षट क्रियाकाल (Shat Kriyakal) का सुंदर विवरण आयुर्वेद ग्रंथ में निम्नानुसार बताया गया है।
जान लेते हैं कि क्रियाकाल शब्द बना कैसे है:-
‘क्रिया काल’ का शाब्दिक अर्थ है – क्रिया करने की अवस्था।
षट अर्थात छः
षट क्रियाकाल (Shat Kriyakal) का मिलित अर्थ हुआ = चिकित्सार्थ छह अवसर।
आचार्य सुश्रुत ने दोषों की प्रकोपवस्था के अनुसार उन्होंने छह अवसरों का वर्णन किया है, जिनमें चिकित्सक को दोषों का विचार करके चिकित्सा कर्म को पूर्ण करने चाहिए।
संचयं च प्रकोपं च प्रसरम् स्थान संश्रयं।
व्यक्तिं भेदं च यो वेत्ति दोषाणां स भवेत् भिषक्।। (सुश्रुत संहिता २१/३६)
आचार्य सुश्रुत ने निम्न छह कालों में षट क्रिया काल (Shat Kriyakal) को विभाजित किया है:
- सञ्चय
- प्रकोप
- प्रसर
- स्थान संश्रय
- व्यक्ति
- भेद अवस्था
दोष पूर्व की अवस्थाओं में हीन बल युक्त होते हैं और उत्तोरोतर अवस्थाओं में अधिक बलवान होकर असाध्य या प्रत्याख्य रूप धारण कर लेते हैं।
१. सञ्चय–
संचितानाम् खलु दोषाणाम् स्तब्ध पूर्णकोष्ठता
पीतावभासता मन्द ऊष्मता च अंगानाम् गौरवं आलस्यं लिगांनि भवन्ति।। (सु० सू० 21/18)
- दोषों का अपनी ही जगह या स्वस्थान में रहते हुए बढ़ना ही सञ्चय अवस्था कहलाता है।
- यह चिकित्सा का चिकित्सक के पास प्रथम अवसर होता है।
- इस अवस्था में चिकित्सा न की जाए तो दोष वृद्धि को प्राप्त होते हुए अगली अवस्था में पहुंच जाते हैं।
- वात सञ्चय अवस्था- स्तब्धकोष्ठता, पूर्णकोष्ठता
- पित्त सञ्चय अवस्था- पीतावभासता, मन्द ऊष्मता
- कफ सञ्चय अवस्था- अंगानाम् गौरवं, आलस्यं
२. प्रकोप अवस्था-
- इस अवस्था में संचित हुए दोष प्रकोप को प्राप्त होते हैं अपने स्थान से उद्विग्न होने को प्रेरित हो जाते हैं।
तेषां प्रकोपात् कोष्ठतोद संचरणाम्लिका पिपासा परिदाह अन्नद्वेष ह्रदयोत्क्लेद च जायते।। (सु०सू० 21/27)
- वात प्रकोप अवस्था- कोष्ठ तोद, वायु का संचार
- पित्त प्रकोप अवस्था- आम्लिका (अम्लोद्गार), परिदाह
- कफ प्रकोप अवस्था- अन्नद्वेष, ह्रदयोत्क्लेद
३. प्रसर अवस्था-
- यह अवस्था प्रकोप अवस्था के बाद होती है।
- इस अवस्था में दोष अपने स्वाभाविक प्रमाण से अत्यधिक बढ़ कर शरीर अवयवों में विचरण करना शुरू कर देते हैं।
- वात प्रसर अवस्था- विमार्गगमन, आटोप
- पित्त प्रसर अवस्था- औष, चौष, परिदाह
- कफ प्रसर अवस्था- अरोचक, अविपाक, छर्दी
४. स्थान संश्रय अवस्था-
- शरीर के तीन रोगमार्ग:
- कोष्ठ
- मर्म अस्थिसंधि
- शाखा; का आश्रय लेकर व ख- वैगुण्य को प्राप्त हो यह दोष रोगों को उत्पन करते हैं
- यह चिकित्सार्थ चिकित्सक के पास चतुर्थ अवस्था होती है।
स्थान संश्रयः इति दोषदूष्यस्य संश्रयः।। (चक्रपाणि सु०सू० 21/31)
- इसी अवस्था में दोष दुष्य समुर्छना की स्थिति होती है।
- हेतुओं को भली प्रकार जान कर अगर उनका विरोध नहीं किया जाता है तो दोष वृद्धि अपनी अगली अवस्था में पहुंच जाती है।
५. व्यक्ति अवस्था-
- इस पंचम अवस्था में भी अगर रोगी की चिकित्सा नही की जाती तो रोग अवस्था और दोष हेतुओं के प्रकोप के कारण रोगों के पूर्व रूपों की उत्पत्ति करते हैं।
- पूर्वरूप व्यक्त होने के पश्चात रूप या लक्ष्णों की व्यक्ति होती है और दोष वृद्धि अपनी अंतिम अवस्था की और बढ़ जाती है।
६. भेद अवस्था-
- इस अवस्था में दोष समस्थ शरीर में हलाहल मचाते हुए उपद्रावस्था की उत्पत्ति करते हैं।
- यहाँ पहुंच कर चिकित्सक के लिए चिकित्सा करना कठिन हो जाता है और रोग असाध्य या प्रत्याख्य रूप धारण कर लेता है।
- अतः यह चिकित्सार्थ अंतिम अवसर होता है।
षटक्रियाकाल का महत्व :-
धातु साम्यं च उक्ता तंत्रस्य प्रयोजनम् च।।
अर्थात आयुर्वेद का प्रयोजन है धातुओं की क्रिया को साम्य बनाये रखना।
यह तभी संभव है जब चिकित्सक को चिकित्सार्थ अवसरों का मालूम हो और वो दोष अवस्था अनुसार दोषों का शमन करने में समर्थ हो।