व्याधिक्षमत्व or Immunity दो शब्दों से मिलकर बना है।
‘व्याधि‘ = विविधं दुःखमादधातीति व्याधि:।। (च० चि० 1/5); अर्थात् आयुर्वेद में दुख का नाम ही व्याधि है।
‘क्षमत्व’ का अर्थ होता है = बनाना, गुस्सा रोकना, चुप रहना, या लड़ना (अमरकोष)
- व्याधिक्षमत्व को सर्वप्रथम चक्रपाणि ने बताया है।
- व्याधिक्षमत्वं व्याधिबल विशेधित्वं व्याध्युत्पाद प्रतिवन्धकत्वमिति यावत् ।। (च० सू० 28/7) अर्थात् शरीर की क्षमता जो व्याधि के बल का विरोध करती है एवं व्याधि उत्पत्ति को रोकती है, वह व्याधिक्षमत्व कहलाती है।
- व्याधिक्षमत्व का पर्याय = ओज, बल
उपयोगिता/ Importance :
- पथ्य सेवन से भी कुछ व्यक्तियों को रोग उत्पन्न हो जाता है व कुछ व्यक्तियों को अपथ्य सेवन करते पर भी व्याधि उत्पन्न नहीं होती। यह दोनों का जो कारण है वहीं व्याधिक्षमत्व है। (च०सू० 28/7)
- क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति। अतृणे पतितो वहि: स्वयमेवोपशाम्यति।। अर्थात् क्षमता रूपी शस्त्र जिसके पास होता है, उसके विकारी जीवाणु क्या कर सकते हैं।
- Protect from foreign organisms.
- Helps body to recover from diseases.
- Keeps young, add years to life, protect from disease and helps to gain strength.
- के वाभुवि चिकित्स्यन्ते रोगार्तान मृगपक्षिणः श्वापदानि दरिद्रांक्ष प्रायो नार्ता भवन्ति ते।। अर्थात् पशु-पक्षी जंगली श्वापद तथा दरिद्र प्रायः रोगग्रस्त नहीं होते ? और जब कभी रोगग्रस्थ होते है तब उनकी चिकित्सा कौन करता है ?
व्याधिक्षमत्व और ओज का संबंध :
- अस्य संस्थापने नृषां जरा वैरुप्यकारिणी। मृत्युश्च न भवेच्छीघ्रं बलं चेह न नश्यति।। अर्थात् ओज से शरीर को विरुप करने वाली जरा उत्पन्न नहीं होती, मृत्यु जल्दी आक्रमण नहीं करती और शरीर की शक्ति भी अकाल समांत नहीं होती।
- न च विद्यासमो बन्धुर्त च व्याधिसमो। न चायत्यसम: स्नेहो न च ओजं बलम्॥ अर्थात् विद्या के समान मित्र नहीं, व्याधि के समान शत्रु नहीं, अपत्प के समान स्नेह नहीं और ओज से बढ़कर बल नहीं।
ओज:
उत्पत्ति=
- आचार्य चरक के अनुसार सर्वप्रथम ओज की उत्पत्ति बताई है।
- सुश्रुत के अनुसार सातों धातुओं के सारभूत अंश को ओज कहते है। इससे बल भी कहते है।
- आचार्य वाग्भट ने आचार्य सुश्रुत के समान ही कहा है।
- आ० भावप्रकाश ने दूध से घृत की बात बताते हुए कहा है कि समस्त धातुओं का स्नेह अंश ओज है और उसे बल भी कहते हैं।
- अन्य आचार्यों ने ब्रह्मचर्य से उत्पत्ति होते हुए बताते हुए कहा है कि जब मनुष्य ब्रह्मचर्य रहता है तो ओज नामक 8 वीं दशा उत्पन्न होता है।
गुण=
गुरु शीतं मृदु श्लक्ष्णं बहलं मधुरं स्थिरम्। प्रसन्नं पिच्छिलं स्निग्धमोजो दशगुणं स्मृतम्॥ (च० चि० 24/31)
(सु० सू० 15/21-22)
- गुरु
- शीत
- मृदु
- श्लक्ष्ण
- बहल
- मधुर
- स्थिर
- प्रसन्न
- पिच्छिल
- स्निग्ध
कार्य=
तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसता सर्वचेष्टास्व प्रतिघातः स्वरवर्ण प्रसादो बाह्यानामाभ्यन्तराणां च करणानामात्मकार्यप्रतिपत्तिर्भवति। (सु० सू० 15/25)
- मांस धातु की पुष्टि
- सभी चेष्टाओं को करते का सामर्थ्य
- स्वर एवं वर्ण प्रसन्नता
- बाह्य श्रौत्रत्वकादि कर्मेन्द्रियों तथा आभयन्तर करण मन, बुद्धि और अहंकार को प्रवृत्त करना।
- यहते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते। (च. सू. 30/9) अर्थात् ओज के बिना कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता है। इसका नाश होते ही शरीर नष्ट हो जाता है।
- यत् सारमादौ शर्मस्य यत्तद् गर्भरसाद्रसः। संवर्त्तमानं हृदयं समाविशति यत् पुरा।। (च. सू. 30/10) अर्थात् ओज सार रूप में गर्भावस्था में बालक के हृदय में रहता है तथा शरीर का धारण-पोषण करता है।
भेद=
पर ओज | अपर ओज |
प्रमाण= अष्ट बिंदु | प्रमाण= अर्धाञ्जली |
हृदय में स्थित रहता है | सर्व शरीर में व्याप्त रहता है |
क्षय होने पर मृत्यु या असाध्य रोग हो जाते है | क्षय से बल का ह्रास व कार्य क्षमता की कमी और रोग उत्पत्ति |
यौगिक क्रियाओं द्वारा वृद्धि | कफ के समान |
स्थान=
आचार्य भेल ने अपनी संहिता में ओज के 12 स्थानों का वर्णन किया है जो कि इस प्रकार है – रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, स्वेद, पित्त, कफ, मल, मूत्र।
ओज क्षय के निदान:
अभिघातात् क्षयात् कोपाच्छोकाद्धयानाच्छ्रमात् क्षुधः। ओजः सङ्क्षीयते होभ्यो धातुग्रहणनिः सृतम्। तेज: समीरितं तस्माद्विस्त्रंसयति देहिनः ।। (सु.सू. 15/28)
- अभिघात
- धातुक्षय
- क्रोध करने से
- शोक
- ध्यान (चिन्तन करने से)
- परिश्रम करने से
- भूख के कारण
ओज की विकृतियाँ-
ओज की तीन प्रकार की विकृतियाँ है
- विस्त्रंस
- व्यापत्
- क्षय
ओजोविस्त्रंस के लक्षण-
सन्धि विश्लेषों गात्राणां सदनं दोषच्यवनं क्रियाऽसन्निरोधश्च विस्स्रंसे। (सु. सू. 15/29) विश्लेषसादौ गात्राणां दोष विस्त्रंसनं श्रमः । अप्राचुर्य क्रियाणां च बलविस्त्रंसलक्षणम्। (सु. सू. 15/30)
- सन्धि विश्लेष (Looseness of the Joints)
- गात्र साद (Giddness)
- दोषच्यवन (Dislocation of the Doshas)
- क्रिया सन्निरोध (Impairment in activities)
ओजो व्यापद के लक्षण-
स्तब्धगुरुगात्रता वात शोफो वर्ण भेदो ग्लानिस्तन्द्रा निद्रा च व्यापन्ने। (सु. सू. 15/29) गुरुत्वं स्तब्धताऽङ्गेषु ग्लानिर्वर्णस्य भेदनम्। तन्द्रा निद्रा वातशोफो बलव्यापदि लक्षणम्। (सु. सू. 15/31)
- स्तब्धगुरुगात्रता (Rigidity in whole body)
- गुरुगात्रता (Heaviness in whole body)
- वात शोफ (Swelling due to vata)
- वर्ण भेद (Loss of Complexion)
- ग्लानि (Depression)
- तन्द्रा (Stupor)
- निद्रा (Excess sleep)
ओज क्षय के लक्षण-
मूर्च्छा मांसक्षयो मोहः प्रलापो मरणमिति च क्षये। (सु. सू. 15/29) मूर्च्छा मांसक्षयो मोहः प्रलापोऽज्ञानमेव च । पूर्वोक्तानि च लिङ्गानि मरणं च बलक्षये। (सु. सू. 15/32)
- मूर्च्छा (Fainting)
- मांसक्षय (Muscle wasting)
- मोह (Confusion)
- प्रलाप (Delirium)
- मरण (Death)
ओज वृद्धि लक्षण-
ओजो वृद्धौ हि देहस्य तुष्टिपुष्टि बलोदय:। (अ. सं. सू. 19/34) अर्थात् ओज की वृद्धि होने से शरीर की वृद्धि, बल वृद्धि होती है।
व्याधिक्षमत्व और बल का संबंध :
आचार्य चक्रपाणि ने व्याधिक्षमत्व को ओज और बल के समरूप माना है। बल 3 प्रकार के होते हैं :-
- सहज बल (Congenital Immunity)
सहज यच्छशरीरसत्त्वयोः प्राकृतं। (च. सू. 11/36) प्राकृतमिति जन्मादिप्रवृत्तं प्राकृतधातुवृद्धया हेत्वन्तरनिरपेक्षं वृद्धं, दृश्यन्ते हि केचित् खभावादेव बलिनो दुबलाश्च केचित्। (च. सु. 11/36 चक्रपाणि टीका)
सहज बल उसे कहते हैं जो शरीर तथा मन के अनुसार स्वाभाविक रूप से होता है। यह प्राकृत शब्द का अर्थ ‘जन्म से उत्पन्न’ प्राकृत धातुओं की वृद्धि किसी हेतु विशेष की अपेक्षा नहीं रखती है।
इस प्राकृत (Natural) बल के कारण शरीर और मन बलवान अथवा दुर्बल होता है। यदि रोगी बलवान होगा तो जन्म से हो रागप्रतिरोधक क्षमता बलवान होगी तथा यदि रोगी दुबल होगा तो जन्म से हो रोगप्रतिरोधक क्षमता दुर्बल होगी।
- कालज बल (Acquired Immunity)
कालकृतमृतुविभागजं वयः कृतं च। (च. सू. 11/36)
यह बल कालानुसार स्वयं उत्पन्न होता है।
- युक्तिकृत बल (Artificial Immunity)
पुनस्तद्यदाहारचेष्टायोगजम्। (च. सू. 11/36) आहारस्य मांससर्पिरादेः, चेष्टाया उचितविश्राम व्यायामादेर्योग आहारचेष्टायोगः, अन्ये तु योनशब्देन रसायन प्रयोगं ग्राह्यन्ति। (चक्रपाणि टीका)
ओज स्वयं बल हैं तथा शरीर के बल का मूलभूत कारण हैं। ओजवर्धक आहार-विहार का सेवन करने से शरीर के बल की वृद्धि होती है जो कि शरीर में व्याधि क्षमत्व की शक्ति प्रदान करती है।
व्याधिक्षमत्व को बढ़ाने वाले घटक :
बलवृद्धिकरास्त्विमे भावा काले च, भवन्ति तद्यथा-बल वत्पुरुषे देश जन्म बलवत्पुरुषे सुखश्च कालयोगः बीजक्षेत्र-गुणसंपच्च, आहारसंपद्य, शरीरसंपद्य, सात्म्यसंपद्य, सत्वसंपद्य, स्वभावसंसिद्धश्च, यौवनं च, कर्म च, संहर्षश्चेति।। (च. शा. 6/12)
- बलवत्पुरुषेदेशे = बलवान पुरुषों के देश जैसे- सिन्ध अथवा पंजाब में जन्म लेने वाले पुरुषों में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होगी।
- बलवान् पुरुषों के कुल में जन्म लेने से शरीर सौष्ठवता बीज से ही प्राप्त हो जाती हैं।
- बलवत्पुरुषे काले = बलवान काल में जन्म होने से भी बल अधिक अर्जित होगा।
- सुखकारक काल योग = सदैव व्यक्ति सुखकारक वातावरण में ही जीवन यापन करेगा तो निश्चित रूप से उसे आरोग्य की प्राप्ति के साथ-साथ रोगप्रतिरोधक क्षमता भी प्रबल होगी।
- बीज क्षेत्रगुण संपद्य = बीजों के अर्थात् माता के शोणित व पिता के शुक्र के सम्पद् होने से निश्चित रूप से उत्पन्न होने वाली सन्तान बलवान होगी।
- आहार संपच्च = सदैव हितकर आहार का सेवन करने से शरीर की वृद्धि होगी, यह वृद्धि किसी भी व्याधि के लिये प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में लाभप्रद होगी।
- शरीर संपच्च = शरीर उत्तम संगठित होगा तो किसी निज अथवा आगन्तुज विकार का आक्रमण शरीर में नहीं हो पायेगा।
- सात्म्य संपच्च = सर्वरस सात्म्य व्यक्ति के लिये किसी भी व्याधि को सहन करने में कोई कठिनाई नहीं आती है।
- सत्वंसपच्च = मन का उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण शारीरिक व्याधियाँ शीघ्रता से उत्पन्न नहीं होती है।
- स्वभावसंसिद्धि = स्वभाविक रूप से भी अनेक व्याधियों के प्रति रोगप्रतिरोधक क्षमता हमारे शरीर में विद्यमान रहती है।
- युवावस्था = युवावस्था में बल सर्वाधिक होने से रोगप्रतिरोधक क्षमता अधिक होना स्वभाविक होता है।
- कर्म = व्यायामादि कर्मों के द्वारा शरीर को निरन्तर बल की प्राप्ति होती है।
- संहर्ष = मन सदा प्रसन्न रहे तथा शोकाग्रस्त न हो तो व्याधियाँ कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है।
Did You Know :-
आयुर्वेद शास्त्र में व्याधिक्षमत्व को बढ़ाने का ज्ञान, दो शाखाओं में बताया गया है – रसायन और वाजिकरण चिकित्सा।
श्रेष्ठ व्याधिक्षमत्व शरीर के लक्षण :
- जिसके शरीर में सम प्रमाण में मांस रहने पर।
- जिसकी एकादश इन्द्रिया अपने अर्थ को सम्यक रूप से ग्रहण करें।
- शरीर का संगठन समस्थित में हो। शरीर न कृश हो न स्थूल हो।
- प्रशस्त गुणों से युक्त शरीर रोगों के बल से पराजित नहीं होता।
- क्षुधा के वेग (भूख) को सरलता से सहन करें।
- पिपासा के वेग (प्यास) को सरलता से सहे।
- शीतकाल व अति व्यायाम को सहन कर सकता है।
- जाठराग्नि सम अवस्था में हो, अर्थात् जो भी भोजन किया जाय उसका पाचन नियत समय पर उचित रूप से हो जाए।
Immunity :
Immunity is defined as the capacity of the body to resist pathogenic agents. It is the ability of body to resist the entry of different types of foreign bodies like bacteria, virus, toxic substances, etc.
Types of Immunity :
Immunity is of two types :-
- Innate Immunity/ Congenital/ Non-specific Immunity
- Acquired Immunity/ Adaptive/ Specific Immunity.
Innate Immunity = It is the inborn capacity of the body to resist pathogens. By chance, if the organisms enters the body, innate immunity eliminates them before the development of any disease. It is otherwise called the natural or non-specific immunity. This type of immunity represents the ‘first line of defense’ against any type of pathogens. Therefore, it is also called non-specific immunity.
Mechanisms of Innate Immunity=
Structures and Mediators | Mechanism |
Gastrointestinal tract | Enzymes in digestive juices and the acid in stomach destroy the toxic substances or organisms entering digestive tract through food. Lysozyme present in saliva destroys bacteria. |
Respiratory system | Neutrophils, lymphocytes, macrophages and natural killer cells present in lungs act against bacteria and virus |
Urogenital system | Acidity in urine and vaginal fluid destroy the bacteria |
Skin | The epidermis protects the skin against toxic chemicals. Lysozyme secreted in skin destroys bacteria |
Phagocytic cells | Neutrophils, monocytes and macrophages ingest and destroy the microorganisms and foreign bodies by phagocytosis. |
Interferons | Inhibit multiplication of viruses, parasites and cancer cells |
Complement proteins | Accelerate the destruction of microorganisms |
Acquired Immunity = It is the resistance developed in the body against any specific foreign body. So, this type of immunity is also known as specific immunity. It is the most powerful immune mechanism that protects the body from the invading organisms or toxic substances. ‘Lymphocytes are responsible for acquired immunity’. There are two types of acquired immunity;
- Cellular Immunity (Cell mediated) = T-lymphocytes are responsible its development.
- Humoral Immunity (Antibody mediated) = B-lymphocytes are responsible for its development.
Cell Mediated Immunity:-
- Defined as the immunity developed by cell-mediated response.
- It involves several types of cells such as T lymphocytes, macrophages and natural killer cells.
- It does not involve antibodies.
- Cellular immunity is the major defense mechanism against infections by viruses, fungi and few bacteria liketubercle bacillus.
- It is also responsible for delayed allergic reactions and the rejection of transplanted tissues.
Mechanism of Cell Mediated Immunity=
Microorganism Enters the Body ➡️ Macrophage ingest this antigen & break the microorganism ➡️ Fragments of antigen appear on the surface of macrophages in association with class II MHC ➡️ Cytotoxic T-cell activated (CD8+) ➡️ Activate cytotoxic cell ➡️ kill virus infected cell ➡️ React with antigen specific receptor of T helper cell (CD4+), Inhibit Intracellular bacteria & fungi, MHC (Major histocompatiblity complex and transplantation)
Humoral Immunity:-
- Defined as the immunity developed by humoral response.
- It involves antibodies which are secreted by B lymphocytes.
- B lymphocytes secrete the antibodies into the blood and lymph (so called ‘humours or humors‘ in Latin, hence the name is humoral Immunity)
- The humoral immunity is the major defense mechanism against the bacterial infection.
Mechanism of Humoral Immunity=
Antibody synthesis typically involve the cooperation of 3 cells; 1) Macrophages 2) Helper T-cell 3) B-cells
Antigen Enter in body ➡️ Processed by Macro phages ➡️ Fragments of Antigen appear on surface of macrophage in association with class II MHC (Major Histocompatibility protein) ➡️ These molecules bind to specific receptor on T helper cell surface ➡️ Activate B-cells ➡️ Plasma cell activated ➡️ Antibody Formation