After reading this read Strotas and diseases with Trick
आचार्य चरक ने स्रोतस की चिकित्या में उपयोगिता देखते हुए उसके विवेचन के लिए अलग अध्याय में बताया है । चरक विमान स्थान अध्याय 5 स्रोतोविमानं में बताया है।
स्त्रोतस दो प्रकार के होते है:-
- बहिर्मुख स्रोतस :- यह शरीर के बाहर के द्वार होते है जो को पुरुषों में 9 (2 नेत्र, 2 कर्ण, 2 आखें, 1 मुख, 1 गूढ़, 1 मुत्रद्वार) और स्त्रियों में 3 अतिरिक्त मिलाकर ( 2 स्तन, 1 अपत्य) 12 होते है।
- अन्तर्मुख स्त्रोतस :– अन्तर्मुखी स्रोतस को सुश्रुत ने योगवाही स्रोतस भी कहा है। इनकी संख्या आचार्य सुश्रुत ने 11 बताई है वह आचार्य चरक ने 13.
सुश्रुत | चरक | मूल | दुष्टिकारण according to Charak | लक्षण according to Charak |
प्राण | प्राण | हृदय और महाम्रोत | वेगधारण, रूक्षता, व्यायाम, उपवास तथा अन्य वातवर्धक आहार-विहार | दीर्घ एवं रुकावट के साथ या थोडा-थोड़ा निरन्तर शब्द संशुल उच्छाद आना। |
उदक | उदक | तालु और क्लोम | गर्मी, आमदोष, भय, मद्य, अतिशुष्क आहार, तृष्णा का वेग-धारण। | जिह्वा, तालु, ओष्ठ, कण्ठ, क्लोम का सूखना तथा अति प्रवृद्ध तृष्णा । |
अन्न | अन्न | आमाशय और वामपार्श्व | अति भोजन, अकाल भोजन, अहित वाम पार्श्व अन्नसेवन एवं अग्नि वैगुण्य । | अरुचि, अजीर्ण, छर्दि। |
रस | रस | हृदय व 10 धमनियां | गुरु, शीत, अतिस्निग्ध अतिभोजन और चिन्ता करना। | अधद्धा, अरुचि, मुखवैरस्य, हल्लास, गौरव, तन्द्रा,
अंगमर्द, ज्वर, पाण्डु, क्लैव्य, मन्दाग्नि, शैथिल्य, अकाल में पालित्य। |
रक्त | रक्त | यकृत व प्लीहा | विदाही, स्निग्ध, उष्ण तथा द्रव अन्नपान,धूप तथा अग्नि का सेवन। | कुष्ठ,
विसर्प, पिडका, रक्तपित्त, पदर, गुद मेदृ पाक, प्लीहा, गुल्म, विद्रधि,
नीलिका, कामला, व्यङ्ग, दद्रु, पिप्लु, तिलकालक, चर्मदल, श्वित्र, पामा, कोठ, रक्तमण्डल। |
मांस | मांस | स्नायु व त्वक् | अभिष्यन्दी भोजन, स्थूल तथा गुरु भोजन,खाने के बाद दिवास्वाप। | अधिमास, अर्बुद, मांसकील, गलशालूक,गलशुण्डिका,
पूतिमांस, एलर्जी, गण्ड, गण्डमाला, उपजीविका। |
मेद | मेद | वृक्क व वासा | व्यायाम न करना, दिवास्वाप,मद्य-मांसभक्षण, वारुणीसेवन करना। | अतिस्थौल्य तथा स्थौल्य के अन्य लक्षण, |
शुक्र | अस्थि | मेद व जघन | व्यायाम, अति संक्षोभ, अस्थियों का अधिक संचालन और वातकारक आहार-विहार। | अध्यस्थि, अधिदन्त, दन्तशूल, दन्तभेद अस्थि भेद, अस्थि शूल, वैवर्य, |
मूत्र | मज्जा | अस्थि व सन्धियाऀ | कुचले जाने से, अत्यधिक अभिष्यन्द स्वभाव, आघात, दबाव एवं विरुद्धाहार | पर्वधन, भ्रम, मूर्छा, |
पुरीष | शुक्र | अण्डकोष व मूत्रेन्द्रिय | अकाल मैथुन, अयोनिगमन, वीर्यवगावरोध, अतिमैथुन, शस्त्रकर्म, क्षारकर्म, अग्निकर्म। | क्लैब्य, ध्वजभंग, अप्रहर्ष, नपुंसक, विकृत
आकृतिवाली सन्तान की उत्पत्ति, गर्भ न होना, गर्भपात या गर्भस्त्राव होना। |
आर्तव | मूत्र | बस्ती व वंक्षण | मूत्रवेगावरोध, मैथुन, क्षय तथा कृशता । | बहुमूत्र, मूत्रकृच्, मूत्रापात, मूत्राल्पता,बार-बार मूत्र आना, सशूल गाढा मूत्र आना। |
पुरीष | पक्वाशय व स्थूलगुद | वेगविधारण, अति भोजन, अजीर्ण में भोजन। | सशूल द्रव, सड़ा हुआ गांठदार मल त्याग काबार-बार होना। | |
स्वेद | मेद व लोमकूप | व्यायाम, अत्यन्त सन्ताप, शीत तथा उष्ण काम रहित सेवन, क्रोध, शोक, | स्वेदाभाव अथवा स्वेदाधिक्य, स्निग्धता |
स्त्रोतस दुष्टी के लक्षण :-
- आतप्रवृत्ति :- दोषों या मलों की अधिक प्रमाण में प्रवृत्ति अथवा अधिक वेग से गति।
- संग :- स्रोतों में विरोध होना है, स्त्रोतसों से धातु अथवा उपधातु अपवा मला का अल्पप्रवृत्ति होती है।
- सिराग्रन्थि :- सिराओं में ग्रन्थि बनना( Varicose vein)
- विमार्ग गमन :- स्वमार्ग की मर्यादा को त्याग कर अन्य मार्ग में धातु अथवा मल का गमन होना।