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Charak Samhita Dravya Guna Syllabus

Bhaishajya Pariksha Vidhi By Acharya Charak

Dravyagun ke syllabus me ish topic ka bas pariksha wala part hai.

भेषज अर्थात् :- औषध को यहां कारण कहा गया है व उसकी परीक्षा व भेदों का वर्णन इस श्लोक में किया गया है।
औषध :-धतुसामय की स्थिति लेने के लिए प्रयतनशील चिकित्सक के लिए जो भी साधक साधन होता है उसे भेषज कहते है।

करणं पुनर्भेषज-भेषजं नाम तद् यदुपकरणोपकल्पते भिषजो धातुसाम्याभिनिवृत्तो प्रयतमानस्य विशेषतश्चोपायान्तेभ्यः । तद् द्विविधं व्यपाश्रयभेदात-देवव्यपाश्रयं युक्तिव्यपा्रयं चेति।
तत्र देवव्यपाश्रयंमन्त्राषधिमणिमङ्गलबल्यपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपात गमनादि।
युक्तिव्यपाश्रयं—संशोधनोपशमने चेष्टाश्च दृष्टफलाः । एतच्चव भेषजमङ्गभेदादपि
द्विविधं-द्रव्यभूतम् अद्रव्यभूतं च। तत्र यद् अद्रव्यभूतं तदुपायाभिप्लतम्। उपायो नाम भयदर्शनविस्मापनविस्मारणक्षोभणहर्षणभर्त्सनवधवन्धस्वप्नसंवाहनादिरमूर्ता भावविशेषो यथोक्ताः सिद्ध्युपायाश्चोपायाभिप्लुता इति । यत्तु द्रव्यभूतं तद् वमनादिषु योगमुपति । तस्यापीयं परीक्षा इदमेवंप्रकृत्येवंगुणमेवंप्रभावमस्मिन देशे जातमस्मिन्नृतावेवगृहीतमेवंनिहितमेवमुपस्कृतमनया च
मात्रया युक्तमस्मिन् व्याधावेवंविधस्य पुरुषस्यैतावन्तं दोषमपकर्षत्युपशमयति वा यदन्यदपि चवंविधं भेषजं भवेत्तच्चानेन विशेषेण युक्तमिति ।। ८७||

भैषज आश्रय भेद से 2 प्रकार का होता है :-
  1. दैवव्यपाश्रय (Godly Based Treatment )—इसमें मंत्र जप, औषध चारण, मणिधारण,मांगलिक स्तुतिपाठ, बलि, उपहार, हवन, नियम ( शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय और ईश्वराराधन ), प्रायश्चित्त(व्रत रहना), उपवास,देवता-गुरु आदि के चरणों में शरणागत होना तथा तीर्थस्थान,देवस्थान आदि की यात्रा करना आदि क्रियाएँ की जाती हैं।
  2. युक्तिव्यपाश्रय ( Management by Medicine, Diet & Regimen ) –यह द्वितीय भेषज है। इसमें प्रत्यक्ष फल देने वाली क्रियाएँ आती हैं; जैसे—संशोधन ( वमन-विरेचन-निरूह-अनुवासन और नस्य),संशमन (प्रलेप, परिषेक, पाचन आदि) और सत्त्वावजय (मन को अपने वश में करके उसे अहितकर विषयों में जाने से रोकना )।
भेषज अंगभेद से 2 प्रकार का होता है :-
  1. द्रव्यभूत (जिसमें किन्हीं वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है) ,वमन-विरेचन आदि क्रियाओं में प्रयोग किया जाता है; जैसे-अमुक द्रव्य के ये गुण हैं, ऐसा प्रभाव है, इस ऋतु में उत्पन्न है, इसका इस रूप में इस रोग में प्रयोग करना चाहिए।
  2. अद्रव्यभूत चिकित्सा :-( जिसमें किसी मूर्तद्रव्य का प्रयोग नहीं किया जाता है); जैसे—भय दिखाना, विस्मापन (चकित कर देना), विस्मरण (रोग जिस बात को बार-बार सोचता है उसे भुला देना), क्षोभण (क्षोभ उत्पन्न करना), प्रसन्नता उत्पन्न करना, भर्त्सना (निंदा या डॉट-फटकार लगाना ) करना, मारने का नाटक करना, रस्सी आदि से बाँधना, सुलाना और कोमल स्पर्श द्वारा शरीर को दबाना आदि, जो स्थूल मूर्तरूप रहित विशेष प्रकार हैं और चिकित्सा की सफलता के साधक, परिचारक आदि ये सब उपाय के अन्तर्गत आते हैं।

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