आयुर्वेद के आठ अंगों को अष्टांग आयुर्वेद (Astang Ayurved) भी कहा जाता है।
कायबालग्रहोर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्राज़रावृषान् । अष्टावङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता ।। (अ. हृ. सू १/५)
- काय चिकित्सा
- बाल चिकित्सा
- ग्रह चिकित्सा / भूत विद्या
- ऊर्ध्वजत्रुगत चिकित्सा / शालाक्य चिकित्सा
- शल्य चिकित्सा
- दंष्ट्रा चिकित्सा/ अगद / विष चिकित्सा
- जरा चिकित्सा / रसायन
- वृष्य / वाजीकरण
तस्यायुर्वेदस्याङ्गान्यष्टौ, तद्यथा-कार्यचिकित्सा, शालाक्यं, शल्यापहर्तृकं, विषगरवैरोधिकप्रशमनं, भूतविद्या, कौमारभृत्यकं, रसायनं, वाजीकरणमिति । (च.सू. 30:28)
आयुषः पालकं वेदमुपवेदमथर्वणः । कायवालग्रहोध्वाङ्गशल्यदंष्ट्रजरावृपैः॥ (अष्टांग संग्रह सूत्र 1/10)
तद्यथा- शल्यं, शालाक्यं, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्यम्, अगदतन्त्रं, रसायनतन्त्रं वाजीकरण तन्त्रमिति । । (सु. सू. १/७)
शल्यशालाक्यकायाश्च तथा बालचिकित्सितम् । अगदं विषतन्त्राख्यं भूतविद्या रसायनम् ॥ वाजीकरणमेवेति चिकित्सा चाष्टधा स्मृता । वैद्यागमेषु सर्वेषु प्रोक्तं श्रेष्ठमतं महत् ॥ (आचार्य हारीत)
तस्य त्वङ्गानि शालाक्य-कायभूतचिकित्सिते। शल्यागद-वयोबालरक्षा-बीजविवर्धनम् ।। (सिद्धसार संहिता)
आयुषः पालकं वेदमुपवेदमथर्वणः । कायवालग्रहोध्वाङ्शल्यदंष्ट्राजरावृषैः ॥ १० ॥ (शार्ङ्गधर संहिता)
इति अष्टाङ्गः, तस्य कौमारभृत्यं कारयचिकित्सा शल्यापहर्तृकं शालाक्यं विषतन्त्रं भूततन्त्रमगदतन्त्रं रसायनतन्त्रमिति। ( का. वि. पृ. 63 )
द्रव्याभिधानगदनिश्चयकायसौख्यं शल्यादिभूतविषनिग्रहबालवैद्यम् । विद्याद्रसायनवरं दृढदेहहेतुमायुःश्रुतेर्द्विचतुरङ्गमिहाह शम्भु: ।।५८ । । ( रा. नि. गदादि वर्ग )
इस तरह अनेक आचार्यों द्वारा विभिन्न संहिताओं व ग्रंथों में आयुर्वेद के आठ अंगों का उल्लेख प्राप्त होता है।
योग शतक ने आयुर्वेद के आठ अंगों में पञ्चकर्म का समावेश किया है।
शरीरनेत्रव्रणरोहणानि विषाणि भूतानि च बालतन्त्रम्। रसायनं पञ्चविधं च कर्म अष्टाङ्गमायुः कथयन्ति वैद्या: ।। ( योग शतक )
- विभिन्न आचार्यों ने अपना मत रखते हुए अलग-अलग अंगों को प्रधानता दी है।
- आचार्य चरक व वागभट्ट ने काय चिकित्सा को प्रधान माना है।
- वहीं सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा की प्रधानता दर्शायी गई है।
- आचार्य काश्यप ने कौमारभृत्य अर्थात बाल चिकित्सा को प्रधान माना है।
1) शल्य चिकित्सा (Surgery)
तत्र, शल्यं नाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्टास्थि बालनखपूयास्रावदुष्टव्रणान्तर्गर्भशल्योद्धरणार्थ, यन्त्रशस्त्र क्षाराग्निप्रणिधानव्रणविनिश्चयार्थञ्च ।। (सु. सू. अ. १/९)
आयुर्वेद के जिस अङ्ग में अनेक प्रकार के तृण (घास), काष्ठ (लकड़ी), पत्थर, धूलि के कण, लीह, मिट्टी, हड्डी, केश, नाखून, पूय (मवाद = Pus), स्त्राव (Discharge), दूषित व्रण, अन्तःशल्य तथा गर्भ (मृतगर्भ) शल्य आदि को निकालने का ज्ञान, यन्त्र, शस, क्षार और अग्निकर्म करने का ज्ञान तथा व्रणों का आम, पच्यमान और पक्व आदि का निश्चय किया जाता हो उसे शल्यतन्त्र कहते हैं।
यन्त्रशस्त्रप्रबन्धैस्तु येन चोदधियते गदः। तच्च शल्योद्धरणकं प्रोच्यते वैद्यकागमे ।९। नाराचबाणशूलाद्यैर्भल्लैः कुन्तैश्च तोमरैः । शिलादिभिर्भिन्नगात्रं तत्र स्याद्यदि शल्यकम् ॥(हा. उ. त. २/१०)॥
वैद्यकशास्त्र में यंत्र- शस्त्रप्रबंध में जिसके द्वारा वैद्य रोग (शल्य) को उद्धृत करता है अथवा निकालता है, उस प्रक्रिया को शल्योद्धरण कहते हैं। नाराच (लोहे का बाण), वल्ली, भालों, कुन्त और तोमरों से शिला और अग्नि से भित्र गात्र वाले को शरीर से निकालना ही शल्य-चिकित्सा होती है।
2) शालाक्य / ऊर्ध्वजत्रुगत चिकित्सा (ENT and ophthalmology)
शालाक्यं नामोध्ध्वजत्रुगतानां रोगाणां श्रवणनयनवदनप्राणादिसंश्रितानां व्याथीनामुपशमनार्थम्, शलाकायन्त्रप्रणिधानार्थं च ।। (सु. सू. अ. १/१०)
आयुर्वेद के जिस अङ्ग में जत्रु के ऊर्ध्वभाग स्थित कान, नेत्र, मुख, नासिका आदि में होने वाले रोगों की शान्ति का वर्णन किया गया हो। तथा शलाकायन्त्रों के स्वरूप तथा प्रयोग करने की विधि का वर्णन किया गया हो उसे शालाक्यतन्त्र कहते हैं।
शिरोरोगा नेत्ररोगाः कर्णरोगा विशेषतः । भूकण्ठशंखमन्यासु ये रोगाः सम्भवन्ति हि ॥१३॥ तेषां प्रतीकारकर्म नस्यवर्त्त्यञ्जनानि च। अभ्यङ्गं मुखगण्डूषक्रिया शालाक्यनामका ॥ (हा. उ. त. २/ १४॥
शिर के रोग, नेत्र रोग, कर्ण रोग विशेष रूप से भ्रू, कण्ठ, शंख, मन्या में जो रोग होते हैं, उनके प्रतिकार के लिये नस्य कर्म, वर्ति, अञ्जन, अभ्यंग, मुख गण्डूष- क्रियायें शालाक्य में वर्णित हैं।
3) कायचिकित्सा (Medicine)
कायचिकित्सा नाम सर्वाङ्गसंश्रितानां व्याधीनां ज्वररक्तपित्तशोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्।। (सु. सू. अ.१/११)
आयुर्वेद के जिस अंग में सर्व शरीरगत रोगों जैसे- ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि को शान्ति का वर्णन हो उसे कायचिकित्सा कहते हैं ।।
कषायगुटिकाद्यैस्तु पाचनी शोधनी च या । कोष्ठामयानां शमनी क्रिया कार्यचिकित्सितम्।। (हा. उ. त. २/१५)
कषाय, गुटिका, आदि, पाचन, शोधन कर्म (स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, बस्ति-इन पाँचो का सम्बन्ध शोधन से है) और कोष्ठ के रोगों को शान्त करने वाली क्रिया काय-चिकित्सा के नाम से व्यपदिष्ट है।
4) ग्रह चिकित्सा / भूतविद्या (Psychiatry)
भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षः पितृपिशाच नागप्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्म बलिहरणादिवहोपशमनार्थम् ।। (सु. सू. अ. १/१२)
आयुवेद के जिस अंग में देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग आदि ग्रहों से पीड़ित चित्तवाले रोगियों के लिए शान्तिपाठ, बलिप्रदान, हवन आदि ग्रह-दोषशामक क्रियाओं का वर्णन किया गया हो उसे भूतविद्या कहते हैं।
ग्रहभूतपिशाचाश्च शाकिनीडाकिनीग्रहाः। एतेषां निग्रहः सम्यग्भूतविद्या निगद्यते ॥ (हा. उ. त. २/१९)
ग्रह, भूत और पिशाच, शाकिनी, डाकिनी, ग्रहों का ठीक प्रकार से (सम्यक्) निग्रह भूतविद्या कहलाती है।
5) कौमारभृत्य / बाल चिकित्सा (Pediatrics)
कौमारभृत्यं नाम कुमारभरणधात्रीक्षीरदोषसंशोधनार्थं दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानाञ्च व्याधीनामुपशमनार्थम् ।। (सु. सू. अ. १/१३)
आयुर्वेद के जिस अङ्ग में बालकों के पोषण, धात्री के दुग्ध के दोषों के संशोधन उपाय तथा दूषित दुग्धपान और ग्रहों से उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा का वर्णन हो उसे कौमारभृत्यतन्त्र कहा गया है।
गर्भोपक्रमविज्ञान सूतिकोपक्रमस्तथा। बालानां रोगशमनं क्रिया बालचिकित्सितम् ॥ (हा. उ. त. २/१६)
गर्भ की चिकित्सा का ज्ञान, सूतिका की चिकित्सा का ज्ञान तथा बालकों के रोग को शमन करने की क्रिया बालचिकित्सा कहलाती है।
6) विष चिकित्सा / अगदतन्त्र (Toxicology)
अगदतन्त्रं नाम सर्पकीटलूतामूषिकादिदष्टविषव्यञ्जनार्थं विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च ।। (सु. सू. अ. १/ १४)
सर्प, कीट, लूता (मकड़ी), चूहे आदि के काटने से उत्पन्न विष-लक्षणों को पहचानने के लक्षण तथा अनेक प्रकार दे स्वाभाविक, कृत्रिम और संयोग-विषों से उत्पन्न विकारों के प्रशमन का जहाँ वर्णन हो उसे अगदतन्त्र कहते हैं।
गुदामयवस्तिरुजं शमनं वस्तिरूहकम् ।आस्थापनानुवासन्तु अगदै नाम एवं च।। (हा. उ. त. २/ १७)
गुदा के रोग एवं वस्तिरोग को शान्त करने वाली, निरूह बस्ति, आस्थापन बस्ति और अनुवासन बस्ति- ये सब अगद तंत्र के नाम से जाने जाते हैं।
7) जरा चिकित्सा / रसायनतन्त्र (Geriatrics)
रसायनतन्त्रं नाम वयःस्थापनमायुर्मेधाबलकरं रोगापहरणसमर्थञ्च ।। (सु. सू. अ. १/१५)
युवावस्था को अधिक समय तक बनी रखने के उपाय, आयु, धारणा-शक्ति और बल की वृद्धि करने के प्रकार, एवं शरीर की स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक शक्ति (Natural immunity) की वृद्धि के तरीकों का जहाँ वर्णन हो उसे रसायनतन्त्र कहते हैं ।
देहस्येन्द्रियदन्तानां दृढीकरणमेव च।वलीपलितखालित्यवर्जनेऽपि च या क्रिया। पूर्ववैद्यप्रणीतं हि तद्रसायनमुच्यते ॥ (हा. उ. त. २/ २०)
शरीर, इन्द्रिय और दाँतों को मजबूत करना और शरीर की झुर्रियाँ, बालों की सफेदी, बालों का झड़ना (खालित्य) इनको ठीक करने वाली जो क्रिया पूर्व वैद्य द्वारा प्रणीत है उसे रसायन के नाम से जाना जाता है।
8) वाजीकरण (Science of Aphrodisiacs)
वाजीकरणतन्त्रं नामाल्पदुष्टक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन प्रसादोपचयजनननिमित्त प्रहर्षजननार्थञ्च ।। (सु. सू. अ. १/१६)
अल्प, दुष्ट, क्षीण और शुष्कवीर्यवाले मनुष्यों के वीर्य की पुष्टि, शोधन, वृद्धि और उत्पत्ति तथा स्वस्थ लोगों में मैथुन के समय हर्ष बढ़ाने के लिए जो वर्णन किया जाता है उसे वाजीकरण तन्त्र कहते हैं।
क्षीणानां चाल्पवीर्याणां बृंहणं बलवर्धनम् । तर्पणं सप्तधातूनां वाजीकरणमुच्यते ॥ (हा. उ. त. २/ २१)
क्षीण और अल्प वीर्य वाले मनुष्यों का बृंहण, बलवर्धन और सप्त धातुओं का तर्पण (तृप्त करना) वाजीकरण कहलाता है।
• उपांगचिकित्सा
छिन्न भिन्न तथा भग्नं क्षतं पिच्चतमेव च । तेषां दग्धप्रतीकारः प्रोक्तश्चोपाङ्गसंज्ञकः ।। (हा. उ. त. २/२२)
विभक्त हुआ, विघटित, टूटा हुआ, छत अर्थात् घाव आदि, पिच्चित (किसी चीज के दबने से हुआ घाव), दग्ध (जला हुआ) इनकी चिकित्सा को उपांग कहा गया है।
• पंचकर्म ( Panchkarma ) :-
“प्रथमं वमनम् पश्चाद विरेकश्चानुवासनम्। ऐतानि पंचकर्मणि निरूहो नावनं तथा ! (भा.प्र.पू.7/1)
आचार्य चरक ने वमन, विरेचन, निरुह वस्ति, अनुवासन वस्ति व नस्य- इन पांच कर्मों को पञ्चकर्म में उल्लेख किया है।
वमनं रेचनं नस्यम निरुहस्य च अनुवासनम ऐतानि पंचकर्मणि कथितानी मुनिश्वरे !! (शा.उत्तर 8/70)
आचार्य शार्ङ्गधर व भावप्रकाश ने भी आचार्य चरक का अनुसरण किया है।
जबकि आचार्य सुश्रुत ने पञ्चकर्म के अन्तर्गत वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य व रक्तमोक्षण को लिखा है।
One reply on “Astang Ayurved | अष्टांग आयुर्वेद – 8 Branches of Ayurveda”
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