आयु परीक्षण
आयुष्मान या दिघ्रायू के लक्षण
(1) केश-जो एक-एक अलग-अलग निकले हो, मृदु हो, अल्प हों, सिनीग्ध हों, जिनके मूल मजबूत एवम् काले हो।
(2) त्वचा-स्थिर एवं मोटी अच्छी होती है।
(3) सिर-स्वाभाविक आकृति से युक्त, पर कुछ प्रमाण से बड़ा हो, किन्तु देह अनुसार ही बड़ा हो और छाता के सदृश उतार-चढ़ाव युक्त हो ।
(4) ललाट-चौड़ा, मजबूत, सम सुविभक्त हो, शंखास्थि की सन्धियाँ उभरी ,मांसल हो, ललाट में वली हों तथा अर्धचन्द्राकार हो ।
(5) भ्रू-कुछ नीचे को लटकी, आपस में दोनों मिली न हो, सम-सुगठित, लम्बायमान हों-उत्तम मानी जाती है।
(6) कर्ण-दोनों कान स्थूल, बड़े समतल पृष्ठ वाले, समान रूप से नीचे की और बढ़े हुए, पीछे से आगे की ओर झुके हुए, जिसमें कर्णपुत्रिका का बन्धन मजबूत और सटे हुए हों । जिनके कर्णगहर का छिद्र बड़ा हो, वे कर्ण उत्तम होते हैं ।
(7) नेत्र-दोनों नेत्र समान हों, दृष्टि नेत्रगोलक में सम भाव में स्थित हो, नेत्र में कृष्ण मंडल, श्वेत मंडल, दृष्टि मंडल का विभाग स्पष्ट रूप से विभक्त हो, बलवान हो, तेज से युक्त हो, नेत्र के अङ्ग, वर्त्म, पक्ष्म आदि और अपाङ्ग भाग सुन्दर हो तो प्रशस्त माना जाता है।
(8) नाक-नासिका सरल, लम्बे-लम्बे श्वास-प्रश्वास लेने वाली, नासावश सुन्दर, सम-सुविभक्त, नासावंश का अग्र भाग कुछ झुका हो तो वह नाक उत्तम मानी जाती है।
(9) मुख एवं जिह्वा-मुख बड़ा एवं सीधा हो जिसमें सुन्दरता के साथ दात लगे हों।
जिह्वा उचित रूप में लम्बी, चौड़ी, चिकनी व पतली हो, अपनी प्रवृत्ति एवं व युक्त हो वह उत्तम होती है।
(10) तालु-चिकना, उचित रूप में मांसल रक्त वर्ण का होनो उत्तम है।
(11) स्वर-महान्, दीनता रहित, स्निग्ध, प्रतिध्वनि युक्त, गंभीर निकलने वाला एवं धीरतायुक्त स्वर का होना उत्तम है।
(12) ओष्ठ-अधिक मोटा न होना, अधिक पतला न होना, ओष्ठ का उचित रूप में होना, , आयाम व विस्तार ओष्ठ का रक्तवर्ण का होना उत्तमता का द्योतक है।
(13) हनु-दोनों हनु का बड़ा होना उत्तम है।
(14) ग्रीवा-ग्रीवा गोल किन्तु बहुत लम्बी न हो।
(15) उर-विस्तृत एवं मांसपेशियों से भरा होना चाहिए।
(16) जत्रू एवं पृष्ठवंश– का मांसपेशी से ढका होना उत्तम है (पृष्ठदेश, सम, ऊपर से विशाल, शिरा, लोम एवं निम्न हो तो आयुष्कर, झुका हो तो दुखी, बहुत छोटा हो तो अल्पायु तथा लोमयुक्त हो तो मित्र रहित एवं अल्प सन्तान वाला होता है।)
(17) स्तन-दोनों का दूर-दूर रहना उत्तम है ।
(18) पार्श्व-जिसके दोनों पार्श्व अंशभाग स्थूल मांसल होकर क्रमश: पतले एवं स्थिर होते है तो वे श्रेष्ठ हैं। भाग में
(19) बाहु, पाद एवं अंगुलियां -जिसके दोनों हाथ-पैर एवं अंगुलियां गोल मांस से परिपूर्ण एवं लम्बी हों श्रेष्ठ हैं।
बाहु जो क्रमश: उपचित हो, जिसमें अरलि (कोहनी) दूर हो। जो दीर्घ घुटनों को स्पर्श करने वाली हो । शिराओं से युक्त बाहु आयुष्यमान् बालकों के पक्षयुक्त सन्तान वालों के, शिराओं से रहित सन्तान-शून्य व्यक्तियों के, तिर्यक् शिराएँ कृच्छ्रजीवियों के, तिल युक्त बाहु भ्रमणशील के तथा मशक से युक्त बाहु कलहप्रिय के होते है।
(20) नख-स्थिर, गोलाकार, चिकने, ताम्रवर्ण के लाल, ऊँचे उठे हुए और कछुए की खोपड़ी की तरह चढ़ाव युक्त उत्तम है। (स्निग्धतनु चिकने ताम्रवर्ण के हो तो बालक अधिपति, स्थूल हो तो आचार्य, रेखायुक्त हों तो आयुष्मान, नख नीचे झुके हो सीप तथा तुषाकृति हों तो दरिद्रता । स्थूल, श्वेत तथा विषम हो तो भ्रमणशील होता है।)
(21) नाभि-दक्षिण पार्श्व से आवर्त बना हो और उत्सङ्ग हो तो वह नाभि उत्म है । नाभि गहरी दक्षिण की ओर घूमी, गोल उठे किनारों वाली, लोम, शिरा रहित प्रशस्त है।
(22) कटि-वक्ष की अपेक्षा कटिभाग तृतीयांश कम हो, समतल हो, उचित रूप से मांसपेशियों से आच्छादित हो वह कटिप्रदेश उत्तम है।
(23) स्फिच-दोनों नितम्ब गोल, स्थिर, मांसपेशी परिपूर्ण एवं न अति उन्नत या अति धंसा हुआ प्रशस्त है। शुष्क नितम्ब सन्तान रहित के, लंबे प्रधनता नष्ट होने वालों के होते है।
(24) ऊरु – गोल एवं मांसल हो (मांस युक्त, गहरी तथा चिकनी प्रशस्त होती है।)
(25) जंघा– हरिन के पैर के सामन हो, न मांसपेशियों से अधिक आच्छादित हो जिससे अधिक स्थूल हो गया हो, न हल्की मांसपेशी से आच्छादित हो जिससे कृश प्रतीत होता हो और जिस जंघा में सिरा और लोम से रहित प्रशस्त है।
(26) गुल्फ-न मांसपेशी से अधिक भरा, न कम पेशियों से आच्छादित हो जिससे कृश ना हो।(मजबूत, छोटे, लोम एवं शिराओं से रहित प्रशस्त है, इसके विपरीत बहुत उभरे हो तो धननाश, विशाल तो क्लेश के कारण होते हैं।
(28) कुकुन्दर-गम्भीर लोमरहित, विभक्त हुए तथा समान आकार वाले प्रशस्त होते हैं। लोकायुक्त कुकुन्दर भ्रमणशील स्त्री के होते हैं । दक्षिण की ओर जिसमें आवरत हो वें प्रशस्त है ।
(29) जघन—कुछ लोगों का कहना है कि कूलहे छातीे के समान परिणाम वाले प्रशस्त हैं । बालकों की छाती विशाल होती है। बालिकाओं के कूल्हे विशाल होते है। यह दोनों मध्यम आकार वाले प्रशस्त नहीं होते हैं।
(30) वृषण—गौरवर्ण वाले बालक के वृषण लम्बे, बड़े, कृष्णवर्णवाले के कृष्ण तथा रक्तवर्ण वाले के गौर तथा श्याम वर्ण वाले के श्याम होते हैं ।
(31) प्रजनन-कोमल, दीर्घ, उच्छित बड़ी, ताम्रवर्ण की तथा गोल मणियुक्त महान् कोश एवं स्रोत वाला प्रशस्त है , वाम पार्श्व में आवृत्त वाला प्रजनन अप्रशस्त है।
(32) योनि-शकटाकार योनि सन्तानोत्पत्ति के लिए, स्थूल सौभाग्य के लिए,गोल व्यभिचार के लिए, लम्बी अपत्यवध के लिए, उत्क्षिप्त अनपत्य के लिए, सुचिमुखाकर दुर्भाग्य के लिए, अतिविस्तृत या शुष्क, लंबी, विषम तथा लिङ्ग रहित योनि क्लेश के लिए।
व्यञ्जन युक्त योनि प्रशस्त, अतिलोमश वैधव्य, व्यजन रहित अप्रशस्त तथा वसायुक्त योनि व्यभिचार के लिए होती है। दोनो ओर बालों की पंक्ति वाली मध्यम, जो अति घनी न हो वह योनि प्रशस्त, अति स्थूल, वैधव्य, घने बालों वाली कुलटा, नीचे झुकी दुर्भाग्य के लिए, नाभि से भी ऊपर पहुंची हुई मध्यम श्रेणी की होती है।
(33) उदर-ईशत उन्नत अतिशिथिल, कोमल तथा बहत बड़ा न होना प्रशस्त है। शुष्क उदर दरिद्र्, बड़ा उदर भोगी, विशाल-विषम उदर विषम स्वभाव एवं भोगी का, अतिशुष्क अनपत्यकर।
(34) स्कन्ध-कन्धों पर बाल वणिक, भार उठाने वालों, जुआरियों तथा रङ्गरजों के होते हैं। शुष्क स्कन्ध दरिद्र के, यह दोनों कभी-कभी दीर्घायु के, भ्रमणशील के, शिथिल कन्धों वाला अशक्त, उन्नत कन्धों वाला प्रशस्त, झुके कन्धों वाली कन्या प्रशस्त होती है । इसके विपरीत अप्रशस्त है।
(35) कक्ष-उन्नत, विशाल, मोटे एवं सुस्पष्ट प्रशस्त है। स्त्रियों के अतिलोमयुक्त अप्रशस्त हैं।
(36) मणिबन्ध-पुरुषों की मोटी, स्त्रियों की पतली प्रशस्त है । दोनों की तीनों यवपंक्तियाँ अविच्छिन्न है तो प्रशस्त हैं । प्रथम ऐश्वर्य, द्वितीय मुख्य, तृतीय प्रजा एवं आयु की द्योतक है।
(37)पाद -मोटे, अच्छी प्रकार प्रतिष्ठित तथा ऊपर की ओर रेखाओं वाले हों तो आयुष्यमान, धनवान् तथा अधिपति होता है । स्वस्तिक, लाङ्गल, कमल, शंख, घोड़ा, हाथी, रथ आदि मङ्गलकारी प्रहरणों से चिह्नित हो तो वह बालक राजा, ताम्रवर्ण एतं चिकने हो तो ऐश्वर्यशाली, यदि पैर मुड़े हों तो मध्यम-धन एवं आयु, श्वेत हो तो निर्धन, रेखाओं से युक्त हो तो दूसरों का काम करने वाले, अति रेखायुक्त हों तो रोगी, गोल एवं चिकनी एड़ी वाले हों तो वे सर्वगुणसम्पन्न, छोटी एड़ी वाले अल्पायु, सन्तानरहित एड़ी खुरदरा, पुरुष, तनु, विषम, फटी हुई, मलिन अप्रशस्त है ।
पैर दीर्घ या हस्व हो तो आय भी दीर्घ या अल्पायु होती है । उत्तर पाद उन्नत, शिराओं से रहित प्रशस्त होते है । इसके विपरीत हो तो बालक चोर होता है।
उपरोक्त आयुष्य-लक्षण विवरण में दो प्रकार का विवेचन प्राप्त होता है
- स्वस्थ शरीर या रोगी शरीर ।
- व्यक्ति-बाल-स्त्री के स्वभाव आदि विषय ज्योतिष तन्त्र से सम्बद्ध है । स्वस्थ शरीर या रोगी शरीर आज भी हम सामान्य परीक्षण (General examination) के रूप में करते हैं। सहज विकृतियों, व्याधियों को मात्र शारीरिक लक्षणों से भी ज्ञात किया जा सकता है।
आयु की दृष्टि से कुछ महत्त्व पूर्ण अंशों का संकलन यहाँ दिया जा रहा है; यथा-
१. नख –
- रुक्ष- रोगी
- रेखा युक्त- आयुष्यमान
- श्वेत वर्ण तथा मण्डलाकार- अल्पायु
२. बाहु–
- शिरा युक्त बाहु- आयुष्यमान
- त्रियक शिरा- कृच्छ्रजीवियों में
३. पाद–
- अति रेखा युक्त- रोगी में
- छोटी एडी- अल्पायु
४. अंगुली, पाद एवं नाखून-
- दीर्घ हो – लंबी आयु
- हसव हो – अल्पायु
५. जत्रू एवम् पृष्ठ वंश–
- मध्य में निम्न हो- आयुष्कर
- छोटे हों तो- अल्पायु
- झुका हो तो – रोगी
५. नाभि–
- विषम रूप से उभरी हुई- आयुष्कर
६. गुल्फ़–
- विशाल – कलेश के कारण
७. कुकुंदर
- बड़े- लंबी आयु
- शिलश्ट- अल्पायु
८.उदर
- स्त्रियों में नीचे से अधिक बड़ा, शिर एवम् वली रहित- आनायुष्कर
- नाभि से ऊपर दबा- अनायुष्कर
- पुरुषों में बहु वाली युक्त- अनायुष्कर
कुमारधारणीयानि
बालकों को मणि धारण करना चाहिए। जीवित गेंडा, हरिण, नील गाय, सांड- इनमें किसी एक का भी के दाहिने श्रंंग के अग्रभाग को बालक धारण करे तथा एंद्री आदि ओषधि धारण करें।
अर्थवेद के ज्ञाता ब्राह्मण इनके अतिरिक्त जिन ओषधि को कहे उसे धारण करें।
अष्टांग संग्रहकार ने वचा धारण करने को कहा है।
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प्रथम मास परिचर्या
अब शिशु की उत्पति के बाद उस उत्पत्तिकर्म के निवृत्त हो जाने पर प्रथम भाम में ही उनकी रक्षा होम, मङ्गल तथा स्वस्तिवाचन कराकर सूर्योदय का दर्शन एवं पूजन तथा रात्रि में चन्द्रदर्शन करना चाहिए।
चतुर्थ मास परिचर्या
वाग्भट एवं कश्यप ने इस मास में निष्क्रमण संस्कार का विधान किया है । (निष्क्रमण संस्कार का वर्णन आगे कुमारों के संस्कार अध्याय में किया गया है।)
पञ्चम मास परिचर्या
वाग्भट ने पंचम मास में बच्चे को भूमि पर बैठना सिखााया है।
भूमि को हाथ भर गोबर में लीप कर चारों दिशाओं में पूजा करके बच्चे को बिठाए । बच्चे को आश्रय, अवलम्बन सहारे से बिठाये, जिससे गिरे नहीं। पीछे से बच्चे के कटि, पीठ, पैरो को मलना चाहिए।
आचार्य कश्यप ने छठे माह में भूमि पर बैठाने का विधान किया है।
षष्ठ मास परिचर्या
इस मास में सभी आचार्यों ने अन्न प्राशन एवं कश्यप ने फलप्राशन का विवेचन किया है।
बालको को प्रतिदिन अभ्यङ्ग, उद्वर्तन और भली-भांति स्नान कराएं।
तेल- सहदेवा, स्थिरा, कौन्ती, तरकारी, सर्षप, सैन्धव, बला, एरण्ड, तिल, अपामार्ग एवं अजादुग्ध इनसे तैल सिद्ध करे।
इसका अभ्यङ्ग करें तथा द्रव्यों का उबटन भी प्रयोग करे या हल्दी, दारुहरिद्रा एवं यव-इनका उबटन । या आटे से या अश्वगंधा के चूर्ण का उबटन करें । स्नानार्थ पानी में घोलकर या जीवनीयगण की औषधियों का कल्क पानी में घोलकर स्नान कराएं।
कुमार धारण
कुमार को धारण करने वाला व्यक्ति सदाचारी और न अतिस्थूल, न लोलुप होना चाहिए । बालक के चित्त आदि को जानने वाला हो; दुराचारी, स्थूल, दुष्कर्मी कुमारधार बालक को लोलुप तथा रोगी बना देते हैं।
बालकेन सह सम्बन्धः
बालकों में भय उत्पन्न करना ठीक नहीं। यदि बालक रोता हो या भोजन न करे या आज्ञा का पालन न करे तो राक्षस, पिशाच, पूतना आदि ग्रहों का नाम लेकर डराना नहीं चाहिए ।
बालक को हमेशा जिस तरह से सुख हो उसी तरह उठायें, उनको झिड़के नहीं ,डर उत्पन्न होने से डर से उसे अचानक न जगायें । वातादि दोषों का प्रकोप होने के डर से उसे अचानक (दूसरे के पास से) न खींच ले या ऊँचा भी न उछालें ।
इस प्रकार वह अप्रतिहतचित्त रहकर दिन-प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता है और उत्कृष्ट सत्त्वसम्पन्न, स्वस्थ तथा प्रसन्न मन भी रहता है।
बालक को तीव्र बढ़ने वाली वायु, धूप, बिजली की चमक, वृक्ष, लता, शून्यगृह, गहरे स्थान, ग्रह छाया तथा दुष्ट ग्रहों से बचायें । बालक को मैली जगह पर, आकाश में, ऊँची-नीची जगह पर; धूप, आँधी, वर्षा, धूल, धुआँ एवं जल में न छोड़े । असावधान अवस्था में बच्चे को बिलकुल न डरायें, क्योंकि डरे बच्चे पर यह आक्रमण करते है।
गृहात् निष्कासनस्य काल:
- बच्चे के खेलने का स्थान समतल हो जिसमें लौह शस्र, कील-काँटे आदि पत्थर के टुकड़े मिट्टी, बालू-धूल आदि घातक चीज न हो।
- उस सुखद समान भूमि पर विद काली मिर्च आदि (कृमिहर) उचित द्रव्यों को पानी में घोलकर छिड़के या निम्बपत्र-जल का सिञ्चन करे ।
- शिशु के खिलौने अनेक प्रकार के हों। कुछ शब्द करने वाले, देखने में मनोहर, हल्के, जिसका अग्रभाग तेज न हो, जो मुख में प्रवेश न कर सके । ऐसे खिलौने न हों जो मृत्यु का कारण बने, भय पैदा करे।
आचार्य कश्यप ने खिलौनों के आधार पर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने का यत्न भी किया है ।
उनका कहना है कि छठे माह में किसी शुभ दिन देवपूजन करके, ब्राह्मणों को भोजदक्षिणा देकर, स्वस्तिवाचन करके, घर या वस्तु के मध्य में पवित्र स्थान पर गोबर तथा जल द्वारा चार हाथ प्रमाण की गोल या चौकोर वेदी लीपकर बनाये ।
उस वेदी के पास वैद्य सुन्दर तथा ऐश्वर्य युक्त, सोना, चाँदी, ताँबा, कांसा, सीसा एवं लौह की सब प्रकार की मणियाँ एवं मुक्ता, प्रवाल आदि, सम्पूर्ण व्रीहि आदि धान्य; सर्वसतालेष्टक*, दूध, दही, घृत, मधु, गोबर, गोमूत्र, कपास आदि तथा पिष्टी युक्त निम्नाकृति के खिलौने, गौ, हाथी, सूअर, शरभ आदि जानवर, विभिन्न पक्षी, शिला, गृह, रथ, अन्य स्त्री को प्रिय खिलौने रखे।
(सर्वसतालेष्टक– एवम् शालि और षष्ठी अन्न से निर्मित।)
- इसके बाद उस बालक को उसी प्रकार स्नान, अलंकार तथा नवीन वस्त्र सजा कर मण्डल के मध्य में पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठायें।
- उसके बाद उस शिशु को उठा कर प्रमाद रहित धात्री या दूसरे बालक के साथ उपर्युक्त या अन्य तेज युक्त लघु, खर न हो, जो बहुत तेज न हो, जो बहुर वक्र न हो, जो बिलकुल नवीन न हो, खींचकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जा सकें या रुचिकारक एवं शब्द खिलौनों से विनोद करता हुआ, प्रतिदिन किसी के सहारे तथा विस्तरयुक्त भूमि पर खेल आदि के अभ्यास करने दे।
विद्या ग्रहण
बालक को शक्तिमान समझकर वर्ण के अनुसार विद्या पढ़ाएं।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बालक की रुचि का ध्यान रखकर पढ़ाना चाहिए ।
वाग्भट के मत से जब बालक विद्या ग्रहण के लिए योग्य हो जाय तो बच्चे का विद्याध्ययन प्रारम्भ कराना चाहिए ।
शिशु का विकास क्रम (Growth and Development)
विकास क्रम के ज्ञानार्थ दो शब्द प्रयुक्त होते हैं
(१) वृद्धि (Growth) शारीरिक धातुओं की आकृति में वृद्धि को अंकित करता है।
(२) विकास (Development) शरीर में होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं की परिपक्वता को इंगित करता है।
भ्रूणावस्था से ही गर्भस्थ शिशु का शारीरिक, मानसिक एवं नाड़ीजन्य विकास प्रारम्भ हो जाता है । यह क्रम उत्पत्ति के बाद भी लगातार यौवनावस्था तक चलता रहता है । विकासक्रम जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है जो शिशु तथा युवा में अंत तक रहता है । विकासक्रम लगातार क्रमश: चलने वाली प्रक्रिया है। प्रत्येक जीव विकास क्रम कुछ न कुछ अलग होता है।
एक प्रकार से यह क्रम शारीरिक विकास के माप (Mile stone) समझे जा सकते है।
नवजात शिशु से लेकर यौवनावस्था तक विभिन्न वृद्धि एवं विकास क्रम का विवेचन कर रहे है। इसको हम 3 भागों में विभक्त कर सकते हैं .
1.शारीरिक वृद्धि
- मानसिक वृद्धि ।
- नाड़ीवहसंस्थान की वृद्धि ।
महत्त्व
(1) जन स्वास्थ्य संरक्षण।
(2) समुदाय के पोषण एवं स्वास्थ्य का संकेत है।
(3) सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम निर्माण में सहायक है।
(4) शारीरिक (कुपोषण, संक्रमण एवं कृमि रोग आदि) एवं मानसिक स्वास्थ्य के स्तर का संकेत भी प्रदान करता है।
(5) विकासक्रम में अनेक प्रक्रियायें समाविष्ट हैं यथा
- धातु निर्माण प्रक्रिया ।
- शिर, वक्षोदर एवं शाखाओं की वृद्धि
- सामाजिक सम्बन्ध, विचार एवं भाषा का विकास
- व्यक्तित्व का विकास ।
शारीरिक वृद्धि
सर्वप्रथम शारीरिक वृद्धि पर विचार कर रहे है ।
इससे शरीर की लम्बाई, चौड़ाई, भार, अङ्ग विशेष की माप का वृद्धिक्रम बताया गया है।
(1) लम्बाई (Height)-
- जन्म के समय लम्बाई-50 से.मी.
- एक वर्ष के पूर्ण होने पर लम्बाई-75 से.मी.
वय – औसत लम्बाई में वृद्धि
जन्म से 3 माह – 3.5 से.मी./प्रति माह
3 से 6 माह – 2.0 से.मी./प्रति माह
6 से 9 माह – 15 से.मी./प्रति माह
9 से 12 माह – 12 से.मी./प्रति माह
1 से 3 वर्ष – 10 से.मी./प्रति माह
4 से 6 वर्ष – 3 से.मी./प्रति वर्ष
(2) भार (Weight)–
- जन्म के समय औसत भार = 3 कि. ग्रा
- जीवन के प्रथम 7 दिवसों में लगभग 10% भार कम होता है।
है ।
- तदुपरान्त 3 दिन में शिशु जन्म के समय के भार को प्राप्त कर लेता है।
वय – प्रति दिन भार में ओसत वृृद्धि –
जन्म से 3 माह – 30 ग्राम
4-6 माह – 20 ग्राम
7-9 माह – 15 ग्राम .
10-12 माह – 12 ग्राम
1-3 वर्ष – 8 ग्राम
4-6 वर्ष – 6 ग्राम
(3) सिर की परिधि (Head circumference)
सिर के आकार में वृद्धि मस्तिष्क के आकार की वृद्धि को प्रस्तुत करती है।
- जन्म के समय सिर को परिधि औसतन 35 से.मी. होती है।
- प्रथम वर्ष के अन्त में औसत सिर की परिधि 45 से.मी. हो जाती है। औसत सिर की परिधि में वृद्धि एवं
औसत सिर की परिधि में वृद्धि वय का सम्बन्ध
वय – ओसत शिर की परिधि में वृद्धि
जन्म से 3 माह – 2.00 से मी./प्रति माह
4 से 6 माह – 1.00 से.मी./प्रति माह
7 से 9 माह – 0.50 से.मी./प्रति माह
10 से 12 माह – 0.50 से.मी./प्रति माह
1 से 3 वर्ष – 0.25 से.मी./प्रति माह
4 से 6 वर्ष – 1.00 से.मी./प्रति वर्ष
सिर की परिधि नापने की विधि-रबड़ टेप बच्चे के सिर के चारों ओर (पीछे पश्चात् कपाल occiput और आगे नेत्रगोलक ऊभार के ऊपर (Just above the supraorbital ridges) रख कर नापते हैं।
(4) सिर एवं वक्ष परिधि का अनुपात–
जन्म के समय सिर की परिधि वक्ष की परिधि से अधिक होती है। यह अन्तर लगभग 2.5 से मी. का होता है।
- 6 से 12 माह की वय में दोनों को परिधि बराबर हो जाती है।
- 1 वर्ष की वय के बाद वक्ष परिधि 25 से.मी. अधिक हो जाती है।
- 5 वर्ष की वय तक यह अन्तर 5 से.मी. लगभग हो जाता है।
वक्ष की परिधि मापने के लिए दोनों चूचुक का स्तर लेते है तथा माप मध्य श्वसन में ली जाती है।
(5) लम्बाई एवं शरीर का सम्बध–
शरीर के उर्ध्व एवं अधोभाग की लम्बाई में एक अनुपात होता है । जिससे शारीरिक विकास का ज्ञान किया जाता है।
- जन्म के समय – उधर्व भाग/अधो भाग = 1.7.1
- 8 वर्ष की वय पर -ऊर्ध्व भाग/अधो भाग = 1:1
- युवावस्था में – ऊर्ध्व भाग/अधो भाग = 0.9:1
ऊर्ध्व भाग एवं अधोभाग का निर्धारण-
जघन संधानक (Symphysis pubis) के ऊर्ध्व स्तर से करते हैं। इसके ऊपर का अंश ऊर्ध्वभाग और नीचे का अंश अधोभाग है।
(6) दन्तोद्भेद-
इस क्रम का ज्ञान भी बालक की वृद्धि एवं विकासक्रम के ज्ञान में सहायक होता है । इस विषय पर आगे सम्पूर्ण अध्याय दिया गया है ।
मानसिक वृद्धि
बच्चों की मानसिक वृद्धि कुछ ही वर्षों में पूर्ण हो जाती है जब कि शारीरिक वृद्धि उसके बाद भी होती रहती है। बालक स्वभावतः अत्यन्त कोमल होने के कारण मानसिक आघातों से अतिशीघ्र प्रभावित होता है। इसके लिए पूर्ण आवश्यक सामग्री किसी भी ‘बाल मनोविज्ञान” विषयक ग्रन्थ में द्रष्टव्य है ।
(1) उपचेतन तत्त्व (The ld)-
(Id) इड व्यक्तित्व का अत्यन्त अस्पष्ट, अगम्य एवं अव्यवस्थित भाग है
The ld is the obscure, Inaccessible and unorganised part of personality
जन्म के समय मानव शिशु का मन पूर्णतया इड है, अत: इड जन्मजात एवं वंशानुगत ( congenital inherited reservoir) है ।
शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति इड का मुख्य कार्य है । इड किसी भी प्रकार के तनाव से तात्कालिक छुटकारा पाना चाहता है, यही सुखवाद नियम (Pleasure pain principle) कहा गया है।
इसके अन्तर्गत सहज क्रिया (Reflex on) यथा-छींकना, पलक झपकाना भी आता है ।
(2) अहं (Ego)-फ्रायड का इगो से तात्पर्य आत्म या चेतन बुद्धि है (Conscious Intelligence)। अहं का सम्बन्ध एक ओर बाह्य वास्तविक होता तथा दूसरी ओर इड से होता यह इड की इच्छाओं तथा भौतिक के बीच फ़र्क करता है।
It the adjustor Between wishes of the Id & the demands of physical reality
आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें ‘मेरा’ और ‘मुझे’ जैसे का अर्थ स्पष्ट होने लगता इगो इड का एक विशिष्ट अंश है जो बाह्य वातावरण के प्रभाव के कारण विकसित होता है।
संक्षेप में ‘अहं’ (Ego) के कुछ प्रमुख कार्य निम्न प्रकार से हैं-
- शरीर की पोषण सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति
- शरीर की सुरक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति करना
- बाहा वातावरण की वास्तविकताओं अनुसार इड के प्रकारों की अभिव्यक्ति करना।
- इड ओर सुपर ईगो की विरोधी इच्छाओं का समायोजन करना
- बाधा चिन्ता उत्पन्न होने पर व्यक्तित्व उपयुक्तता रक्षा करना।
(3) (Super Ego)-व्यक्ति का यह अंश सबसे बाद में बढ़ता है।
According to viskaaf “The superEgo is the ethical moral arm of the personality. It makes the decisions whether an activity is good or bad according to the standard of society which is accepted. Societal laws mean nothing to it has accepted them and internalized them”
शिशु की आयु जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे उसका समाजीकरण होता जाता है। धीरे-धीरे वह भले-बुरे में अन्तर समझने लगता है। इस समाजीकरण प्रक्रिया में ही बालक के अन्दर ‘सुपर ईगो’ का विकास ‘ईगो’ से होता है
सुपर ईगो के दो पक्ष हैं-
- आदर्श अहम् (Ego Ideal)– यह सुपर ईगो का वो पक्ष है, जिसमें समाज तथा संरक्षक से सीखी गयी बातें या गुण सम्मिलित होते हैं।
- अन्तरात्मा (Conscience)-यह सुपर ईगो का वो पक्ष है, जिसमें संरक्षक या समाज जिन बातों को बुरा समझते हैं वह अवगुण सम्मिलित है । अंतरात्मा द्वारा व्यक्ति यह सीखता है कि समाज में क्या अनुचित है, उसके संरक्षक किन बातों को अनुचित समझते हैं।
जब कोई बालक सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों के प्रतिकूल कार्य करता है, तो अन्तरात्मा के कारण उसमें चिन्ता और अपराध-भावना (Guilt feeling) उत्पन्न हो जाती है।
(4) जैविक परिपूर्णता (Biological maturation)—प्रत्येक गुण बुद्धि में पहले से ही निश्चित होते है और जब वे दृश्य होते है तो वह अवस्था जैविक परिपूर्णता कहलाती हैं।
(5) इच्छा (Libido)– शक्ति की गति दो भागों में विभक्त होती है
- प्रेरणा (Aggressive drive)
• कामेच्छा (Sexual drive)
जब जैविक परिपूर्णता हो जाती है तो उससे जो शक्ति प्राप्त होती है वही है libido.
(6) सांस्कृतिक एवं शारीरिक उत्तेजना (Biological and culture challanges)– जैविक परिपूर्णता के बाद शिशु सांस्कृतिक, सामाजिक एवं शारीरिक कठिनाइयों के ऊपर अधिकार प्राप्त करना चाहता है और परिस्थितियों के अनुकूल अपने को परिणित करता है।
(7) अग्रापकारी (Aggression)-सामान्य परिस्थितियों में जो चुनौतियाँ बालक के सामने आती हैं उनका सामना करता है। उसमें जीत प्राप्त करना चाहता है।
उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक क्रियायें बालक में शुरू से ही उपस्थित रहती है, किन्तु वातावरण, समय एवं परिस्थितियों से इसका विकास होता है। बालक स्वयं इन परिस्थियो से निपटने का प्रयास करत रहता है ।
Important terms
Libido – As the predetermind abilities mature, their proper functioning requires that they became invested with psychic energy
- Aggression – Under normal circumstances aggression arises and is expressed in response to the challenges as an aim in facing and mastering them.
व्यक्तित्व का विकास
सुलीवन (Sulliven) ने व्यक्तित्व विकास को छ: महत्वपूर्ण अवस्थाओं के आधार पर समझाया है।
शैशवावस्था (Infancy)-
यह जन्म से 18 माह तक की अवस्था है। लगभग 18 माह का बालक कुछ शब्द बोलने लग जाता है। अतः कहा जा सकता है कि यह जन्म भाषा प्रकट होने तक की अवस्था है।
इस अवस्था के शिशु में वातावरण और शिशु के बीच का केन्द्र मुख्य क्षेत्र है।
इस अवस्था का शिशु जिन लोगों पर आश्रित होता है उनके सम्पर्क में आकर वह अनेक प्रकार के रिश्तों या संबंधों को सीखने लग जाता, उसके Self system का विकास प्रारम्भ ही हुआ होता है। जैसे-
अच्छी या बुरी माँ से भय, कभी-कभी माँ से स्वतन्त्र रह कर भी सफलता की प्राप्ति आदि
(2) बाल्यावस्था (childhood)
यह 18 या 20 माह से लेकर 4 या 5 वर्ष की वय है। इस अवस्था में बालक के खुद से सम्बन्ध रखने वाले संरक्षकों (जैसे मां) के अतिरिक्त अन्य लोगों से भी हो जाता है।
इस अवस्था में बालक लिंग सम्बन्धी रोल को पहचानने लगता है।
इस अवस्था के कुछ प्रमुख अनुभव है।
- व्यक्तित्व रोपण (Personification) |
2.बालक विभिन्न प्रकार के नाटक या रोल करता है।
इस अवस्था का बालक यदि अच्छा व्यवहार करता है तो स्नेह प्रदान करते है, यदि नहीं करता तो उसे स्नेह से वंचित कर दण्ड दिया जाता है।
इस अवस्था के अन्त तक बालक बाहर जाकर अन्य बच्चों के साथ खेलता है , अन्त:सम्बन्धों जैसे भाषा के साथ-साथ नए व्यक्तित्व रोपण भी होते है।
शिशु को शत्रु व प्रिय जनो में फ़र्क पता चलने लगता है। इसे malevolent transformation कहते हैं।
(3) लड़कपन (juvenile era)-
यह वय 5 या 6 वर्ष से लेकर 11 की है, जब वह प्राइमरी स्कूल का छात्र होता है । बच्चा घर से बाहर बराबर आयु के बालकों के साथ खेलना पसन्द करता है । वह विभिन्न प्रकार से अपनी आलोचना करना सीखता है।
इस काल के कुछ अनुभव निम्न हैं-
- समाजीकरण और सहयोग से सम्बन्धित कार्य
- विभिन्न नियन्त्रणों को सीखना
(4) पूर्व किशोरावस्था (Pre-adolescence)—
यह 11 से 13 वर्ष तक का काल है, जब वह जूनियर हाईस्कूल का छात्र होता है। अन्य विकास काल की बजाय इसमें समय कम होता है।
इस अवस्था में दूसरों से प्रेम करने की क्षमता सर्वप्रथम उदय होती है । इस प्रकार की इच्छा के आधार पर भी किशोर मानव सम्बन्ध स्थापित करता है ।
इस काल के कुछ प्रमुख अनुभव निम्न हैं-
- समलिङ्गी (same sex) साथी की बहुत अधिक आवश्यकता ।
- उचित मानव सम्बन्धों का आरम्भ।
- स्वतन्त्रता का शुभारम्भ ।
(5)प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early adolescence)-
यह अवस्था 12 से 17 वर्ष की है। जब छात्र हाईस्कूल का छात्र होता है। इस काल में किशोर में बहुत से शारीरिक परिवर्तन होते हैं ।
इस काल में बच्चो का आत्मतन्त्र (Self system सम्भ्रान्तिपूर्ण (Confused) होता है।
किशोर की कामुकता विपरीत लिङ्ग के व्यक्ति से सम्बद्ध होती है। लेकिन आत्मीय सम्बन्ध समान लिङ्ग के व्यक्ति से ही होता है
जब वह इन दो प्रकार के सम्बन्धों में विभेदीकरण नहीं कर पाता है तो समलिङ्गी कामुकता (Homosexuality) की ओर बढ़ता है ।
इस अवस्था के कुछ प्रमुख अनुभव है-
- पूर्णत: स्वतन्त्र
- दोहरी सामाजिक आवश्यकताएँ अर्थात् एक ओर विपरीत लिङ्ग के व्यक्ति से कामुक सम्बन्ध रखता है, तो दूसरी ओर वह समलिङ्गी व्यक्ति से आत्मीय सम्बन्ध रखता है।
6) उत्तर किशोरावस्था (Late adolescence)
यह अवस्था 17 से 20 की है, जब छात्र कालेज का होता है । इसका आत्मतन्त्र (Selfsystem) पूर्णत स्थिर होता है। किशोर अपने कर्तव्यों तथा जीमेदरी को समझने लगता है।
इस अवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण अनुभव है
(1) चिन्ता के प्रति पूर्ण सुरक्षात्मक व्यवहार ।
(2) पूर्णत: स्वतन्त्र व्यवहार ।
(3) सामाजिक समूह का पूर्ण सदस्य बन जाता है।
Domains of Development
Normal development is a complex process and has multitude of facets. However, it is convenient to understand and assess development under the following domains
i. Gross motor development
ii. Fine motor skill development
iii. Personal and social development and genderal understanding
iv. Language
v. Vision and hearing
These type of domains decides the number of milestones baby would achieve day by day.
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