ा अपने सिर को वेग (झटका) से उठाये और शल्य निकल जाय।
चौधी विधि = अथवा इसी प्रकार वृक्ष की डाल को नीचे की ओर झुकाकर उस शल्य में बंधी हुई डोरी का दूसरा छोर, इस झुकाई हुई डाल में बांधकर झटके से उस डाल को छोड़ दें, वह अपने वेग से शल्य को निकाल देगी। इन दोनों स्थितियों में शल्यविद्ध रोगी को आत्मीयजन सावधानी से पकड़े।
पाँचवी विधि = जिस शल्य का वारंग (मूठ) कमज़ोर हो तो, उसे कुश आदि की रस्सियों से कसकर बांधकर तब शल्य का निर्हरण करना चाहिए।
षष्ठी विधि = जिस शल्य का वारंग (मूठ) सूजन से डक जाय तो उसके सूजन को दबाकर, यंत्र द्वारा युक्तिपूर्वक शल्य को निकालें।
सातवीं विधि = यदि शल्य फफोले की भांति सामने आ गया हो तो नाडी यंत्र से उसे इधर उधर से हिलाकर मुदगर से उस शल्य का मुख टेढ़ा करके उसे निकालें।
आठवीं विधि = जो शल्य दूसरे मार्ग से दूसरी ओर को निकल आया हो, उसे सही मार्ग (जहाँ से उसे निकालने में सरलता हो) में ले जाकर निकाल दें।
नवीं विधि = एक, दो अथवा तीन कणों (फलों) वाले शल्यों के कानों को रेती यंत्र सें पीसकर और नाडीयन्त्र से दबाकर शल्य को निकाल दें।
दसवीं विधि = जो लौह निर्मित शल्य सीधा शरीर के किसी भाग में स्थित हो, जिसमें कर्ण (फर ) न हो और जिस व्रण का मुख खुला हो, उसे चुम्बक लगाकर खींच लेना चाहिए।
१४. पक्वाशयगत शल्य:-
यदि शल्य (Shalay) पक्वाशय में पहुँच गया हो तो उसे विरेचन करा कर निकाल लेना चाहिए ।
१५. वात आदि शल्य:-
दूषित वात, दुष्टस्थान का विष, दुष्टस्तन्य (इसी से स्त्रियों को थनेला रोग हो जाता है), दूषित रक्त तथा जल में डूबने से पानी का भर जाना आदि की चिकित्सा चूषण यन्त्रों (सिंगी, तुम्बी आदि) से करें।
१६. कण्ठस्रोतगत शल्य:-
कण्ठ (गले) के स्त्रोत में शल्य (Shalay) के फस जाने पर बिस (कमल) नाल के साथ धागा का प्रवेश करें। धागा या बिसनाल में शल्य के फस जाने पर उन दोनों को शल्य के साथ बाहर निकाल लें।
जातु शल्य-निर्हरण यदि कण्ठ (गले) के स्रोतस् में जतु = लाख का टुकड़ा रूपी शल्य फस गया हो तो आग में तपायी गयी लाख की सींक को नाडीयन्त्र के भीतर से उस जतुशल्य तक पहुंचाकर उससे सटा दें और वह शल्य उस सींक के साथ सट जायेगा। उसके बाद उस व्यक्ति को पानी पिला दें, जिससे सीक ठण्डी होकर शल्य को अपने साथ जोड लेगी। अब आप उस जतुशल्य को गले से बाहर नाड़ी के साथ निकाल लें।
अन्य शल्य-निर्हरण—इसी प्रकार लाख़ के अतिरिक्त अन्य लकड़ी आदि शल्यों को भी लाख़ की गरम शलाका को नाड़ी यंत्र के भीतर से डालकर कण्ठस्रोतस् के भीतर धंसे हुए शल्य (Shalay) का भी निर्हरण कर सकते हैं।
गले में फसे हुए शल्य को निकालना:-
यदि अस्थि (हड्डी या हड्डी का टुकड़ा) अथवा कंटक (मछली का कांटा) आदि शल्य गला के भीतर फस गया हो तो बालों को सुदृढ़ धागा से बांधकर दूध आदि के साथ निगाल दें। और फिर उसे उल्टी करा कर उसके साथ उक्त शल्य (Shalay) खींचकर निकाल लें। यदि उक्त शल्य ऊपर कही गई विधि से न निकल सके या न निकाला जा सके तो चिकित्सक अपनी बुद्धि से दूसरी विधि से निकालने का प्रयास करे। कभी-कभी इस प्रकार के प्रयासों के द्वारा छोटे शल्य वमन के साथ मुख अथवा नासिका के छिद्रों से निकल जाते हैं। यदि न निकल पाए तो कुछ पेय पदार्थ उसे पिलाकर, आहार नलिका से उसे भीतर की ओर प्रेरित कर (ढकेल) दें। यदि आहार नलिका में ग्रास (कौर) नामक शल्य फस गया हो तो उसे जल अथवा घी-तेल आदि पिलाकर स्कन्ध भाग में मुठ्ठी आदि द्वारा मार या ठोंक कर ग्रास को भीतर की ओर जाने में सहायता करें।
वक्तव्य = प्रायः ऐसी परिस्थिति बालकों के भोजन काल में देखी जाती है। पास में बैठी हुई माता, दादी आदि इसी प्रकार के व्यवहार से ‘ग्रासशल्य’ को भीतर या बाहर की ओर करते-कराते देखी जाती है। यह वाग्भट की सूक्ष्म दृष्टि है।
आंख एवं व्रण में पड़े शल्य को निकालना:-
आँख में घुसे तथा चाय में पड़े हुए सूक्ष्म छोटे से छोटे शल्य (बाल या बालू के कण) को रेशमी वस्त्र के कोने से केश (बाल) की सहायता से निकाले। अथवा पानी के छींटे डालकर निकालें (इस प्रकार के लघु शल्यों को अनुभवी बूढ़े लोग सरलता से निकाल देते हैं)।
उदरगत जल निकालने की विधि:-
तेरते समय डूब जाने से पेट में पानी भर जाता है। यह जल भी शल्य (Shalay) है, न कि भोजन के साथ पीया गया जल। उक्त जल को निकालने की विधि:- जिसके पेट में पानी भर गया हो, उसे तत्काल उलटा करके झकझोरे, लटकाये; जब कुछ शान्त हो जाय तो उसे वमन कराये तथा मुख तक उसे भस्म के ढेर में गाड़ दें। इस विधि से बहुत-सा जल भस्म अपने में सुखा लेता है।
कर्णगत जल एवं क्रिमि निकालने की विधि:-
कान के छिद्रों में जल भर जाने पर तेल और पानी को हाथ से मथकर, जब वह घी जैसा हो जाता है। तब उसे कान में डालें। उसके कान को उलटा करके हाथ से थपथपाएं, ठोंके अथवा कोई दूसरा व्यक्ति उसके कान में मुख लगाकर पानी को चूसकर थूक दें।
शल्य-निरहरण उपाय:-
जब शल्य मांसल प्रदेश में धंसा हो और धसने के बाद भी उसमें विदाह आदि पाक के लक्षण न दिखलाई दे रहे हों तो उस स्थान पर मसलना, स्वेदन, शोधनों (वमन विरेचन आदि) द्वारा कर्षणकर्म, बृंहन कर्म, तीक्ष्ण उपनाह (जिससे उसका शीघ्र पाक हो), उचित पेय पदार्थ को पिलाना, आहारों को खिलाना तथा शस्त्र द्वारा सघन पदांकन (पृच्छ लगाना) आदि विधियों से उसे पकाने का प्रयत्न करना चाहिए। पक जाने पर उस शल्य को निकाले। यदि इस प्रकार से भी न निकले तो पाटन, एषण तथा भेदन क्रियाओं द्वारा शल्य को निकाल देना चाहिए।
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