नाम:-
संस्कृत | अयस् |
हिन्दी | लौह |
English | Iron |
Latin | Ferrum |
पर्याय:-
अयस्, शस्त्रलौह, सारलौह, तीक्ष्णक, आयस्।
उत्पत्ति:-
पौराणिक मान्यता के अनुसार साक्षात् काल मूर्ति यमराज अथवा देवता-दानवों के युद्ध में लोहासुर दैत्य का अंग कटकर पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ पर गिरा, वहाँ-वहाँ पर लोहे (Loha) की उत्पत्ति हुई।
लोहे के प्रधान खनिज:-
- गैरिक – (Red hematite : Fe2 O3
- कपिलवर्ण का गैरिक- (Grey Haematite 2Fe2 O3 3H2O)
- मैग्नेटाइट- (Magnetite : Fe3 O4)
- सिडेराइट- (Siderite : Fe CO3)
- रौप्यमाक्षिक- (Iron Pyrite : Fe2 S3)
- कासीस– (Ferrous sulphate : Fe2 SO4 7H 20)
- स्वर्णमाक्षिक (Copper pyrite : Cu2 S Fe2S3)
- विमल– Iron Pyrites : Fe2 S3
लौह (Loha) के भेद:-
रसरत्नसमुच्चय में लौह के 3 भेद माने है:-
Types | Further types | |
1.मुण्ड लौह : Cast iron | श्रेष्ठ | १.मृदु, कुण्ठ, कडार २. तीक्ष्ण लौह खर, सार, हन्नाल, तरावट, वाजिर, काल लौह । ३.कान्त लौह भ्ररामक,चुम्बक, कर्षक, द्ररावक, रोमकांान्त |
2. तीक्ष्ण लौह : Malleable iron | श्रेष्ठर : औषध निर्माण के लिए | १.खर तीक्ष्ण, २.सार तीक्ष्ण ३.हन्नाल ४.तरावट ५.वाजिर ६.काल टीीतीक्ष्णक्ष्णक्ष्ण |
3. कान्त लौह : Magnetic iron ore | श्रेष्ठम: औषध निर्माण के लिए | १.भ्रामक कान्त लौह २.चुम्बक ३.कर्षक |
(1) मृदु मुण्ड लौह-
- यह अग्नि पर तपाने से शीघ्र द्रवित होता है।
- आघात से जल्दी टूटता नहीं है और चिकना होता है।
- यह उत्तम होता है।
(2) कुण्ठ मुण्ड लौह-
- यह आयात करने पर बड़ी कठिनाई से फैलता है।
- यह मध्यम कुण्ठ मुण्ड लौह होता है।
(3) कडार मुण्ड लौह-
- यह आघात से बिल्कुल नहीं फैलता बल्कि फटकर फटा हुआ भाग कृष्णवर्ण का लगता है।
- यह अधम होता है।
- मुण्ड लौह के सभी भेद उसकी आघातवर्धनीयता पर निर्भर होते है।
तीक्ष्ण लौह भेदों के लक्षण:-
1) खर तीक्ष्ण लौह–
- यह कठोर, पोगर रहित,
- जिसका तुरन्त का कटा हुआ भाग पारद के समान चमकदार और झुकाने पर टूटने वाला होता है।
2) सार तीक्ष्ण लौह-
- यह वेग से पटकने पर भंगुर धार वाला एवं पोगर के आवास वाला होता है।
- यह पाण्डु वर्ण की भूमि से उत्पन्न होता है।
(3) हन्नाल तीक्ष्ण लौह-
- यह कृष्ण पाण्डुर वर्ण, एरंड बीज सदृश पोगर वाला एवं तोडने में अत्यन्त कठिन होता है।
(4) तारावट तीक्ष्ण लौह-
- इसमें पोगर रोम के समान स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाला और भंगुर होता है।
(5) वाजिर तीक्ष्ण लौह-
- इसमें पोगर हीरे सदृश कठोर, चमकीला,
- घनी सूक्ष्म रेखाओं से युक्त और श्याम वर्ण होता है।
(6) काल तीक्ष्ण लौह-
- यह चमकदार, नीलकृष्णवर्ण, सान्द्र, अतिस्निग्ध, गुरुवार एवं लोहादि के आयात से एकदम टूटता नहीं है।
- तीक्ष्ण लौह के उक्त छ: भेद उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होते हैं।
पोगरः–
- पोगर के अङ्ग, छाया और वङ्ग तीन पर्याय है।
- लौहे को तोड़ने पर उसमें भंगुर एवं केशाकृति रचना दिखाई देती है, उन रेखाओं को ही पोगर कहते है।
तीक्ष्ण लौह परीक्षा :
(1) कासीस और आंवला दोनों को पीसकर कल्क बनाकर इसका लेप
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तीक्ष्ण लौह पर करके उसे माँजकर धोए इस प्रकार करने पर
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यदि तीक्ष्ण लौह में देखने वाले को दर्पणवत् अपना अङ्ग स्पष्ट रूप से दिखाई दे, उसे तीक्ष्ण लौह मानना चाहिए।
◆यह भस्म निर्माण के लिए श्रेष्ठ होता है।
कान्त लौह के भेदों के लक्षण :
(1) भ्रामक कान्त लौह–
- कान्त लौह के समीप लोहे की छोटी-छोटी वस्तु ले जाने पर यदि वह घुमा देता है तो उसे भ्रामक कान्त लौह कहते हैं।
(2) चुम्बक कान्त लौह:–
- छोटे-छोटे हल्के लौह को कान्त लौह के समीप ले जाने पर चिपक जाता हो, उसे चुम्बक कान्त लौह कहते है।
(3) कर्षक कान्त लौह-
- जो कान्त लौह छोटे-छोटे लोहे को अपनी ओर आकर्षित करें एवं चिपकायें, उसे कर्षक कान्त लौह कहते हैं।
(4) द्रावक कान्त लौह-
- जो कान्त लौह छोटे मोटे लोहे के टुकडे को विकर्षित (पीछे धकेलना) या आकर्षित करे, उसे द्रावक कान्त लौह कहते है।
(5) रोमकान्त कान्त लौह:-
- जिस कान्त लौह को तोड देने पर उसके कण उसमें रोयें की भाँति चिपककर खडे हो जाते हैं, उसको रोमकान्त कान्त लौह कहते है।
लोहे (Loha) के दोष-
लौहे (Loha) में सात दोष होते है ।
- गुरुत्व
- दृढ़ता
- उत्क्लेश
- ग्लानि
- दाह
- अश्मरी
- शरीर से दुर्गन्ध निकलना
लोह शोधन का प्रयोजन-
- अशुद्ध लौह (Loha) भस्म का सेवन करने पर आयु, बल और कान्ति का निश्चित रूप से नाश होता है।
- हृदय में पीड़ा तथा शरीर में शैथिल्य होकर अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है।
- अतः लौहे (Loha) को भली भाँति शोधन करके मारण करना चाहिए।
- अशुद्ध लौह का सेवन करने पर हृत्पीड़ा, अग्निमांद्य एवं रोगी की मृत्यु भी हो जाती, नपुंसकता, कुष्ठ, मृत्यु, हृद्रोग, शूल, अश्मरी, हल्लास तथा अन्य विविध रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
लौह शोधन:-
सामान्य शोधन :-
Same as Dhatu samanya shodhan
विशेष शोधन:-
सोलह पल त्रिफला को अष्टगुण जल में पकाकर ↪ चतुर्थांश अवशिष्ट क्वाथ में पाँच पल लौह को रक्त प्राप्त करके सात बार बुझाने पर लौह का विशेष शोधन हो जाता है।
लौहे का मारण-
(1) शुद्ध लौह के चूर्ण को
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एक दिन गोमूत्र में मर्दन करके टिकिया बनाकर सुखाये।
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तत्पश्चात् शराव सम्पुट में बन्दकर गजपुट की अग्नि में पाक करें।
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इस प्रकार गोमूत्र, त्रिफला क्वाथ, घृतकुमारी स्वरस और पुनर्नवा स्वरस में क्रमशः तीन-तीन बार मर्दन कर गजपुट की अग्नि में पकायें
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13 वें पुट में लौह चूर्ण का 12वाँ भाग शुद्ध हिंगुल मिलाकर अर्कक्षीर की भावना देकर तीन बार अर्धगजपुट की अग्नि में पकायें।
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इस प्रकार 15 पुट में लौह की उत्तम भस्म बन जाती है।
त्रिविध लौह पाक:
- यह विधि रसेन्द्रसारसंग्रह द्वारा पुटपाक निर्दिष्ट है।
- जिसमें लौह भस्म निर्माण की प्रक्रिया को तीन उपक्रमों में विभक्त किया गया है।
- त्रिविधपाक के क्रम में सर्वप्रथम भानुपाक, फिर स्थालीपाक और अन्त में करने पर निरुत्थ लौह भस्म प्राप्त हो जाता है।
(1) भानुपाक:-
इस विधि में त्रिफला क्वाथ में लौह चूर्ण को तीव्र धूप सुखाया जाता है। इसलिए इसे भानुपाक कहते है।
शुद्ध लौह के सूक्ष्मपत्रों को उदूखल यन्त्र में रखकर एक लौह की मूसली से कूटकर सूक्ष्म चूर्ण करके अनेक बार त्रिफला जल से प्रक्षालन करें।
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अब इस लौहचूर्ण में त्रिफला क्वाथ मिलाकर किसी पात्र में रखकर तीव्र धूप में सुखायें।
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जब त्रिफला क्वाथ सूख जाय तो पुनः उसमें त्रिफला क्वाथ डालते रहे।
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इस विधि से तीन या सात बार त्रिफला क्वाथ डालकर सुखाने से भानुपाक हो जाता है।
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भानुपाक के लिए लौहचूर्ण के समभाग त्रिफला लेकर उसमें द्विगुण जल डालकर चतुर्थांश अवशिष्ट क्वाथ छानकर लेवें।
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इस प्रकार लौह चूर्ण का धूप में पाक करने से इसे भानुपाक कहते हैं।
2 ) स्थालीपाक-
भानु पाक से प्राप्त लौह (Loha) चूर्ण को त्रिफला क्वाथ में एक स्थाली में डालकर तीव्राग्नि पर पकाकर सुखाने को स्थालीपाक कहते है।
इस विधि में लौह चूर्ण से 3 गुणा त्रिफला लेकर 16 गुने जल में पाक करके
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अष्टमांश क्वाथ छानकर स्थालीपाक के लिए लिया जाता है।
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त्रिफला क्वाथ के अलावा इस लौह चूर्ण को शतावरी, भुंगराज, हस्तिकर्ण, पलाशमूल स्वरस आदि समभाग लेकर इनके साथ स्थाली पाक किया जाता है।
- इसके अलावा दोषविशेष शामक औषधि के स्वरस अथवा क्वाथ के साथ भी लोहे (Loha) का स्थालीपाक किया जा सकता है।
- यदि द्रव्य का स्वरस न मिले तो उस औषधि द्रव्य के मृद, मध्य या कठिनता को ध्यान में रखकर यथानुक्रम चतुर्गुण, अष्टगुण अथवा षोडश गुण जल डालकर लौह चूर्ण के समान क्वाथ शेष रखकर स्थालीपाक करें।
(3) पुटपाक:-
स्थालीपाक के बाद लौह चूर्ण को अनेक औषधियों के सर्विस या क्वाथ के साथ मर्दन करके सुखाकर शराव सम्पुट में रखकर पुट देने की प्रक्रिया को पुटपाक कहते है।
उत्तम लौह भस्म का लक्षण:-
- तीक्ष्ण लौह भस्म पक्वजम्बूफल सदृश वर्ण
- वारितर, रेखापूर्ण, निश्चन्द्र, अपुनर्भव निरुत्थ, लघु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, मृदु, स्वाद रहित तथा अवामि लक्षणयुक्त उत्तम होती है।
असम्यक् मारित लौह भस्म के दोषः-
- अपक्व लौह भस्म का सेवन करने पर शरीर में वेदना अथवा मृत्युकारक होती है।
- यह शरीर की सुन्दरता का नाश तथा हृत्पीडा उत्पन्न करती है।
लौह भस्म के गुणः-
- यह रस में तिक्त, मधुर,
- वीर्य में शीत तथा
- गुण रक्ष, गुरु होती है।
- यह कर्म में लेखन, नेत्र्य, बल्य, वृष्य, दीपन, वर्ण्य, मेध्य है।
- यह उदररोगनाशक, कफपित्तरोगहर, विविधव्याधिनाशक, उत्तमक्षयहर,
- कुष्ठनाशक, गुल्म, प्लीहा, कृमि, पाण्डु रोग नाशक, मेदोरोग, प्रमेह,
- अर्श, छर्दि, श्वास, विसर्प, प्रबलशूलनाशक, शोथहर, यकृत विकार नाशक, गुदजरोग, कास, स्थौल्य, भ्रान्ति आदि रोगनाशक होती है।
- यह हाथ पैर तथा आन्त्र में स्थित (शाखाश्रित एवं कोष्ठाश्रित) पित्तविकार को उसी तरह नष्ट करती है, जिस प्रकार बादलों के समूह को वायु नष्ट कर देती है।
मुण्ड लौह भस्म के गुण कर्म:-
- यह मृदु, कफवातनाशक, शूलहर, आमनाशक,
- अर्शहर, प्रमेह, कामला, पाण्डु, गुल्म, आमवात, जाठराग्निरोगहर, दीपन, शोथहर और रक्तवर्द्धक एवं कोष्ठ का शोधन करने वाली होती है।
तीक्ष्ण लौह भस्म के गुणकर्म:-
- यह रस में तिक्त,
- वीर्य में शीत,
- विपाक में मधुर तथा
- गुण में रूक्ष होती है।
- यह दीपन, रसायन, बल्य एवं कफपित्तकर होती है।
- यह सद्य शूलहर, यकृद्विकारः, प्लीहाविकार, कुष्ठ, जाठराग्निरोग, आमनाशक, पाण्डु, क्षय, जरानाशक, प्रमेह, आमवात, दाह एवं वृद्धावस्थाजन्य रोगों को नष्ट करती है।
कान्त लौह भस्म के गुण कर्म:-
- यह रस में तिक्त,
- वीर्य में शीत तथा
- गुण में स्निग्ध होती है
- यह बलवीर्यवर्द्धक अतिरसायन, आयुष्य, प्रमेहहर, त्रिदोषशामक, शूल, अर्श, गुल्म, प्लीहा, यकृत, क्षय, आम, पाण्डु, उदर आदि रोगों को नष्ट करती है
लौह भस्म मात्रा-
1 से 2 रत्ती तक।
लौह भस्म अनुपान:-
त्रिफला, मधु, घी, मक्खन, दूध, शिलाजतु एवं तत्तद्रोगहर औषधियों के स्वरस, क्वाथादि के साथ लेना चाहिए।
लौह भस्म सेवन काल में अपथ्यः
कूष्माण्ड, तिलतैल, माष, राई, मद्य, अम्लद्रव्य एवं मसूर का लौहभस्म सेवन काल में त्याग करना चाहिए।
लौह भस्म सेवनजन्य विकार शमनोपाय-
अगस्त्यपत्र स्वरस भावित विडंग का अगस्त्य स्वरस के साथ सेवन करना चाहिए
प्रमुख योग:
- नवायस लौह
- सप्तामृत लौह
- धात्री लौह
- पुटपक्वविषमज्वरान्तक लौह
- प्रदरान्तक लौह
10 replies on “Loha ( लौह ) – Iron / Ferrum : Dhatu Vargha”
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