अग्निः सोमो वायुः सत्त्वं रजस्तमः पञ्चेन्द्रियाणि भूतात्मेति प्राणाः ।। ३ ।।
अग्नि, सोम, वायु, सत्व, रज, तम, पांच इन्द्रियाँ (ज्ञानेन्द्रियाँ) और भूतात्मा (जीवात्मा) ये प्राण हैं।यहां पर 12 प्राणों के बारे में बताया है ।
तस्य खल्वेवं प्रवृत्तस्य शुक्रशोणितस्या-(क्वचित् ‘शुक्रशोणितस्य’ पाठो न विद्यते) भिपच्यमानस्य
येव सन्तानिकाः सप्त त्वचा-(घट्ट त्वचा ‘पा.’) भवन्ति । तासां प्रथमा वभासिनी नाम, या सर्वान्विभासयति पञ्चविधां च छाया प्रकाशयति । सा व्रीहेरष्टादशभागप्रमाणा, सिध्मपनकण्ट-काधिष्ठाना ।
द्वितीया रोहित नाम व्रीहि षोडश भाग प्रमाण, तिलकालक न्यच्छ व्यङ्गाधिष्ठाना।।
तृतीया श्वेता नाम व्रीहिद्वादशभागप्रमाणा, चर्मदलाजगल्लीमशकाधिष्ठाना।
चतुर्थी ताम्रानाम व्रीहेरष्टभाग प्रमाणा, विविध क्लास कुष्ठाधिष्ठाना
पंचमी बंदिनी नाम व्रीहि पञ्चभाग प्रमाणा,कुष्ठ विसर्पाधिष्ठाना ।
षष्ठी रोहिणी नाम व्रीहि प्रमाण, ग्रन्थ्यपच्यर्बुदश्लीपदगलगण्डाधिष्ठाना ।
सप्तमी मांसधरा नाम ब्रीहिद्वयप्रमाणा,भगन्दरविद्रध्यशोऽघिष्ठाना यदेतत् प्रमाण निर्दिष्टं तन्मांसलेष्ववकाशेषु न ललाटे सूक्ष्माङ्गुल्यादिषु च, यतो वक्ष्यत्युदरेषु ‘ब्रीहि मुख्य नाङ्गष्ठोदरप्रमाण मवगाढं विध्येत्’ इति । ४।
इस श्लोक में त्वचा का वर्णन किया गया है जिस प्रकार भूतात्माधिष्ठित शुक्र और शोणित के पक्व होने पर, जिस प्रकार दूध पर मलाई आती है उसी प्रकार सात त्वचाओं के स्तर बनते हैं।
अवभासिनी | 5 प्रकार की छाया प्रकाशित करता है ( महाभूत के अनुसार छाया) | 1/18 | सिष्म, पभ कंटक आदि रोग |
लोहिता | 1/16 | तिलकालक,न्यचछ,व्यङ्ग आदि रोग | |
श्वेता | 1/12 | चर्मदल,उजगल्लिका मशक ( मस्सा) | |
ताम्रा | 1/18 | किलास,कुष्ट,विसर्प | |
वेदिनी | 1/5 | ग्रन्थि,अपची | |
रोहिणी | 1 | अर्बुद,गलगण्ड | |
मांसधरा | 2 | भगंदर,विद्रधि,बवासीर |
कलाः खल्वपि सप्त भवन्ति धात्वाशयान्तर मर्यादा ।।५।।
कला-वर्णन:- कलायें भी साथ होती हैं, वे धातु और आशयों के मर्यादा-स्थान पर होती हैं।
यथा हि सारः काष्ठेषु छिद्यमानेषु दृश्यते । तथा हि धातुर्मासेषु छिद्यमानेषु दुश्ये ॥ ६॥
स्नायुभिश्च प्रतिच्छन्नान् सन्ततांश्च जरायुणा । श्लेष्मणा वेष्टितांश्चापि कलाभागांस्तु तान् विदः।७॥
कला-स्वरूप :– जैसे लकड़ी काटने से सार का दर्शन होता है उसी प्रकार मांस को काटने पर धातु का दर्शन हो वही रस और रक्त रूपी द्रव्य है।।स्नायुओं से ढके हुए और जरायु (झिल्ली) व्याप्त तथा कफ से वेषित भागों का का।
तासां प्रथमा मांसधरा नाम, यस्यां मांसगतानां ( ‘मांसे’ वा) शिरास्नार्ुयमी-त्रीतसां प्रताना भवन्ति ।।८।।
यथा बिसमृणालानि विवर्द्धन्ते समन्ततः । भूमौ पङ्कोदकस्थानि तथा मांसे सिराऽऽदयः ।। ९ ।।
द्वितीया रक्तधारा मांसस्याभ्यन्तरतः, तस्यां शोणितं विशेषतश्च सिरासु यकृत्प्लीह्वोश्च भवति (स्रवति)||१०।
वृक्षद्यथाऽभिप्रहतात् क्षीरिणः क्षीरमास्रवेत् । मांसादेवं क्षतात् क्षिप्रं शोणितं संप्रसिच्यते ।।११।।
तृतीय मदोधारा; मेदो हि सर्वभतानामदरस्थमण्वस्थिषु च महत्सु च मज्जा भवति ।।१२।।
स्यूलास्थिषु विशेषेण मज्जा त्वभ्यन्तरा श्रितः । अथेतरेषु सर्वेषु सरक्त मेद उच्यते । शुद्ध मांसस्य यः स्नेहः सा वसा परिकीर्तिता ।। १३ ।।
चतुर्थी शलेष्पधरा, सर्वसन्धिषु, प्राणभृतां भवति । १४।।
स्नेहाभ्यक्ते यथा हाक्षे चक्रं साधु प्रवर्त्तत । सन्धयः साधु वर्त्तनते संश्लिष्टाः श्लेष्मणा तया ।१५॥
पचंमी पुरीषधरा नाम, याऽन्तः कोष्ठे मलमभिविभजते पक्वाशयस्था ।।१६।।
यकृत समन्तात् कोष्ठं च तथाऽन्त्राणि समाश्रिता । उण्डुक स्थं विभजते मल मलयरा कला।।
षष्ठी पित्तघरा या चतुर्विधमन्नपानमाशयात् प्रच्युतं पक्वाशयोपस्थितं धारयति।।
अशित्म खादितम पात लाढ कोष्ठगत नृणाम् । तज्जीर्यति यथाकालं शोषित पित्त रस।।
सप्तमी शुक्रधरा, या सर्व प्राणिनां सर्व शरीर व्यापिनी ।।२०।।
यथा पयसि सर्पिस्तु गूढश्रेक्षुरसे यथा ।
शरीरेषु तथा शुक्रं नृणां विद्याद्भिषग्वरः ॥२०॥
द्वयङ्गले दक्षिणे पार्श्वे बस्तिद्वारस्य चाप्यधः।
मूत्रस्रोतःपथाच्छुक्रं पुरुषस्य प्रवर्तते ॥२१॥
कृत्स्नदेहाश्रितं शुकं प्रसन्नमनसस्तथा ।
स्त्रीषु व्यायच्छतश्चापि हर्षात्तत् संप्रवर्तते ॥२२॥
मासधरा | इसमें सीरा,स्नायु,धमनी व स्त्रोतस की शाखाएं होती है |
रक्तधरा | यह मांस धरा कला के अंदर होती हैं। यह सिराओ,यकृत,प्लीहा में पाई जाती है। |
मेदधरा | उदर, छोटी- छोटी हड्डियों में मिलती है ( मांस का स्नेह भाग वसा होता है, बड़ी हड्डियों में मेद होता है) |
श्लेष्मधरा | सभी हड्डियों में , संधियों को अच्छी तरह से चलने का काम करता है। |
पुरीषधरा | कोष्ठ व पकवश्याय का आश्रय,यकृत के पास ( मल का विभाजन करता है) |
पित्तधरा | चार प्रकार के भोजन को आमशय से पकवश्य की ओर धकेलते है। |
शुक्रधरा | सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त |
गृहीतगर्भाणामार्तववहानां स्रोतसां वान्यव रुध्यन्ते गर्भेण,
तस्माद्वृहीतगर्भाणामार्तचं न दृश्यते;
ततस्तदधः प्रतिहतमूर्ध्वमागतमपरं चोपचीयमा नमपत्यभिधीयते;
शेषं चोर्ध्वतरमागतं पयोधराव भिप्रतिपद्यते, तस्माद् गर्भिण्यः पीनोन्नतपयोधरा भवन्ति ॥२३॥
गर्भवती स्त्री के आर्तव न दीखने तथा पुष्ट स्तन और अपरा बनाने में कारण-गर्भवती स्त्रियं में आर्त्वह स्रोतों के गर्भ के कारण रुक जाते हैं, इसलिए गर्भवती स्त्रियों का आर्त्तव दीखता नहीं, किन्तु वह रुका हुआ आर्तव नीचे न जाते ऊपर की ओर (गर्भाशय में) एकत्र होता है जिसे ‘अपरा’ कहते हैं, शेष रुका हुआ आर्व स्तनों को प्राप्त होता है जिससेभणी के स्तन पृष्ट और उन्नत हो जाते हैं।
** अब यहां से अंगो की उत्पति के बारे में बताया जाएगा।
गर्भस्य यहृद्गीहानौ शोणितजी, शोणित फेन-
प्रभव। फुफ्फुस:, शोणितकिटृट प्रभव उण्डुकः ॥२५॥
असृजः कलेप्मणशापि यः प्रसादः परो मतः ।
तं पच्यमानं पित्तेन वायुधाप्यनुधावति ॥२५॥
ततोऽस्यान्त्राणि जायन्ते गुदं बस्तिश्च देहिनः।
उदरे पच्यमानानामाध्मानाद्रुक्मसारवत् ॥२६॥
कफशोणितमांसानां सारो जिह्वा प्रजायते ।
यथार्थमूष्मणा युक्रो वायुः स्रोतांसि दारयेत् ॥२७॥
अनुप्रविश्य पिशितं पेशीर्षिभजते तथा ।
मेदसः स्नेहमादाय सिरास्नायुत्वमामुयात् ॥२८॥
सिराणां तु मुद्धुः पाकः स्त्रायून्ना च ततः खर:।
भाशय्याभ्यासयोगेन करोत्याशपसंभवम् ॥२९॥
रक्तमेदप्रसादाइकी। मांसाणृक्कफमेदःप्रसादा-
एषणी। शोणितकफपरसाद पइदय यचाधया दि
धमन्यः प्राणवददा। तंस्याधो वामत ह्वीहा फुष्फु
सध, दक्षिणतो यकृत् कोम च तदर्य विशेषण
चेतनास्थानम्, बतस्तस्मिंस्तमसा5.ऽुते सर्वप्राणिनः
खपन्ति ॥३०॥
पुण्डरीकेण सदृशं हृदयं स्यादधोमुखम् ।
जाग्रतस्तद्विकसति स्वपतश्च निमीलति ॥३१॥
इसमे अंतिम शलोक में हृदय स्वरूप बताया है जो कि इस प्रकार है :-
प्राणवह धमनियों का स्थान है, इसके नीचे बाई और प्लीहा व फुसफुस व दक्षिण की ओर यकृत व कलोम होता है। यह विशेष रूप से चेतना का स्थान होता है जब तम इशे आच्चदित करता है तो प्रणिलोग सोजाते है।
हृदय कमल के समान, अधो मुख होकर रहता है, जागृतावस्था में प्रफुल्लित होता है व सुप्तावस्था में संकुचित होता है।
अंग | उत्पति |
यकृत,प्लीहा | गर्भ के रक्त से |
फुसफुस | रक्त के फेन से |
अंडुक | रुधिर के मल से |
आंत्र, गुद,बस्ति | रक्त व कफ के सार भाग – पित्त पचाते समय वायु के उधर दौड़ती से |
जिह्वा | पेट में पचने वाले कफ,रक्त, मांस के सत्व से |
स्रोत का विडिर्ण | उष्णता से युक्त वायु से |
पेशिया | वायु मास को प्राप्त होकर विभक्त करने से |
स्नायु | मेद के खर पाक से |
सिरा | मेद ने मृदु पाक से |
आशय | वार्गवार रहते हुए वायु उत्पति करता है |
वृक्क | रक्त व मेद का सार |
वृषण | मांस,रक्त,कफ का सार |
हृदय | मांस,रक्त,कफ का सार |
निद्रां तु वैष्णवीं पाप्मानमुपदिशन्ति, सा
स्वभावत एव सर्वप्राणिनोऽभि स्पृशति । तत्र यदा
संशावहानि स्रोतांसि तमोभूयिष्ठः श्लेष्मा प्रति
पद्यते तदा तामसी नाम निद्रा भवति नववो
धिनी, साप्रलयकाले; तमोभूयिष्ठानामहःसु निशासु
च भवति, रजोभूयिष्ठानामनिमित्तं, सत्त्व
भूयिष्ठानामर्धरात्रे, क्षीणश्लेष्मणामनिलबहुलानां
मनःशरीराभितापवतां च नैव, सा वैकारिकी भवति ॥३२॥
वैष्णवी :- विष्णु की माया स्वरूप है उसे पपिनी कहते है।( मृत्यु के समय आती है)
तामसी :- तमोगुण के कारण,संज्ञा वह स्त्रोतस को प्राप्त होता है, ज्ञान नहीं होने देती, प्रलय काल में आती है।
तमोगुण वाले व्यक्ति :- दिन व रात में निद्रा प्राप्त होता है।
रजोगुण वाला व्यक्ति :- कभी रात में कभी दिन में निद्रा ( निश्चित समय नहीं होती)
सत्व गुण वाला व्यक्ति :- अर्द्ध रात्रि को निद्रा प्राप्त
विकारी:- कफ क्षीण होने पर, मन व शरीर में पीड़ा होने पर निद्रा नहीं आती।
हदयं चेतनास्थानमुक्तं सुभुत ! देहिनाम् ।
तमोभिभूते तस्मिस्तु निद्रा विशति देहिनम् ॥३३॥
निद्रा हेतुस्तमः सर्वं, बोलने हेतु रुच्यते ।
स्वभाव एव वा हेतुर्गरीयान् परे कीर्त्यते ॥३४॥
निद्रा के स्थान व कारण :-वायक्ती का चेतना स्थान हृदय है और जब वह हृदय तमोगुण से व्याप्त हो जाता है तब निद्रा प्राप्त होती है। निद्रा से जागने का कारण सत्व है व होने का कारण तम है । निद्रा का स्वभाव ही प्रधान कारण है, स्वभाव के अलावा ओर कोई कारण नहीं है अगर ऐसा नहीं होता तोह सत्व गुण वाला व्यक्ति हमेशा जागता ही रहता इसलिए निद्रा का आना स्वभाव ही है।
पूर्वदेहानुभूतांस्तु मूतात्मा स्वपतः प्रमुः ।
रजोयुक्तन मनसा गृहात्ययान शुमागुमान ।।३५।।
निद्रा बोध नहीं होने देती पर फिर स्वप्न दर्शन कैसे होते है – सोते हुए व्यक्ति का स्वामी भूतात्मा होता है, वहीं रजोगुण युक्त मन से पुर्वदेह से अनुभव किए अच्छे या बुरे अर्थ ग्रहण करते है।
करणानां तु वैकल्ये तमसाऽभिप्रवर्धिते।
अस्वपन्नपि भूतात्मा प्रसुप्त इव चोच्यते ॥३६॥
तम द्वारा इन्द्रियों की विकलता बढ़ने पर न सोता हुआ भी जीवात्मा सोता हुआ सा कहा जाता है ।
सर्वर्तुषु दिवास्वापः प्रतिषिद्धोऽन्यत्र ग्रीष्मात् , प्रतिषिद्धेष्वपि तु वालवृद्धस्त्रीकर्शित क्षतक्षीणमद्य नित्ययानवाहनाध्वकर्मपरिधान्तानामभुक्तवता मेद:
स्वेदकफरसरक्गत्षीणानामजीर्णिनां च मुहूर्त दिवा स्वपनमप्रतिषिद्धम् ।
रात्रावपि जागरितवतां जागरितकालादर्धमिष्यते दिवास्वपनम् ।
विकृतिर्हि दिवास्वप्नो नामः तत्र स्वपतामधर्मः सर्वदोष प्रकोपश्च, तत्प्रकोपाच्च कासश्वासप्रतिश्याय शिरो गौरवाङ्गमर्दारोचकज्वराग्निदौर्बल्यानि भवन्तिः
रात्रावपि जागरितवतां वातपित्तनिमित्तास्त एवो पद्रवा भवन्ति ॥३७॥
निद्रा के नियम व उनके परिपालन न करने के दोष :- ग्रीष्म ऋतु केअतिरिक्त सब ऋतुओं में दिन में सोना निषिद्ध है । परन्तु निषिद्ध ऋतुओं में भी बाल, वृद्ध, स्त्रीसंग के कारण थके हुए, क्षतयुक्त, दुर्बल, मद्य नित्य सेवन करनेवाले, गाड़ी में बैठने से,सवारी करने से, प्रवास करने से, काम करने से थके हुए, भोजन न किये हए, मेद, स्वेद, कफ, रस और रक्त जिनमें क्षीण हो गया हो अपचन से पीड़ित इनको दिन में एक मुहूर्त और नींद लेने की निषिद्ध नहीं है। रात में भी जो (कारणवश ) जागृत रहे उनके लिए प्रजागर काल से आधा काल दिन में सोना उचित होता है। दिन में सोना विकृति है, दिन में सोने से अधर्म और सर्व दोषों प्रकोप से खासी श्वास, सर्दी, शरीर में पाया, अरोचक, ज्वर और अग्नि की तमन्ना सोता (ये विकार) होते हैं। रात को भी जागरण करने वालों को वात और पित्त के कारण उन्हीं के समान उप द्रव (उत्पन्न) होते हैं।
तस्मान्न जागृयाद्रात्रौ दिवास्वप्नं च वर्जयेत् ।
ज्ञात्वा दोष करावैतौ बुध: स्वप्नं मितं चरेत् ॥३८॥
अगरोग: सुमना होवं बलवर्णान्वितो तृपः ।
नातिस्थूल कृश: श्रीमान् नरो जीवेत् समाः शतम्॥३९।।
निद्रा सात्म्यीकृता यैस्तु रात्रौ च यदि वा दिवा ।
(दिवारात्रौ च ये नित्यं स्वप्न जागरण चिता।)
न तेषां स्वपतां दोषो जाग्रतां वाऽपि जायते ॥४०॥
निद्रा-नाश हरण करने के उपाय – निद्रा के नाश होने पर शरीर में तैल की मालिश करना चाहिये, हाथ-पैर और बदन पर उबटन लगाना चाहिए, उसी प्रकार संवाहन (हाथ-पैर दबाना) इत्यादि कारनी चाहिए।इक्ष (ईख के बनाये हए पदार्थ जैसे-चीनी, गुड़, खांड, मिश्री आदि), शालि चावल, गेहूं तथा का सेवन करना चाहिये । दूध, मांसरस इत्यादि से स्निग्ध (चिकनाहट वाला) और मधुर (मीटा) भोजन में रहने वाले (चूहा इत्यादि) तथा विष्किर (मुर्गा जो बिखेर कर खाने वाले) ऐसे जीवों का मांस खाना चाहिये।(अंगूर या मुनक्का), सिता (मिश्री), इक्षु (ईख, गन्ना) तथा ईख से बने हुए पदार्थों जैसे-चीनी,मिश्री,इत्यादि सेवन से निद्रा प्राप्त होती है।
सोने के लिए बिछौना, आसन तथा सवारियाँ (मोटर, रेल, टांगा) इत्यादि मृदु (कोमल) और मनोहर हल योग निद्रा-नाश पर करना चाहिये ।धूप की सुगन्ध देना, मन्द-मन्द प्रकाश रखना, सुरक्षित स्थान में निवास करना, मूदु भाषण करना या गाना की मधुर का कर्णगोचर होना, या अच्छे समाचार पत्र वगैरह श्रवण करना इनका निद्रा का नाश होने पर उपाय करना चाहिए
निद्राऽतियोगे वमनं हितं संशोधनानि च । लानं रक्तमोक्षश मनोव्याकुलनानि च ।।४।।
अतिनिद्रा की चिकित्सा :-यदि अतिनिद्रा आती हो तो वमन ( के), संशोधन (विरेचन, आस्थापनों द्वारा) देना चाहिए लंघन (भोजन न देना), रक्तमोक्षण (खून निकला), उसी प्रकार मन को सन्तप्त करने वाली वस्तुओं से निद्रा का नाश होता है।
कफ-मेदो-विषात्तानां रात्रौ जागरण हितम् ।
दिवास्वप्नच तृट्-शूल-हिक्काऽजीर्णातिसारिणाम् ।। ४७॥
कफ विकार, मेद रोग, विष रोग में रात्रि जागरण हितकर होता है व दिन में सोना तृष्णा रोग,शूल,हिक्का,अजीर्ण, अतिसार में हितकर होता हैं।
इन्द्रियार्थेष्वसंप्राप्तिर्गौरवं जृम्मण कलमः ।
निद्रार्तस्येव यस्येहा तस्य तन्द्रां विनिर्दिशेत् ॥४८॥
तंद्रा :- इन्द्रियों के (शब्द स्पर्श आदि) अर्थों का ग्रहण न होना, (शरीर में) भारीपन, जृम्भर्ण, थकावट और अनिद्रा से पीड़ित हुए के समान चेष्टा होती है।
पीत्वैकमनिलोच्छ्वाससमुद्वेष्टन् विव्वृताननः ।
यं मुञ्चति सनेत्रास्त्रं स जृम्भ इति संज्ञितः ॥४९॥
जृम्भा :- मुख खोलकर, एक हवा का श्वास लेकर, उद्वेष्टन हो, जिस श्वास को मुख से छोरते हुए आखो से आंसू लाती है वह उबस्सी कहते है।
योऽनायासः श्रमो देहे प्रवृद्धः श्वासवर्जितः ।
कलमः स इति विज्ञाय इन्द्रियार्थ प्रवाचकः ॥५०॥
क्लम :- बिना श्रम किए शरीर में श्रम जैसा लगे, जिसमें श्वास न आता हो, इन्द्रियार्थ में विघ्न होता है।
सुख स्पर्शप्रसङ्गित्वं दुःख द्वेषण लोलिता ।
शक्तस्य चाप्यनुत्साहः कर्मस्वालस्यमुच्यते ॥५१॥
आलस्य :- बलवान मनुष्य की सुख में आसक्ति, दुख से द्वेष, शक्ति होने पर भी काम करने का उत्साह नहीं रहना
उक्लिश्यान्नं न निर्गच्छेत् प्रसेकष्ठीवनेरितम् ।
हृदयं पीड्यते चास्य तमुत्क्लेशं विनिर्दिशेत् ॥५२॥
उत्क्लेश :- मुख से पानी आना , थूक से पीड़ित हुआ अन्न वमन के सामान पीड़ा देकर हृदय को पीड़ा देता है व स्वयं बाहर नहीं निकलता ।
वक्त्रे मधुरता तन्द्रा हृदयोद्वेष्टनं भ्रमः।
न चान्नमभिकाङ्केत ग्लानिं तस्य विनिर्दिशेत् ॥५३॥
ग्लानि :- मुँह का स्वाद मीठा, तन्द्रा, हृदय में पीड़ा,भ्रम (चक्कर आना) और अन्न सेवन में अनिच्छा’ (ये लक्षण जिसमें हों) उसमें ग्लानि (है, ऐसा) समझना चाहिए।
आर्द्रचर्मावनद्धं चा(हि) यो गात्रमभिमन्यते ।
तथा गुरु शिरोऽत्यर्थ गौरवं तद्विनिर्दिशेत् ॥५४।
गौरव :- शरीर का गीले चमड़े से लिप्ता हुआ लगे, सिर में भारीपन जैसा प्रतीत हो जाए।
मूर्छा पित्ततमःप्राया, रजःपित्तानिलाशमः ।
तमोवातकफात्तन्द्रा, निद्रा श्लेष्मतमोभवा ॥५५॥
मूर्च्छा :- पित्त व तम प्रधान होती है
भ्रम :- रज, पित्त व वात प्रधान होती है
तद्रा , निंद्रा :- तम , कफ प्रधान होते है।
गर्भस्य खलु रसनिमित्ता मारुताध्माननिमित्ता च परिवृद्धिर्भवति ॥५६॥
तस्यान्तरेण नामेस्तु ज्योतिःस्थानं ध्रुवं स्मृतम् ।
तदाधमति वातस्तु देहस्तेनास्य वर्धते ॥५७॥
ऊष्मणा सहितश्चापि दारयत्यस्य मारुतः ।
ऊर्ध्व तिर्यगधस्ताच्च स्रोतांस्यपि यथा तथा ॥५॥
गर्भ वृद्धि के कारण :- अन्न रस से व वायु के अधमान से पूर्ण होता है, गर्भ में नाभि का मध्य भाग निश्चित तौर से ज्योति का स्थान है वायु इसी स्थान को फुक्ता है, जिससे गर्भ की देह बढ़ती है। वायु उष्णता के साथ मिलकर ऊपर,नीचे, तिरछा जाता हुआ किसी प्रकार गर्भ के स्रोत में फैलता है।
दृष्टिश्च रोमकूपाश्च न वर्धन्ते कदाचन ।
ध्रुवाण्येतानि मानवमिति धन्वन्तरि र्मत ॥५९॥ शरीरे क्षीयमाणेऽपि वर्धेते द्वाविमौ सदा ।
स्वभावं प्रकृति कृत्वा नखकेशाविति स्थितिः ॥६०॥
नित्य बढ़ने वाले अङ्ग :- शरीर क्षीण होने पर भी नख व केश नित्य बढ़ते है।
न बढ़ने वाले अङ्ग :- मनुष्य की दृष्टि व लूमकूप कभी भी नहीं बढ़ते ।
सप्त प्रकृति भवन्ति-दोषाः पृथक्, द्विशः समस्तैश्च ॥६॥
शुक्रशोणित संयोगे यो भवेद्दोष उत्कटः ।
प्रकृति र्जारयते तेन तस्य मे लक्षणं शृणु ॥६२॥
शुक्र और शोणित के सहयोग में जो दोष का प्रबल होता है, उसी से (पुरुष की) प्रकृति उत्पन्न होती है। शुक्र और शोणित के सहयोग में जो दोष का प्रबल होता है, उसी से (पुरुष की) प्रकृति उत्पन्न होती है। प्रकृति 7 होती है 1-1 दोष से 3, 2-2 दोष से 3, 3 दोष से 1।
तत्र यः प्रजागरूकः शीतद्वेषी दुर्भगः स्तेनो मत्सर्यनार्यो गान्धर्वचित्तः स्फुटितकरचरणोऽल्प रूक्षश्मश्रुनखकेशः क्रोधी दन्तनखखादी च भवति ॥६३॥
तत्र यः प्रजागरूकः शीतद्वेषी दुर्भगः स्तेनो मत्सर्यनार्यो गान्धर्वचित्तः स्फुटितकरचरणोऽल्प रूक्षश्मश्रुनखकेशः क्रोधी दन्तनखखादी च भवति ॥६३॥
अधृतिरदृढसौहृदः कृतघ्नः कृष पुरुषों धमनी ततः प्रलापी।
द्रुतगतिरटनोऽनवस्थितात्मा वियति च गच्छति संभ्रमेण सुप्तः ॥६॥
अव्यवस्थितमतिश्चलदृष्टि मन्दरत्नधनसंचयमित्रः ।
किंचिदेव विलपत्यनिवद्धं मारुतप्रकृतिरेष मनुष्यः ॥६५॥
वातिकाश्चाजगोमायुशशाखूष्ट्रशुनां तथा।
गृध्रकाकखरादीनामनूकैः कीर्तिता नराः ॥६६॥
स्वेदनो दुर्गन्धः पीतशिथिलाङ्गस्ताम्रनखार तानुजिह्वौष्टपाणिपादतलो दुर्भगो वलिपलितथः लियजुष्टो बहुभुगुष्णद्वपी क्षिप्रकोपप्रसादो मध्य मबलो मध्यमायुश्च भवति ॥६॥
मेघावी निपुणमतिविगृरह्य वह्ला तेजस्वी समितिषु दुर्निवारवीयः ।
सुनः सन् कनकपलाशुकर्णिकारान् संपझ्येदपि च हुताशविद्युदुल्काः ॥६८॥
न मयात् प्रणमेदनतेष्वमृदुः प्रणतेष्वपि सान्त्वनद्ानरुचिः भवतीह सदा व्यथितास्यगतिः
स भवेदिह पित्त प्रकृति: ॥६९॥
भुजङ्गोलू गन्धर्व यक्ष मार्जार नरः
व्याघ्रर्क्षन कुलानूकेः पैक्तिकास्तु नराः स्मृताः ॥७०॥
एलेप्पप्रकृतिप्तु-दूर्वेन्दीयर-निखिशारिष्टकशरकाण्डानामन्यतमवर्णः सुभगः प्रियदरशनो मधुरप्रिय: कृतज्ञो पृतिमान् सहिण्णुरलोलुपो बलवाश्चिरप्राही दृष्टवैरश्च भवति ।।७१।।
शुक्लाक्षः स्थिरकुटिलालिनीलकेशो लक्ष्मीवान् जलदमृदङ्गसिंहघोषः ।
सुप्तः सन् सकमलहंसचक्रवाकान् संपश्येदपि च जलाशयान् मनोज्ञान् ।।७२।।
सुविभक्तगात्रः सिग्ध छवि सत्त्वगुण पपन्नः ।क्लेशक्षमो सामयिता गुरूणां ज्ञेयो बलासप्रकृतिर्मनुष्यः ।।७३।
परिनिश्चितवाक्यपदः सततं गुरुमानकरश्च भवेत् स सदा ।। ७४।।
ब्रह्मुद्रेद्र्रुणैः सिंहाश्वगजगोवृषैः । ताक्ष्ष्य- हंस-समानूकाः श्लेष्मप्रकृतयो नरा: ।।७४।
वात प्रकृति के लक्षण :-
कम नींद लेने वाला,कुरूप, द्वेशी,दुष्ट प्रकृति वाला, फटे हाथ – पैर वाला,गंधर्व चित वाला,अतिरुक्ष दाढ़ी, मूछ,बाल वाला,शीत दिवेशी,क्रोधी,दांत से नख खाने वाला,धैर्याराहित,गहरी दोस्ती न रखने वाला,कृतघ्न, कृश,रुक्ष शरीर वाला, veins prominet,बक्वादी,चंचल, शिग्र गमी,अति अस्थिर।
निद्रा में आकाश के सपने देखने वाला, पैसा,मित्र,रतन कम वाला, बकरी,खरगोश,कौआ,मूसा,कुत्ते के समान होता है।
पित्त प्रकृति के लक्षण :-
अधिक पसीना वाला,बदन दुर्गन्ध के साथ, अंग पीले रंग के,नाखून,आंख, तालु, विव्हा , हाथ – पैर ताम्र वर्ण के। पालित, खलित्य युक्त वाला, बहुत खाने वाला,उष्णता से द्वेष करने वाला,शीघ्र कुपित होने वाला – शीघ्र शांत होने वाला,मध्यम शक्तीवाला,मध्यम आयु वाला,बुद्धिमान – तेज बुद्धि वाला, दूसरो का खंडन मंदन करने वाला,पराक्रमी,शांति व उग्र शांति करने वाला।
निद्रा में सुवर्ण,पलाश , विघूत देखता है,गंधर्व,यक्ष,सर्प,उल्लू, वानर के समान होता है।
कफ प्रकृति के लक्षण :-
प्रियदर्शन,मीठी वस्तुओं को खाने वाला, कृतज्ञ,धैर्यशील,सहनशील, शक्तिवाला,बहुत देर से ग्रहण करने वाला,पूर्ण शत्रुता रक्ते वाला,आंख सफेद,केश मजबूत,शब्द मेघ के समान गम्भीर होते है,नेत्रप्रदेश लाल होते है व शरीर गठीला होता है,सत्व गुण युक्त,कष्ट सहने वाला,शास्त्र में दूढ़ मती वाला,मित्र घन व धनवान होता हैं।
सपने में कमलो के संग हंस ,सुंदर जलाशय देखता है, व देवताओं के वाहन के सामन देखे जाते है जैसे सिंह,गज,वृष आदि।
छयोर्वा तिसृणां वाऽपि प्रकृतीनां तु लक्षणैः ।
शात्वा संसर्गजा वैद्यः प्रकृतीरभिनिर्दिशेत् ॥७६॥
दो या तीनों प्रकृतियों के लक्षणों से (युक्त) प्रकृतियों को मालूम करके वैद्य (उनें) उत्पन्ष होते हैं।
प्रकोपो वाऽन्यभावो वा क्षयो वा नोपजायते ।
प्रछृतीनां स्वभावेन जायते तु गतायुषः ॥७७॥
प्रकृति स्थिर रहती है , स्वभाव से ही प्रकृति का कोप या प्रकृति के कारण रोग उत्पति या प्रकृति का हास नहीं होता , यह तो तब होता है जब आयुष्य की अंतिम अवस्था हो । अर्थात् :- प्रकृति बदली नहीं जा सकती मारने के बाद ही बदलती है।
विषजातो यथा कीटो न विषेण विपद्यते । तद्वत्प्रकृतयो मत्त्यं शक्नुवन्ति न बाधितुम् ।।७८।।
जैसे विष में पैदा हुए कीड़े विष से नहीं मरता उसी प्रकार प्रकृति भी विशेष बाधा देने में असमर्थ है। अर्थात् :- प्रकृति से रोग उथपन नहीं होता।
प्रकृति सिंह नराणां भौतिकी केचिदाहुः पवनदहनतोयैः कीर्तितास्तास्तु तिस्त्र:।
स्थिर विपुलशरीर: पार्थिव श्च क्षमावान शुचि रथ चिरंजीवी नभसः खै महद्भिः ॥७९॥
कई आचार्य आयुर्वेद में भौतिक प्रकृति भी कहते है जो कि इस प्रकार है
आकाश | दीर्घायु,पवित्र,बड़े – बड़े चिद्रो युक्त |
वायु | वात |
जल | कफ |
अग्नि | पित्त |
पृथ्वी | स्थिर,विपुल,क्षमाशील |
** इसे आगे शलोक में त्रिगुणो के अनुसार प्रकृति का वर्णन किया गया है।
शौचमास्तिक्यमभ्यासो वेदेषु गुरुपूजनम् । प्रियातिथित्वमिज्या च ब्रह्मकायस्य लक्षणम् ।।८०।|
माहात्म्यं शौर्यमाज्ञा च सततं शास्त्रबुद्धिता । भृत्यानां भरणं चापि माहेन्द्र कायलक्षणम् ।८१॥|
शीतसेवा सहिष्णुत्वं पैङ्गल्यं हरिकेशता । प्रियवादित्वमित्येतद्वारुणं कायलक्षणम् ।।८२।।
मध्यस्तथा सहिष्णुत्वमथस्यागमसञ्चयौ । महाप्रसवशक्तित्वं कौबेरं कायलक्षणम् ।।८३।।
गन्धमाल्यप्रियत्वं च नृत्य-वादित्र-कामिता । विहारशीलता चैव गन्धर्व काय लक्षणम् ।।४।।
प्राप्तकारी दृढोत्थानो निर्भयः स्मृतिमाञ्छुचिः । रागमोहमदद्वेषैर्वर्जितो याम्यसत्त्ववान् ।।८५॥।
जप व्रत ब्रह्मचर्य- होमाध्ययनसेविनम् । ज्ञान-विज्ञान- सम्पन्नमृषिसत्त्वं नरं विदुः ।
सप्तैते सान्विका क्या-……… ।।८६।।
ब्रह्मकाय | पवित्रा,वेद में विश्वास रखने वाला,वेद का अभ्यास करने वाला,गुरुपूजन,यज्ञ करने वाला। |
महेंद्र काय | शुरता,बड़कप्पन,शासन, शास्त्रों की निरंतर आलोचना, नोकरो का पोषण करने वाला। |
वरुण काय | शीत सेवन करना, अाखे पीले रंग की होना,काले रंग के बाल,मीठा बोलना। |
कुबेर काय | मध्यस्थता,सहनशीलता, पैसे लना और रखना, प्रजौटपदन करना। |
गंधर्व काय | चंदन और मला में प्रीति,नाच गाने की इच्छा,घूमने की इच्छा होती है। |
बाम्यकाय | दृद काम करने वाला,निर्भय, समरण शक्ति वाला,पवित्र,राग,द्वेष,राग,से रहित |
ऋषिकाय | जप, व्रत, भरमचार्य,ज्ञान विज्ञान से युक्त,अध्यन्न से सब करने वाला। |
-मासुरं सत्त्वमीदृशम् ।।८।।
तीक्ष्णमायासिनं भीरुं चण्डं मायाऽन्वितं तथा । विहाराचारचपलं सर्पसत्त्वं विदुन्नरम् ।। ८८
प्रवृद्धकामसेवी चाप्यजस्राहार एव च । अमर्षणोऽनवस्थायी शाकुनं कायलक्षणम् ।।८९।।
एकान्तग्राहिता रौद्र (रौक्ष्य ‘पा.’) मसूया धर्मबाह्यता । भृशमात्मस्तवश्चापि राक्षसं कायलक्षणम् ।। ९०।॥।
उच्छिष्टाहारता तैक्ष्ण्यं साहसप्रियता तथा । स्त्रीलोलुपत्वं नैर्लज्ज्यं पैशाचं कायलक्षणम् ।। ९१।।
असंविभागमलसं दुःखशीलमसूयकम् । लोलुपं चाप्यदातारं प्रेतसत्त्वं विदुर्नरम् । षडेते राजसाः कायाः-……….. ।।९२।।
असुर | धनवान,भयंकर, शूर,चंड, दूसरों के गुणों में दोष रोप करने वाला,अकेले खाने वाला, कपटी। |
सर्प | दुख देने वाला,डरपोक,क्रोधी, छलयुक्त,चंचल,शिग्रता से खाने वाला। |
शाकुन | अत्यधिक कमस्कत,निरंतर खाने वाला, सहन न करने वाला , चंचल चित वाला। |
राक्षस | चुपके से खाने वाला,भीषण,गुणों से द्वेष,अधर्म आचरण,खूब प्रसंशा करने वाला। |
पिशाच | दूसरो को न देकर खाने वाला,आलसी,दुखी, दूसरो की निन्दा करने वाला,लोभी,दान न देने वाला। |
..तांमसांस्तु निबोध मे ।
दुर्मेधस्त्वं मन्दता च स्वप्ने मैथुननित्यता । निराकरिष्णुता चैव विज्ञेयाः पाशवा गुणाः ।।९३।।
अनवस्थितता मौख्य भीरुत्वं सलिलार्थिता । परस्पराभिमर्दश्च मत्स्यसत्त्वस्य लक्षणम् ।।९४।।
एकस्थानरतिर्नित्यमाहारे केवले रतः ।
वानस्पत्यो नरः सत्त्वधर्मकामार्थवर्जितः ।॥ ९५॥ ।
इत्येते त्रिविधाः कायाः प्रोक्ता वै तामसास्तथा । कायानां प्रकृतीज्ञ्ञात्वा त्वनुरूपां क्रियां चरेत् ।।९६।।
पशु | मंदता,स्वप्न में नित्य मैथुन देखना व करने की इश्चा |
मत्स्य | स्थिर चित वाला,मूर्खता,डरपोक रहना,जल की इच्छा रखना,एक दूसरे के साथ झगड़ा करना |
वानस्पतय | एक जगह रहने की इच्छा,केवल आहार से प्रेम रखना, धर्म अर्थ, कर्म का न होना। |
One reply on “Garbh vyakaran Sanskrit Shushrut Samhita Sharir Chapter”
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