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Ras Shastra Syllabus

Murchna ( मुर्च्छना ) & Types of Ras Aushadhi

परिभाषा:-

पारद में गन्धक के संयोग से अथवा गंध के बिना ही निश्चित रूप से व्याधिनाश की शक्ति उत्पन्न करने की प्रक्रिया को मूर्च्छना कहते है।

◆पारद में निश्चित रूप से व्याधिनाशक शक्ति का आधान करने को ही मूर्च्छना कहते है।

Types of murchna:-

2 प्रकार से –

१.सगन्ध मूर्च्छना २.निर्गन्ध मूर्च्छना

★सगन्ध मूर्च्छना 3 प्रकार से :-

१.बहिर्धूम २. अन्तर्धूम और .३.निर्धूम भेद से

5 प्रकार से :-

१.गन्धपिष्टि २. गन्धबद्ध ३.गन्धजीर्ण ४.रसगन्धककज्जली और ५.धातुपिष्टि मूर्च्छना

★धातु पिष्टि के रूप में मूर्च्छना स्वर्ण, रजत, ताम्र, अभ्रक सत्व व लौह पाँच प्रकार की होती है।

note:-

●जारणा संस्कार से पारद में निश्चित व्याधिनाशक गुण उत्पन्न नहीं होता है, जबकि मूर्च्छना से निश्चित व्याधिनाशक गुण उत्पन्न होता है।

Difference between murchan and murchna:-

मूर्च्छनमूर्च्छना
1.पारद
के नैसर्गिक दोषों को दूर करने के लिए पारद का तृतीय संस्कार है।
1.पारद में व्याधिनाशक गुण उत्पन्न करता है।
2.पारद मूर्च्छना संस्कार में प्रयुक्त औषधियों से नष्ट नष्ट हो जाता है।2.पारद सेवन करने योग्य होता है।
3.पारद स्थित नागवङ्गादि दोष मूर्च्छित हो जाते है।3.यह कज्जली, पर्पटी, रससिंदू, स्वर्ण वङ्ग, रसकर्पूर, मुग्धरस आदि रूपों में अनेक वर्ण का हो जाता है।

कज्जली लक्षण:-

बिना किसी द्रव पदार्थ के गन्धकादि द्रव्यों या किसी धातु के साथ पारद को मर्डर करके चिकना काजल के समान कृष्णवर्ण का चूर्ण बनाने को कज्जली कहते है।

कज्जली गुणः-

●सहपान और अनुपात की विशेषता के अनुसार कज्जली सम्पूर्ण रोगों को दूर करती है।

●इसके सेवन करने से पुंस्त्व शक्ति की वृद्धि एवं तीनों दोषों का शमन होता है।

कज्जली परीक्षा:-

कज्जली को बनाकर उसकी अच्छी तरह से परीक्षा करें।

★यदि कज्जली अच्छी होगी तो उसमें पारद की चमक नहीं दिखेगी और वह कोमल एवं चिकनी होगी।

★इसके अलावा बनी हुई कज्जली को अल्प मात्रा में हथेली पर रखकर उसमें दो-चार बूंद पानी की डालकर अंगुली से मर्दन कर जल को सुखाने पर सूर्य की रोशनी में देखने पर पारद के सूक्ष्मकण नजर आये तो कज्जली ठीक नहीं बनी, अन्यथा ठीक-समझनी चाहिए।

कज्जली योग:

(1) रस पर्पटी

(2) रससिन्दूर

(3) मकरध्वज

(4) सिद्ध मकरध्वज

रसौषधियों के प्रकार (Types of Rasaushadhi):-

■रसौषधियों का आधार द्रव्य पारद है।

●पारद का एकल रूप में औषध स्वरूप नहीं होने से उपयोग नहीं किया जाता है। औषधि के गुणों की प्राप्ति के लिए विविध द्रव्य संयोग एवं स्वरूप परिवर्तन किया जाता है।

प्रक्रिया के अनुसार पारद से निर्मित योगों को खल्वीय, पर्पटी, पोट्टली, कूपीपक्व तथा भस्म आदि स्वरूप में बनाया जाता है।

●इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण खल्वीय कल्पना है। खल्वीय कल्पनाओं में अग्नि की आवश्यकता नहीं होती है। इसको सगन्ध, निर्गन्ध, एकल-संयुक्त रूप में खल्व में ही सम्पन्न करके औषध रूप में प्रस्तुत करने से खल्वीय कल्पना कहते है।

◆ खल्वीय कल्पना का चिकित्सा में अत्यधिक उपयोग होता है।

1 . खल्वीय कल्पना :-

(1) त्रिभुवन कीर्ति रस:

घटक द्रव्यः-

  • शुद्ध हिंगुल
  • सोंठ
  • पिप्पलीमूल
  • शुद्ध वत्सनाभ
  • काली मिर्च
  • शुद्ध टंकण
  • पिप्पली

प्रत्येक द्रव्य:- 1-1 भाग

भावना द्रव्यः- तुलसी पत्र स्वरस, आर्द्रक स्वरस, धत्तूर पत्र स्वरस प्रत्येक की 3-3 भावना।

अनुपान– आर्द्रक स्वरस

निर्माण विधि

सर्वप्रथम शुद्ध हिङ्गल एवं शुद्ध टंकण को खल्व में मर्दन करके शेष द्रव्यों के सूक्ष्म चूर्ण को डालकर क्रमशः तुलसी पत्र स्वरस, आर्द्रक स्वरस एवं धत्तूरपत्र स्वरस की 3-3 भावना देकर एक-एक रत्ती की गोलियाँ बना, सुखाकर काँच की शीशी में सुरक्षित रखें।

मात्रा- 1 रत्ती

उपयोग– सर्वज्वर, 13 सन्निपात ज्वर।

2. पर्पटी कल्पना

व्युत्पत्ति:-

‘पर्पटी’ शब्द ‘पर्पटी’ से बना है। जिसका अर्थ ‘पापड’ होता है।

‘पर्पट अकारान्त पुल्लिंग शब्द है। इसमें ई’ प्रत्यय लगा देने से स्त्रीलिंग रूप ‘पर्पटी’ बनता है।

परिभाषा:-

शुद्ध पारद एवं शुद्ध गंधक को अच्छी प्रकार से घोटकर बनायी गई कज्जली को अग्नि पर पिघलाकर केले के पत्रों के मध्य ऊर्ध्वाधः गोबर द्वारा दबाकर चिपटाकार बनाने को पर्पटी कहते है।

●जो समस्त बाल रोगों को नष्ट करती है।

पर्पटी का इतिहास-

ऐतिहासिक दृष्टि से ज्ञात होता है कि पर्पटी उपयोग के साथ ही पारद का आभ्यन्तर प्रयोग प्रारम्भ हुआ है।

नागार्जुन विरचित आठवीं शताब्दी के ग्रन्थ रसेन्द्रमंगल में पर्पटी का वर्णन है जिसमें पारद, गंधक, ताम्र एवं विष के सहयोग से निर्मित पर्पटी का कुष्ठरोग में प्रयोग मिलता है।

11वीं शताब्दी में आचार्य चक्रपाणि दत्त द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘”चक्रदत्त” में ग्रहणी चिकित्सा के अन्तर्गत पर्पटी का उपयोग किया है।

पर्पटी भेदः- पर्पटी द्रव्य भेद से सगन्ध और निर्गन्ध दो प्रकार की होती है:

सगन्ध पर्पटी:-

●इसमें प्रधान द्रव्य पारद एवं गन्धक होते है। इनके अलावा विभिन्न प्रकार की पर्पटी निर्माण हेतु इसमें स्वर्ण, ताम्र, लौह, मण्डूर, आदि का संयोग करते है। यथा- रस पर्पटी, स्वर्ण पर्पटी, ताम्र पर्पटी, लौह पर्पटी, मण्डर पर्पटी, अभ्रक पर्पटी आदि।

निर्गन्ध पर्पटी:-

●इसमें पारद-गन्धक नहीं होता है।

किन्तु निर्मित औषध द्रव्य का स्वरूप पर्पटी की तरह होता है। यथाः- श्वेत पर्पटी, मल्ल पर्पटी। इसमें नौसादर, कलमी शोरा और फिटकरी आदि का प्रयोग किया जाता है।

पर्पटी निर्माण विधि-

★सर्वप्रथम शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक की कज्जली बनाते है

फिर भूमि पर ताजा गोबर बिछाकर उसके ऊपर केले का पत्ता बिछा देते

एक दूसरे केले के पत्ते को भी डंठल निकालकर उसमें गोबर भरकर पोटली बनाकर रख लेते है

अब कज्जली को लकड़ी में थोड़ा घी डालकर अग्नि पर पंकवत द्रवित कर लेते है। गर्म करते हुए चम्मच से हिलाते रहे ताकि कज्जली किनारे पर नहीं लगे।

कज्जली के पूर्णरूप से द्रवित होते ही गोबर पर रखे केले के पत्ते पर फैलाकर शीघ्र ही दूसरे केले के पत्ते की पोट्टली से दबा देते है।

◆इस प्रकार दबाने पर गोबर की शीतलता से ठंडी होकर चपटे स्वरूप की पपड़ी बन जाती है।

आचार्य यादव जी के अनुसार चूल्हे पर तवा रखकर उसके ऊपर एक अङ्गल मोटा बालुका स्तर बिछावें एवं उस पर कज्जली की कडाही रखकर पिघलाकर पर्पटी बनाने से अधिक गुणवान् होती

सावधानी :-

(1) लौहदर्वी में कज्जली पिघलाने में घृत को अल्प मात्रा में प्रयुक्त करना चाहिए।

2) पर्पटी बनाने में ताजा कदलीपत्र के बीच का डंठल निकाल कर बिना फटा हुआ प्रयुक्त करना चाहिए।

पर्पटी उपयोगी-

  • रस-रसायन कल्पनाओं में पर्पटी कल्प अति महत्वपूर्ण औषधि है।
  • पर्पटी मुख्यतः मन्दाग्नि एवं दुर्बल पित्तजन्य संग्रहणी की विशेष औषधि है।
  • आन्त्र की शक्तिवर्द्धक होती है।
  • पर्पटी का अवशोषण आमाशय में न होकर ग्रहणी, पक्वाशय एवं बृहदांत्र में होटा है।

पर्पटी का प्रयोगः

(1) सामान्य प्रयोग

(2) कल्प प्रयोग

सामान्य प्रयोग :-

पर्पटी का सामान्य प्रयोग 1 से 2 रत्ती तक दिन में 2 बार किया जाता है।

कल्प प्रयोग :-

पर्पटी का कल्परूप में प्रयोग 1 रत्ती से प्रारम्भ कर 10 रत्ती तक प्रतिदिन 1-1 रत्ती बढ़ाते हुए आरोही-अवरोही(ascending nd descending order) क्रम में रोगमुक्त होने तक किया जाता है।

सामान्यतया पर्पटी कल्प 40 दिन का होता है।

◆ इस कल्परूप में दुग्ध, तक्र एवं आम्र रस में से किसी एक का यथेष्ठ प्रयोग कराया जाता है।

◆इस कल्प में अन्न, जल एवं लवण का निषेध रहता है। सामान्य प्रयोग में भृष्ट जीरक चूर्ण एवं तक्र से पर्पटी का पर्योग किया जाता है।

पर्पटी सेवन पथ्यः-

■दुग्ध, तक्र या आगरा सेवन, ब्रह्मचर्य पालन, घी, धनिया, जीरा, सैंधवमिश्रित व्यंजन, पुराने शालि चावल भात, बथुआ, मूंग।

पर्पटी सेवन में अपथ्य-

तीक्ष्ण वायु, धूप, मानसिक चिन्ता, आहारविषमता, व्यायाम, अतिपरिश्रम, स्नान, अधिकसम्भाषण अपथ्य है। पके केले का फल, नीम आदि तिक्त पदार्थ, अम्ल पदार्थ, दही, गुड़, अन्न एवं लवण का सेवन अपथ्य है।

पर्पटी पाक परीक्षा:-

पर्पटी पाक मृदुपाक, मध्यमपाक तथा खरपाक भेद से तीन प्रकार का होता है।

● औषधि के रूप में मृदु एवं मध्यमपाक का ही प्रयोग किया जाता है।

●खरपाकयुक्त पर्पटी को विष की तरह त्यागने का निर्देश है। पर्पटी पाक परीक्षा को पाक कालीन परीक्षा एवं पाक पश्चात् परीक्षा में बाँटा जा सकता है।

पाक कालीन परीक्षा:-

पर्पटी निर्माण हेतु अग्नि की मात्रा एवं पाक काल आदि के अन्तर से द्रवित कज्जली में कुछ लक्षण व्यक्त होते है, जिनके आधार पर बनने वाली पर्पटी कैसी बनेगी का ज्ञान हो जाता है।

मृदु पाक-द्रवित कज्जली यदि मयूरचन्द्रिका के वर्ण की हो, उसे मृदपाक जानना चाहिए।

মध्यपाकः– द्रवित कज्जली को तैलाभ होने तक पाक किया जाय, उसे मध्यपाक पर्पटी जानना चाहि।

खरपाकः– द्रवित कज्जली रक्तवर्ण की हो जाये, उसे खरपाक जानना चाहिए।

पाक पश्चात् परीक्षा:

मृदुपाक:-मृदुपाक पर्पटी सामान्यरूप से टूटती नहीं है, किन्तु मुड़ जाती है।

मध्य पाकः– जो सरलता से टूट जाय या रजत के समान दिखाई दे, उसे मध्यपाक जानकारी चाहिये।

खरपाकः– जो पर्पटी कठिन, रूक्ष, श्लक्ष्ण एवं अरुणवर्ण की हो, उसे खरका जानना चाहिये। खरपाक पर्पटी का चूर्ण लोहित वर्ण होता है।

रस पर्पटी:-

घटक द्रव्यः-

  • हिंगुलोत्थ पारद
  • शुद्ध गन्धक दोनों समान भाग

सहायक द्रव्य :- गोघृत

उपकरण :-

लोहे का चूल्हा, चम्मच छोटी, चाकू, कलछुल, जल्द, गोमय, कदलीपत्र, गोघृत, बेर की लकड़ी का कोयला।

निर्माण विधि:

सर्वप्रथम हिंगुलोत्थ पारद को अग्निमन्थ स्वरस, एरण्डमूल स्वरस एवं आर्द्रक स्वरस के साथ 1-1 दिन मर्दन करके जल से प्रक्षालित कर साफ करें।

  • शुद्ध गन्धक को भृंगराज स्वरस की सात भावना देकर सुखा लें।
  • तत्पश्चात् शुद्ध गन्धक को बेर के कोयलों की अग्नि में पिघलाकर तीन बार भृंगराज स्वरस में बुझा ले।
  • पारद एवं गन्धक को एक साथ खल्व में डालकर 2-3 दिन भली भाँति मर्दन का कजली बनावें।
  • इस कजली को अल्प घृत लिप्त लौहदर्वी में डालकर कोयले के अङ्गार पर गर्म करके पंकवत् द्रवित करें।
  • द्रवित होने पर शीघ्रता से गोमय स्थित कदली पत्र पर डालकर गोमययुक्त कदली पत्र की पोट्टली से दबाकर पर्पटाकार बनायें।
  • इस प्रकार निर्मित पर्पटी को चाकू से खुरचकर पर्पटी को निकाल लें।
  • लौहदर्वी में सरलतापूर्वक पर्पटी बनाने के लिए थोड़ी-थोड़ी कज्जली बार-बार लेकर पर्पटी का निर्माण करें।

पर्पटी मात्रा:-

सामान्य रूप से 2 रत्ती तथा कल्प रूप में 2 रत्ती से प्रारम्भ करके क्रमशः एक-एक रत्ती बढाते हुए 10 रत्ती तक की मात्रा को उतार-चढाव के क्रम से सेवन करना चाहिए।

अनुपान:-

तक्र, दुग्ध या आमरस

उपयोग:-

रस पर्पटी ग्रहणी, ●क्षय, ●कास, ●जलोदर, ●गुल्महर, ●अतिसार, ●दार, ●अतिभ्रम, ●ज्वर, ●शोथहर, ●अर्श,● कामला,● उदरशूल, ●पाण्डु, ●भस्मक रोग, ●अठारह प्रकार के कृष्ण, ●अतिवृद्ध प्लीहा, आमवात, अम्लपित्त, बढे हुए दोषों का शमन करती है।

लौह पर्पटी

घटक द्रव्य-

  • शुद्ध पारद,
  • शुद्ध गंधक,
  • कान्त लौह भस्म प्रत्येक समान भागा

निर्माणविधिः

सर्वप्रथम शुद्ध पारद एवं शुद्ध गंधक को लेकर तीन दिन तक भली भाँति मर्दन करके कज्जली बनायें।

फिर इस में कान्तलौह भस्म मिलाकर मर्दन करें। अब कज्जली को घृत लिप्त लौहदर्वी में डालकर अम्नि पर

द्रवितकर गोमय स्थित कदली पत्र पर डालकर ऊपर से दूसरे कदली पत्र की गोमयुक्त पोट्टली से दबा देवें। सूख जाने पर निर्मित पर्पटी को चाकू से खुरचकर ग्रहण करें। यह लौह पर्पटी है।

अनुपान– शीतल जल, जीरक क्वाथ या धान्यक क्वाथ।

मात्रा:-

●सामान्य मात्रा-1 से 2 रत्ती।

●कल्परूप में एक रत्ती से प्रारम्भ कर प्रतिदिन एक-एक रत्ती बढाते हुए एक या दो सप्ताह तक देवें। फिर एक-एक रत्ती घटाते हुए पुनः एक रत्ती तक लायें। इस प्रकार आरोही अवरोही क्रम से रोगी के पूर्ण स्वस्थ होने तक सेवन करावें।

उपयोग:-

●ज्वर, ●संग्रहणी, ●प्रसूति रोग,● अतिसार, ●पाण्डु, ●कामला, ●आमवात, अठारह कुष्ठ, ●आमदोष शूल, प्लीहा वृद्धि।

पथ्य :- तक्र, रक्तशाली, मिश्री मिला गोदुग्ध।

अपथ्य:- अम्ल,तीक्षण,भोजन, शाक, चिंता, विदही शाक।

ताम्र पर्पटी

घटक द्रव्य:-

  • ताम्र भस्म – 3भाग
  • शुद्ध पारद -3 भाग
  • शुद्ध गंधक – 3 भाग
  • शुद्ध वत्सनाभ – 1 भाग

निर्माण विधि:-

सर्वप्रथम शुद्ध पारद एवं शुद्ध गन्धक को खल्व में मर्दन कर के कज्जलि बनाकर उसमें ताम्र भस्म डालकर अच्छी प्रकार से घोटकर मिलावे।

★ तत्पश्चात् शुद्ध वत्सनाभ का चूर्ण डालकर भलीभाँति मिलावे। सम्यक् रूप से सभी द्रव्य एकाकार हो जाने पर इस कज्जली के मिश्रण को घृत लिप्त लौहदर्वी में डालकर अग्नि पर पिघलाकर गोमयस्थित अर्कपत्र पर डालकर दूसरे अर्कपत्र की गोमययुक्त पोटली से दबाकर पर्पटी बनावें। यह ताम्र पर्पटी है।

मात्रा:- 2 से 3 रत्ती

अनुपान :-

  • पिप्पली चूर्ण, मधु , एवं 1 निष्क बाकुची चूर्ण
  • सन्निपातज्वर में आर्द्रक स्वरस से,
  • पाण्डु में त्रिफला क्वाथ से,
  • ग्रहणी – भुना जीरा 4 रत्ती, भाग धुली हुई 1 रत्ती, छोटी इलायची-2 रत्ती एवं तक्र से,
  • प्रमेह – भुना त्रिफला चूर्ण एवं मधु से,
  • उदरशूल-एरण्डतैल से,
  • कुष्ठ-खदिरक्वाथ से,
  • वातपित्त रोग-कुमारी स्वरस से।

उपयोग :-

श्वास, कास, ज्वर, संग्रहणी, यकृत प्लीहा वृद्धि, वात श्लेष्म ज्वर, अतिसार , शोथ, मनदाग्नि।

पथ्य:- चना , गेहूं की रोटी, गोघृत, परवल,मांस रस, ।

अपथ्य:- कटु ,तिक्त, अम्ल, विदाही, तैल, बैंगन।

पंचामृत पर्पटी:-

घटक द्रव्य:-

  • शुद्ध गन्धक -8 भाग
  • हिंगुलोत्थ पारद – 4भाग
  • कांतलौह भस्म- 2 भाग
  • वज्राभरक भस्म:- 1 भाग
  • ताम्र भस्म- 1/2भाग।

निर्माण विधि:-

सर्वप्रथम हिङ्गुलोत्थ पारद और भृङ्गराज स्वरस द्वारा शोधित गंधक को खल्व में रखकर तीन दिन मर्दन कर कज्जली बनायें।

फिर गोमय का एक वित्ता व्यास एवं 4 अगल ऊँचा पिण्ड बनाकर उस पर केले के पत्ते को टुकडे-टुकडे कर घृत लिप्त कर सेक देवें।

इस अग्नि पर सेके हुए पत्ते को गोमय पिण्ड पर 5-6 सीधा-आडा कर रखें।

ऐसे ही सेके हुए केले के पत्ते में यथावश्यक गोमय रखकर पोट्टली बनायें।

इस पोट्टली पर पुनः 4-5 पत्ते और लपेट देवें।

फिर एक लौह के चूल्हे में बेर के कोयले को जलाकर निर्धुम तथा मध्यमाग्नि हो जाने पर एक लौह की कलछी में थोडा सा घी गर्म कर उसमें कज्जली डालकर छोटी चम्मच से लगातार चलाते रहे, कुछ ही देर में सम्पूर्ण कज्जली पिघलकर पिण्ड रूप में हो जाती है।

तभी उक्त द्रवित कज्जली को कदलीपत्र आच्छादित गोमय पिण्ड पर कलछुल से पलट दें और तुरंत गोमय की पोट्टली से दबा देवें।

फिर पोट्टली हटाकर पर्पटी जैसी आकृति की पञ्चामृत पर्पटी को निकाल क्र सुरक्षित रखें।

पंचामृत पर्पटी की मात्रा:-

सामान्य मात्रा-2 रत्ती दिन में दो बार।

कल्प मात्रा- 2 रत्ती से प्रारम्भ कर प्रतिदिन 2 रत्ती बढाते हुए 8 रत्ती तक तीन सप्ताह तक सेवन करने पर उपरोक्त रोगों को दूर करती है।

पथ्यापथ्यः

– पर्पटी कल्प में केवल दूध का सेवन ही पथ्य आहार है। तैल, खटाई, बैंगन, पेठा, कच्चा केला अपथ्य है।

गगन पर्पटी

घटक द्रव्य-

  • शुद्ध पारद-1 भाग
  • शुद्ध गंधक – 2 भाग
  • अभ्रक भस्म 1 भाग

निर्माण विधिः-

सर्वप्रथम खल्व में शुद्ध पारद एवं शुद्ध गंधक की कज्जली का निर्माण करके उसमें अभ्रक भस्म डालकर अच्छी प्रकार से मर्दन कर एकरूप करें। फिर इस मिश्रण को घृतलिप्त लौहदी में डालकर बेर के लकड़ी की अग्नि में द्रवित करके गोमय स्थित कदली पत्र पर डालकर अन्य कदली पत्र की पोट्टली से दबाकर पर्पटी का निर्माण करें। इसे गगन पर्पटी बन जाती ।

गगन पर्पटी मात्रा:-1 से 3 रत्ती।

अनुपान:- भृष्टजीरक, तक्र, दूध, अनार रस आदि।

उपयोग:- पाण्डु, क्षय, कास, श्वास, मन्दाम्न, ग्रहणी।

पथ्यापथ्य- रसपर्पटीवत्।

बोल पर्पटी

घटक द्रव्य

  • शुद्ध पारद – 1 भाग
  • शुद्ध गन्धक- 1 भाग
  • बोलचूर्ण (हीरा बोल)- 2 भाग

मात्रा: 3 से 6 रत्ती।

अनुपान-शहद, मिश्री, गुलकंद, दूर्वा स्वरस।

उपयोग– रक्तस्राव रक्तातिसार, रक्तपित्त, रक्तार्श, रक्तप्रदर, अत्यार्तव।

पथ्य- शीत, मधुर, कषाय द्रव्य, दूध, घी, मिश्री, गेहूँ, मूँग आदि।

अपथ्य-कटु, अम्ल, लवण एवं उष्ण द्रव्य।

श्वेत पर्पटी (सिद्धयोगसंग्रह-मूत्रकृच्छू)

घटक द्रव्य :-

  • सूर्यक्षार (कलमीशोरा)-1 किलो ग्राम
  • स्फटिका (फिटकरी)-125 ग्राम
  • नवसादर-62.5 ग्राम

निर्माण विधि:-

सर्वप्रथम तीनों द्रव्यों को एकत्र खर्च में डालकर मोटा चूर्ण करें।

●फिर इसे मिट्टी के पात्र में डालकर मध्यमाग्नि पर गर्म करें। धीरे धीरे सम्पूर्ण मिश्रण पिघलकर द्रव्य पीत वर्ण का होगा।

●अब इसे गोमय स्थित कदली पत्र पर थोड़ा-थोड़ा डालते हुए दूसरे गोमययुक्त कदली पत्र की पोट्टली से दबाकर पर्पटी बना लेवें।

सावधानी-

मिश्रित द्रव की ऊष्मा अधिक होने से कदली पत्र एक बार में ही जल जाता है। और उसमें छिद्र हो जाते है। पर्पटी के गोमय में मिलने की सम्भावना रहती है। अतः बार-बार कदली पत्र को बदलते रहना चाहिये।

श्वेत पर्पटी के द्रव्यों को अग्नि पर गर्म करने पर भूरे रंग का घुटन करने वाला पुआ उत्पन्न होने से अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिये।

श्वेत पर्पटी मात्रा :-4-8 रत्ती

अनुपान

नारिकेल जल, शीतल जल, इक्षुरस, मिश्रीयुक्त दूध, मूत्रल द्रव्य।

उपयोग:-

मूत्रकृच्छू, अश्मरी, मूत्राघात, आध्मान नाशक।

पथ्य:-

शीत आहार एवं विहार

अपथ्यः– उष्ण, तीक्ष्ण, कटु, विदाही भोजन, आतप सेवन।

कज्जली एवं पर्पटी:-

दोनों ही पारद एवं गन्धक से बनायी जाती है, किन्तु दोनों के गुणों में भिन्नता अग्नि संस्कार के कारण होती है।

  • कज्जली मर्दनजन्य कल्पना है एवं शिथिल प्रकार का पारद बन्ध
  • कज्जली में पारद एवं गन्धक अधिकांश मात्रा में मुक्त रूप में होते
  • कज्जली में पारद-गन्धक मुक्त एवं पर्पटी में पारद गन्धक यौगिक रूप में होता है।
  • पर्पटी अग्नि द्वारा संस्कार से द्रवित होकर पुनः ठोस रूप में प्राप्त यौगिक यह दीपन पाचन गुणों से युक्त होती है।

मुग्धरस

घटक द्रव्यः-

  • शुद्ध पारद- 1 भाग
  • शुद्ध खटिका- 2 भाग

निर्माण विधि:-

सर्वप्रथम अष्टसंस्कार से शोधित पारद एक भाग लेना उसमें शुद्ध खटिका चूर्ण दो भाग लेकर खल्व में डालकर पारद के निश्चन्द्र होने तक मर्दन किया जाता है, यही मुग्ध रस है।

●इसका वर्ण हल्का भूरा (Grey) होता है। जो बाजार में Grey Powder के नाम से मिलता है।

मुग्धरस मात्रा:- पूरी मात्रा- से 2- रत्ती तक।

★1 वर्ष के बच्चों की मात्रा-1 से रत्ती तक।

उपयोग :-

मुग्ध रस के आभ्यन्तर प्रयोग से अतिसार, वमन एवं सहज फिरंग रोग नष्ट होता है। बच्चों के अतिसार विशेष रूप से हरे पीले या मिट्टी वर्ण के दुर्गन्धयुक्त अतिसार में लाभकारी होता है।

मुग्धरस का आमयिक प्रयोग-

मुग्धरस को एक रत्ती मात्रा में 1-2 माह तक निरन्तर सेवन करने पर गर्भिणी मुग्ध रस स्त्री का नवीन अथवा पुराना फिरंग रोग नष्ट हो जाता है।

एक चौथाई रत्ती की मात्रा में बच्चों को जल के अनुपान से देने पर सहज फिरंग रोग एवं अतिसार में लाभ होता है।

रोग के शान्त हो जाने पर मुग्धरस का प्रयोग रससिंदूर की तरह नहीं करना चाहिए।

◆ क्योंकि मुग्धरस पारद का एक निर्गन्ध यौगिक होने के कारण औषधि मात्रा एवं सेवन अवधि का निर्धारण विचारपूर्वक करना चाहिए और रोग दूर हो जाने पर इसका प्रयोग न करें।

कूपीपक्व कल्पना

परिभाषा:-

काँच की कूपी (शीशी) में पारद आदि द्रव्यों को डालकर अग्नि द्वारा पकाकर जो औषध निर्माण की जाती है उसे कूपीपक्व कल्पना कहते है।

कूपीपक्व रस भेदः

यह सगन्ध एवं निर्गन्ध भेद से दो प्रकार का होता है।

  • सगन्धः- रससिन्दूर, ताम्र मल्लसिन्दूर।
  • निर्गन्धः- रसपुष्प, रसकर्पूर

★पाक के पश्चात् सिद्धौषध के कूपी में प्राप्त होने के स्थान के आधार पर कण्ठस्थ, तलस्थ एवं उभयस्थ भेद से तीन प्रकार किये जाते हैं:

(1) कंठस्थ– रससिन्दूर, रसकर्पूर, मल्लसिन्दूर

(2) तलस्थ:- रससिन्दूर, समीरपन्नग रस

(3) उभयस्थः– पूर्णचन्द्रोदय, माणिक्य रस

निर्माण विधि से अन्तधूम विधि एवं बहिधूम विधि से दो भेद हो जाते है।

कूपीपक्व रस का संक्षिप्त इतिहास

★आचार्य यशोधर भट्ट ने 12वीं शताब्दी में रससिन्दूर कल्पना का सर्वप्रथम उल्लेख रस प्रकाश सुधाकर में ‘उदय भास्कर रस’ के नाम से किया है। यहीं पर घनसार रस के नाम से रसकर्पूर की निर्माण विधि एवं गुणकर्म का उल्लेख किया है।

कूपीपक्व रस निर्माण विधि:

प्रमुख द्रव्यः-

◆शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक।

रसतरंगिणीकार सदानन्द शर्मा ने अर्धगुण, समगुण, द्विगुण, त्रिगुण तथा षड्गुण गंधक की कज्जली से रससिंदूर निर्माण करने का निर्देश दिया है।

इसके अलावा षडांश, चतुर्थांश, तृतीयाश, सपादसमगुण, सार्द्धसमगुण एवं चतुर्गुण गन्धक से निर्मित कज्जली के प्रयोग का भी ग्रन्थों में निर्देश मिलता है।

कज्जली निर्मित होने के बाद योगानुसार उसमें नवसादर आदि अनेक खनिज द्रव्यों का मिश्रण किया जाता है।

कज्जली भावना द्रवः

वटांकुर स्वरस, नींबू स्वरस, कुमारी स्वरस, रक्तकार्पासपुष्प योगानुसार किसी एक से संभावित किया जाता है।

काँच की कपड़ा मिट्टी:-

कूपीपक्व रस के निर्माण के लिए बीयर की बोतल सर्वश्रेष्ठ होती है।

◆इस काँच की बोतल को कूपी स्टेण्ड पर उलटा रखकर इसकी लम्बाई-चौड़ाई के हिसाब से सूती वस्त्र के सात टुकड़े करें।

◆ फिर इस वस्त्र के एक टुकड़े को मुलतानी मिट्टी से लिप्त कर बोतल पर चढ़ावें।

◆इसके सूखने पर इसी प्रकार क्रमशः सातो वस्त्र खण्डों से सात बार कपड़े मिट्टी करें।

अग्निः-

मृदु, मध्य एवं तीव्राग्नि कूपीपक्व रस निर्माण में क्रमशः दी जाती मृदु अग्नि में कज्जली के द्रवित होकर पाक होने के लिए 200-250°C की अग्नि पर्याप्त होती है

  • मध्य अग्नि में कज्जली उबलकर तेजी से धुंआ छोड़ती है, फिर ज्वाला प्रारम्भ होती है।
  • सम्पूर्ण ज्वाला के शान्त होने तक मध्य अग्नि दी जाती है। यह अग्नि 250-450°C तक पर्याप्त होती है। यौगिक का निर्माण मध्य अग्नि पर हो जाता है।
  • तीव्राम्नि से पूर्व यूपी के मुख पर मुद्रा लगाकर बन्द कर देते है। फिर 450-650°c तक अग्नि दी जाती है।
  • इस अग्नि से पाक काल में रससिन्दूर ऊर्ध्वपातित होकर कूपी कण्ठ में एकत्र हो जाता है।
कूपीमुख मुख मुद्रण-

कूपी के मुख पर डाट लगाकर बन्द करना कूपीमुख मुद्रण कहलाता है।

■जिससे मुख बन्द किया जाता है, उसे मुद्रा कहते हैं।

★ इसके लिए मदन मुद्रा एवं हठ मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

◆ केवल मुलतानी मिट्टी एवं वस्त्र का भी इस कार्य हेतु प्रयोग किया जा सकता है।

मुख मुद्रण से पूर्व निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए::-

  1. कूपी से लपटों का निकलना बन्द हो गया हो।
  2. कूपी के चारों तरफ अँधेरा कर कूपी के तल को देखने पर तली रक्तवर्ण की प्रतीत हो।
  3. कूपी में शीत शलाका डालने पर शलाका में धुएँ का न लगना।
  4. कूपी मुख में टॉर्च का प्रकाश करने पर पारद कण ऊपर उठता हुआ प्रतीत हो।
  5. कूपी मुख पर ताम्र का सिक्का रखने से उस पर पारद कण के चिपककर सिक्के के उस भाग को श्वेत कर देते है।
  6. कूपी में तप्त शलाका को डालने पर उसमें कज्जली नहीं लगना।
  7. कूपी की तली के अन्दर सूर्योदय जैसा गोल रक्त बिम्ब की तरह प्रतीत होना।

उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर ही मुख मुद्रण का विनिश्चय करके मुख मुद्रण करना चाहिए।

कूपी तोडने की विधि-

दूसरे दिन कूपी के स्वाङ्गशीत हो जाने पर उसे बालुका यन्त्र से निकालकर सावधानी से उसके ऊपर की कपड़मिट्टी को एक चाकू से खुरचकर पहले कूपी को बाहर से साफ किया जाता है।

फिर कूपी के बाहर से साफ हो जाने पर कूपी के कण्ठ में एकत्र हुआ रससिन्दूर स्पष्ट दिखाई देगा।

जिस स्थान पर रससिन्दूर एकत्र हुआ है, उससे एक इंच नीचे एक सूतली केरोसिन में भिगोकर लपेटकर जलायें।

सूतली के पूर्णतः जल जाने पर एक गीले वस्त्र से कूपी के तप्त भाग को आच्छादित करने पर गोलाई रूप में कूपी टूट जाती है।

फिर वस्त्र को हटाकर यूपी के ऊर्ध्व भाग को सुरक्षित लेकर काष्ठखण्ड से इसको धीरे-धीरे प्रहार करें।

★प्रहार करने पर कूपीकण्ठ में चिपका कूपीकण्ठ के आकार का रससिन्दूर पृथक् होकर नीचे आ जायेगा।

★इसको सुरक्षित रखकर चूर्ण रूप में बना लेना चाहिए। काँच के छोटे-छोटे टुकड़ों को औषधि से निकालकर औषधि को सुरक्षित रखनी चाहिए।

रससिन्दूर (Red sulphide of mercury)

घटक द्रव्यः-

  • शुद्ध पारद-1 पल
  • शुद्ध गंधक 1 पल

भावना द्रव्य :-

वटांकुर स्वरस तीन भावना

निर्माण विधि-

सर्वप्रथम शुद्ध पारद एवं शुद्ध गन्धक दो-दो पल लेकर खल्व में एकत्र मिलाकर दो दिन तक भली भाँति मर्दन करके कज्जली का निर्माण करें।

फिर इस कज्जली में वटांकुर स्वरस या कोमल सेमल की मूसलियों के स्वरस की तीन भावना देकर सुखा देते हैं।

अब एक मसीपात्र जैसी शीशी (दवात) लेकर उसको रुई और मुलतानी मिट्टी से 7 बार कपड़े मिट्टी करके सुखायें।

★अब इस कूपी में कज्जली को भरकर बालुका यन्त्र में रखकर मन्द, मध्य और तीव्र अग्नि क्रमशः देवें।

प्रथम दो याम (6 घंटे) तक मृद अग्नि देकर मध्यम अग्नि देवें। गन्धक जीर्ण हो जाने पर काँच कूपी के मुख पर डाँट लगाकर उसको गुड़ और चूने के मिश्रण से भली-भाँति बन्द करें।

फिर 6 घण्टे तक तीव्र अग्नि देकर पाक कर। बालुका यन्त्र के स्वांग शीत हो जाने पर कांच कूपी को बालुका यन्त्र से बाहर निकालकर तोड़कर उसमें से रक्तकमल सदृश वर्ण वाला कूपी के कण्ठ में लगा हुआ रस सिन्दूर प्राप्त करना चाहिए।

रससिन्दूर प्राप्ति मान :-

यदि 100 ग्राम पारद और 100 ग्राम गन्धक लिया 116 ग्राम कुल रससिन्दूर बनना चाहिए।

◆क्योंकि पारद 6 भाग और गन्धक 1 भाग मिलकर रससिन्दूर का निर्माण होता है। किन्तु निर्माण में सावधानी रखने के उपरान्त भी 110 ग्राम के लगभग रससिन्दूर प्राप्त होता: है।

उपयोग :-

यह रसायन, वाजीकरण, स्नायु दौर्बल्य नाशक, फुफ्फुस बलदायक ज्वर, प्रमेह, शूल, भगन्दर, क्षय, गुल्म, पाण्डु, स्थौल्य, व्रण, अग्निमांद्य, कुष्ठ, पित्त निष्कासक, उत्तम योगवाही होता है।

रसकर्पूर (Mercuric Chloride)

घटक द्रव्य:-

  • शुद्ध पारद – 1पल
  • शुद्ध गन्धकाम्ल (Sulphuric acid) I पल
  • सैंधव लवण – 1 पल

निर्माण विधिः-

शुद्ध पारद एवं शुद्ध गन्धकाम्ल को काँच के बीकर में डालकर त्रिपाद (Tripod stand) पर रखकर स्प्रिट लैम्प से गर्म करके सम्पूर्ण गन्धकाम्ल के जलीय भाग को सुखा देते है।

  • बीकर में बचे पारद के श्वेतचूर्ण को खल्व में डालकर उसमें सैंधव लवण का चूर्ण डालकर भलीभाँति मिला देते है।
  • अब इस मिश्रण को कपड़े मिट्टी की हुई काँच कूपी में डालकर बालुका यन्त्र में स्थापित करके चार प्रहर (12 घण्टे) मध्यम अग्नि से पाक करते है।
  • चार प्रहर के बाद अग्नि देना बन्द कर देते है।
  • स्वांगशीत होने पर सावधानीपूर्वक काँच कूपी को तोडकर कण्ठ भाग में स्थित कर्पूर के समान श्वेत रसकर्पूर को निकाल कर सुरक्षित रख लें।

सावधानी :-

काँच कूपी से जल वाष्प का निकलना बन्द हो जाय तो कूपी मुख को डाँट लगाकर बन्द कर देना चाहिए एवं कूपी के कण्ठ भाग से दो अंगुल के बालुका हटा देनी चाहिए। जिससे शीतल होकर वहाँ पर रसकर्पूर एकत्रित हो सके।

रसकर्पूर मात्रा:

1/64 – 1/32 रत्ती (2 से 4 मि. ग्रा.) तक।

उपयोग :-

कृमिविषनाशक, त्वक् व रक्त दोषनाशक, ग्राही, अरोचक अतिसार, प्रवाहिका, स्फोट, कण्डू, मण्डल आदि कुष्ठ, सहज एवं स्पर्शजर फिरंगरोगनाशक, अनेकप्रकार के व्रणों की पीडानाशक एवं अल्प मात्रा में पाचक है। वह 16 गुना शीतल जल में भली भाँति घुल जाता है।

समीरपन्नग रस

घटक द्रव्य-

  • शुद्ध पारद 1 भाग
  • शुद्ध गंधक 1 भाग
  • शुद्ध संखिया 1 भाग
  • शुद्ध हरताल 1 भाग

समीरपन्नग रस मात्रा:-2 से 2 रत्ती तक।

अनुपान– ताम्बूल पत्र स्वरस

उपयोग :- वातव्याधि, सन्निपात ज्वर, उन्माद, आमवात, कफ रोग ।

मकरध्वज

घटक द्रव्यः-

  1. कण्टकवेधी शुद्ध स्वर्ण पत्र- 1 भाग (4 तोला)
  2. हिंगुलोत्थ/अष्टसंस्कारित पारद-8 भाग (32 तोला)
  3. शुद्ध गंधक – 16 भाग (64 तोला)

भावना द्रव्यः-

1 वटांकुर स्वरस , घृतकुमारी स्वरस

मकरध्वज मात्रा:-1 से 2 रत्ती (रसामृत के अनुसार 1 से 2 वल्ल) तक।

अनुपान-शृतशीतजल, मिश्रीयुक्त गोदुग्ध, मक्खन, मधु, गोघृत।

उपयोग :- इस मकरध्वज रस के सेवन करने पर जाठराग्नि, स्मरण शक्ति.,आयुवर्धक और शरीर की कान्ति को बढ़ाता है।● वृद्धावस्था दूर करने वाला, वाजीकारक और अनुपान भेद से सम्पूर्ण व्याधियों का नाश करता है।

स्वर्णवङ्ग

घटक द्रव्यः-

  • शुद्ध खुरक वङ्ग-1 भाग
  • हिंगुलोत्थपारद-1 भाग
  • शुद्ध गन्धक-1 भाग
  • नौसादर-1 भाग
  • कलमीशोरा 1/8 भाग।
  • सहायक द्रव्यः- सैंधव लवण पल, नींबू स्वरस- यथावश्यक।

स्वर्णवङ्ग मात्रा- 1 से 2 रत्ती

अनुपान– शहद, मक्खन, मिश्री, दूध।

उपयोग :-

यह शीत, रुक्ष, सर, तिक्त, लवण, बल्य, रसायन, मेध्य, वाजीकरण, ओजप्रद, दीपन, पाचन तथा मधुमेह, प्रमेह, धातु दौर्बल्य, कास, श्वास,यकृत दोष,मूत्रकृच्छ्र एवं श्वेत प्रदर रोग नाशक होता है।

पोट्टली कल्पना

निरुक्तिः

“विस्तारितस्य वस्तुनः अल्पं भवनं पोट्टम्। पोट्टलति गृह्णाति इति पोट्टलीम्।। “

अर्थात् विस्तृत वस्तु की अल्प विस्तार में गोली बनाकर औषध निर्माण करने को पोट्टली कल्पना कहते है।

पोट्टली के प्रकार

  • शिखरारम्भिका कार्य
  • पूगमात्रा गुटीः कृत्वा
  • कर्षमानाश्च वर्तिका

इतिहास-

पोट्टली कल्पना का 12 वीं शताब्दी में रसरत्नाकर आचार्य नित्यनाथ ने सर्वप्रथम वर्णन किया है। जिस प्रकार पर्पटी, कूपीपक्व, खल्वीय कल्पनाऐं विकसित हुई, उसी तरह पारद की पोटली कल्पना भी विकसित हुई है।

हेमगर्भ पोट्टली

घटक द्रव्य

  • शुद्ध पारद- 4 भाग
  • शुद्ध गंधक- 2 भाग
  • स्वर्ण भस्म- 1 भाग
  • ताम्र भस्म – 3 भाग

भावना द्रव्य:-

कुमारी स्वरस + ईसबगोल, बबूल निर्यास परिस्त्रुत जल, अण्डे का श्वेत द्रव, तुलसी स्वरस, धतूरा पत्र स्वरस, निर्गुण्डी स्वरस।

निर्माण विधि:-

  • सर्वप्रथम शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण भस्म एवं ताम्र भस्म सभी को सम्यक् रीति से खल्व में डालकर कुमारी स्वरसादि से सात दिन तक अच्छी प्रकार से मर्दन करके कज्जली बनाते है।
  • फिर घृतकुमारी आदि के स्वरस से बड़ी सुपारी जैसी शंक्वाकार गुटिका बनाकर सुखा लेते है।
  • अब एक फीट (12 इंच) गाढे रेशमी वस्त्र में 1 तोला शुद्ध गन्धक चूर्ण रखकर उस पर गुटिका को रखकर पुनः ऊपर से शुद्ध गन्धक चूर्ण 2 तोला डालकर गुटिका को ढक दिया जाता है।
  • फिर रेशमी वस्त्र को कसकर बांधना है।
  • मूषा या प्यालीनुमा किसी मिट्टी के पात्र में 250 ग्राम शुद्ध गन्धक डालकर मृदु अग्नि पर पिघलावें।
  • जब गन्धक पिघल जाय तो शंक्वाकार गुटिका की पोट्टली को दोला यन्त्र की तरह लटकाकर अग्नि पर पाक करें।
  • बीच-बीच में पोट्टली को बाहर निकालकर कलछुल आदि पर हल्का ठोकते रहे।
  • जब उस पोट्टली से धातुकीय शब्द टन्-टन की आवाज आने लगे एवं गन्धक का वर्ण व्योम वर्ण हो जाये तो पोट्टली को बाहर निकालना चाहिए।
  • फिर शीत हो जाने पर पोट्टली खोलकर गुटिका को बाहर निकालकर उस पर चिपके हुए गन्धक को हटाकर शंक्वाकार गोली (पोली। सुरक्षित रखें।पोट्टली निर्माण में 120°C अग्नि से ज्यादा नहीं देना चाहिए।

प्रमुख उपयोग-

इस हेमगर्भ पोट्टली को सन्निपात व्याधियों में भी स्वरस या पर्णखण्ड रस में घिसकर प्रयोग करें।

रसचिन्तामणि में हिरण्यगर्भ पोट्टली नाम से वर्णित है।

जिसमें पारद, गन्धक एवं स्वर्ण भस्म को समान मात्रा में लेकर बनाने का निर्देश

रस सेवन विधि :-

● रस भस्म का शरीर में प्रयोग करने से पूर्ण शरीर को पञ्चकर्म द्वारा शुद्ध करके सम्यक् बल-वीर्य प्राप्ति हेतु कोई एक रसायन योग (अभ्रकसत्त्व प्रधान या रसग्रन्थों में वर्णित अन्य योग) का एक पक्ष या एक मास या एक वर्ष तक प्रयोग करें। इसे क्षेत्रीकरण कहते हैं। तत्पश्चात् रस भस्म को ताम्बूल (पान) मे रखकर विधिपूर्वक सेवन करें।

रस सेवन में पथ्य:-

शुद्ध घी, सैंधवलवण, धनियाँ, जीरा, आर्द्रकादि पदार्थों से संस्कारित चौलाई, धनियाँ, परवल, लौकी, नेनुआ आदि, गेहूं, पुराना शालि चावल, गोदुग्ध, दही, घृत, हंसोदक, मुद्गयूष को पारद सेवन काल में पथ्य माना गया है।

सेवन में अपथ्य-

बड़ी कटेरी, बिल्व, पेठा, वेतांकुर, करेला, उड़द, मसूर, मटर, कुलत्थ, सरसों एवं तिल के पदार्थ, लघु, उबटन, स्नान, मुर्गे का मांस, आनूप मांस, मद्य, आसव, काजी, कदली पत्र, कांस्यपात्र में रखा भोजन, गुरु, विष्टम्भी भोजन, तीक्ष्ण एवं उष्ण पदार्थों को पारद सेवन काल में अपथ्य माना गया है।

रस व्यापद् प्रतिकारः-

वमन होने पर जीरा चूर्ण के साथ दही एवं भात सेवन अथवा कृष्ण मछली का सेवन, वात प्रकोप में नारायण तैल की मालिश, बैचेनी होने पर सिर पर शीतोदक अभिषेक, तृष्णा होने पर शर्करा मिश्रित नारिकेलोदक या शर्करा मिश्रित मूंग का विष पिलाना चाहिए।

रस त्याग विधि:-

पारद के योगों का सेवन बन्द करने पर एक बार बड़ी और बिल्व के फल का सेवन करके इच्छानुसार पथ्य आहार-विहार का सेवन करें।

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