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Mutra Pariksha ( मूत्र परीक्षा ) : Urine Examination in Ayurveda

AFTER READING MUTRA PARIKSHA, READ COMMONLY USED MEDICAL TESTS.

‘नाड्या मूत्राशय जिह्वायां लक्षणं यो न विन्दते।
मारयत्याशु वै जन्तून् स वैद्यो न यशो लभेत्।।
(योग चिंतामणि)

अर्थात् :- जो वैद्य नाड़ी, मूत्र, जिह्वा के लक्षणों को नहीं जानता, वह कभी भी यश का भागी नहीं होता।

Mutra pariksha

अष्ठ विध परीक्षा में नाड़ी परीक्षा के बाद में मूत्र परीक्षा का नाम आता है, इसी से मूत्र परीक्षा (Mutra pariksha) का महत्व प्रकट होता है। चरक से लेकर नागार्जुन ने अपनी अपनी संहिता में मूत्र परीक्षा का वर्णन किया है व नागार्जुन ने अष्ठ विध परीक्षा के लिए अलग से भी एक पुस्तक लिखी थी, जो आजकल सम्पूर्ण तौर से नहीं मिलती।

मूत्र संग्रह विधि :-

‘निशान्त्यबामे घटिकाचतुष्टये उत्याप्य वैद्यः किल रोगिणं च।
मूत्रं घृतं काचमये च पात्रे सूर्योदये तत्सततं परीक्षेत्॥
तस्याऽयधारां परिहृत्य मध्यधारोद्भवं तत्परिधारयित्वा।
सम्यक् परिज्ञाय गदस्य हेतुं कुर्यात् चिकित्सा सततं हिताय।।
( योग रत्नाकर )

रात्रि के अंतिम याम में चतुर्थ घटी (सूर्योदय से लगभग 1 घंटा पहले) वैद्य को रोगी को उठाकर कांच के पात्र में मूत्र संग्रहित करें। मूत्र की प्रथम धारा छोड़कर मध्य की धारा लेनी चाहिए।

Mutra pariksha
वात आदि दोषों का मूत्र पर प्रभाव :-

‘वाते च पाण्ड्रं मूत्रं सफेनं कफरोगिणः।
रक्तवर्ण भवेत् पित्ते द्वन्द्वजे मिश्रितं भवेत्॥
सन्निपाते च कृष्णंस्यादेतन्मूत्रस्य लक्षणम्।
‘नीलं च रूक्षं कुपिते च वायौ पीतारुणं तैलसमं च पित्ते।
स्निग्धं कफे पल्वलवारितुल्यं स्निग्धोष्णरक्तं रुधिरप्रकोपे।
‘पित्तानिले धूमजलाभमुष्णं श्वेतं मरुच्छ्लेष्मणि बुदबुदाभम्।
तच्छ्लेष्मपित्ते कलुषं सरक्तं जीर्णज्वरेऽसृक्सदृशं च पीतम् ।।
स्यात्सन्निपातादपि मिश्रवर्णं तूर्णं विधिज्ञेन विचारणीयम्।
(योग रत्नाकर)

दोष मूत्र पर प्रभाव
वातपांडु वर्ण, नील वर्ण, रुक्ष
पित्तरक्त वर्ण, पीला- अरुण वर्ण,तैल के समान गाढ़ा,
कफफेन युक्त, सनिग्ध, कमल जल के समान सवच
त्रिदोषकृष्ण वर्ण
रक्त प्रकोपस्निग्ध, उष्ण, रक्त वर्ण
वात व पित्तधुएं के समान, उष्ण
वात व कफबुलबुलों के युक्त जल के समान
कफ व पित्तगंदला, रक्त वर्ण, रक्त युक्त
ज्वररक्त प्रकोप के समान, पीत वर्ण का
काम्लापीत वर्ण
नागार्जुन द्वारा वर्णित तैल बिंदु मूत्र परीक्षा :-

विकासितं तैलमथाऽशु मूत्रे साध्यः स रोगी न विकासितं चेत्। स्यात्कष्टसाध्यस्तलगे त्वसाध्यो नागार्जुनेनैव कृता परीक्षा।। ( योग रत्नाकर )

यहां योग रत्नाकर ने बताया है कि इस विधि को सर्व प्रथम आचार्य नागार्जुन द्वारा विकसित व बताया गया था।

तृण दापयेत् तैलबिन्दुं तत्रातिलाघवात्।।

तैल बिंदु परीक्षा से ना ही केवल रोग का ज्ञान होता है अपितु रोग के परिमाण एवं साध्य-असाध्य का भी पता चलता है।

विधि :-

सर्व प्रथम मूत्र को उपर्युक्त बताई गई विधि से इख़ता करें। उसके बाद में सूर्य के प्रकाश में मूत्र को एक सम जगह पर रखे और मूत्र को स्थिर रखते हुए आराम से ना ज्यादा दूरी से ना ही ज्यादा नजदीक से तैल की बिंदु डालें। एक ही तैल की बिंदु डालें।

निष्कर्ष :-

गृहीत्वा रोगिणो मूत्रं सूर्यतापे निधापयेत्।
तस्य मध्ये क्षिपेत्तैलं तन्मूत्रं च परीक्षयेत्॥
यदा विकासमाप्नोति तदा साध्यं भविष्यति।
बिन्दुरूपेण मध्यस्थमसाध्यं तैलमादिशेत्॥
तैलबिन्दुर्यदा मूत्रे विकासं कुरुते स्वयम्।
स्वरूपं तस्य वक्ष्यामि शुभाशुभविनिर्णयम्।।
तैलबिन्दुर्यदा मत्रे मत्स्याकारं भवेद्धवम्।
निर्दोषं च तदा नूनं मोक्षणं चैव कारयेत्।।
सर्वदा सकले पात्रे प्रासादं गजचामरम्।
छत्रं च तोरणाकारं तैलबिन्दु शुभप्रदम् ।
प्रातरुत्थाय मतिमान्मूत्रं पश्येन्निरन्तरम्।
मृन्मये तैलजे स्वच्छे पात्रं दृष्ट्वा शुभाशुभम्।
तन्मध्ये निक्षिपेत्तैलं यथासाध्यं विचारयेत्।।
बिन्दुरूपेण मध्यस्थं तैलं चेत्कृच्छ्रसाध्यताम्।
विकासते यदा तैलं सुखसाध्यं समादिशेत् । छत्रपर्वतवृक्षाणां प्रासादोष्ट्रगदस्य च।
रूपैः समानि साध्यस्यात्तैलबिन्दुः प्रकाशते ।।
वल्लीमृदङ्गमनुजभाण्डचक्रमृगादिभिः।
समो विकासते बिन्दु साध्यासाध्यं विचारयेत्॥
कृच्छ्रसाध्यं समादिशेत् (शारीरे) प्रातरग्रभवां धारां त्यक्त्वा मूत्रस्य रोगिणः।
तत्र तैललवं क्षिप्त्वा साध्यासाध्यं विचारयेत्॥
(बसवराजीयम् 3 प्रकरणम्)

परिवर्तननिष्कर्ष
तैल की बूंद फैलेरोग की साधायवस्था
तैल की बूंद एशे ही रहे और न फैलेअसाध्य
तैल बिंदु मछली के आकार की होयनिर्दोष
प्रसाद, गज चामर, छत्र, टोरण शुभ संकेत
तैल की मध्य में बिंदु रूप में रहेक्रिच साध्य
तैल की बिंदु मध्य में विकसित होकर फैल जाएसुख साध्य
छत्र, पर्वत, वृक्ष, प्रसाद, ओश्ट्र गदसाध्य
वल्ली, मृदङ्ग, भाण्ड, चक्र, मृगकृच्छ्र साध्य

पूर्वाशां वर्धते बिन्दुर्यदा शीघ्रं सुखी भवेत् । दक्षिणाशां ज्वरो ज्ञेयस्तथाऽऽरोग्यं क्रमाद्भवेत्।। उत्तरस्यां यदा बिन्दोः प्रसरः सम्प्रजायते। अरोगिता संशयः ।। नूनं पुरुषस्य तदा न वारुण्यां प्रसरेद् बिन्दुः सुखारोग्यं तदाऽऽदिशेत्। ऐशान्यां वर्धते बिन्दुर्धुवं मासेन नश्यति ।। आग्नेय्यां तु तथा ज्ञेयं नैर्ऋत्यां प्रसरेद् यदि। छिद्रितश्च भवेत्पश्चाद् धुरवं मरणमेव च॥ वायव्यां प्रसरेद् बिन्दुः सुधयापि विनश्यति॥ (योग रत्नाकार)

दिशानिष्कर्ष
पूर्वशीघ्र ही निरोग होगा
दक्षिणरोगी को ज्वर अर्दित है और शीघ्र निरोग होगा
उत्तरनिश्चय ही निरोग होगा
पश्चिमसुखी और आरोग्यता को प्राप्त होता है
ईशानजीवन को बस 1 मास बचा है
तैल की बिंदु में छेद होजाएगत आयु
वायव्यअमृत सेवन के बाद भी रोगी नहीं बचेगा
वात आदि दोष की तैल परीक्षा :-

‘सर्पाकारं भवेद्वाताच्छत्राकारं तु पित्ततः। मुक्ताकारं बलासात्स्यादेतन्मूत्रस्य लक्षणम्॥

निष्कर्ष
वातसर्प के समान आकृति, मंडल
पित्तछत्र के समान आकृति, बुद्धबूद
कफमोती के आकार के आकृति, बिंदुं अयन
त्रिदोषबिंदु – निमझन
तैल बिंदु के अनुसार किनकी चिकत्सा नहीं करनी चाहिए :-

‘विकाशितं हलं कूर्म सैरिभाकारसंयुतम्।
करण्डमण्डलं वापि शिरोहीननरं तथा।।
गात्रखण्डं च शस्त्रं च खड्ग मुशलपट्टिशम्।
शरं च लगुडं चैव तथैव त्रि चतुष्पथ-।।
बिन्दुरूपं नरो दृष्ट्वा न कुर्वीत क्रियां फ्यचित्। ( योग रत्नाकर )

चतुष्पादं त्रिपादं च द्विपादं चैव दृश्यते। एकपादं यदा बिन्दुर्मृत्युदः कथितो बुधैः ।।
नरः शिरोविहीनस्तु गात्रं स्तम्भसमाकृतिः।
एतद्रूपविभेदाञ्च ध्रुवं मृत्युः प्रजायते (माधवनिदाने)
सृगालसर्पमार्जारखङ्गबाणलुलायवत्। व्याघ्रमर्कटसिंहानां सादृश्यान्मृत्युमाप्नुयात् ( मतान्तरे )
सर्पवान् बिडालमूषिकासूकराकृति भवेद्यदि चिह्नम्।
वृक्षिकाकृति भवेदधस्तदा यस्य मूत्रपतितं सगताय (आयुर्वेदे)
पक्षी कूर्मो वृषः सिंहः सूकरः सर्पवानरौ।
बिडालो वृश्चिकश्चैव च्छिद्रत्वेऽपि तथैव च।।
निमजनात्तैलबिन्दोस्तदा मृत्युधुवं भवेत् (माधवनिदाने)

शस्त्रखङ्गधनुश्चैव त्रिशूलं मुसलायुधम्।
लगुडाकृतिकं तैलं तत्क्षणं वा गतायुषम् (माधवकल्पे)

नागवल्लीदलं कुम्भसन्निभं हस्तिवालकैः वृषवानरमण्डूकं मूत्रं पश्येत्र जीवति (ग्रन्थान्तरे )
तैलबिन्दुर्यदा मूत्रे चालनीवेन्द्रगोपकम्। प्रेतलोकस्य गमनं ध्रुवं ज्ञेयं चिकित्सकैः।।

  • हल
  • कछुआ
  • भैसा
  • मधुमक्खी के चते के आकार का
  • टुकड़ों में शरीर के समान आना
  • शस्त्र
  • तीन रास्ते
  • चौराहा
  • चतुष्पाद
  • त्रिपाद
  • द्विपाद
  • ध्रुव ( निश्चित मृत्यु सूचक )
  • एक पाद
  • सिर बिना देह
  • सर्प
  • सरगल
  • सिंह
  • बाण
  • मार्केट
  • नर
  • मंदूक
  • हस्ती
  • वाल
  • कुंभ
  • नागवल्ली दल
  • वृश्चिक
  • वृष
  • पक्षी
  • सूअर
  • मुष्क
  • वानर

भूत विद्या के अन्तर्गत चिकित्सा :-

हंसकारण्डताडागं कमलं गजचामरम्।
छत्रं वा तोरणं ह सुपूर्ण दृश्यते यदि ।।
आरोग्यता ध्रुवं ज्ञेया तदा कुर्यात्प्रतिक्रियाम् ।
तैलबिन्दुर्यदा मूत्रे चालनीसदृशो भवेत्॥
कुलदोषो धुवं ज्ञेयः प्रेतदोषसमुद्भवः नराकारं प्रजायेत किंवा स्यान्मस्तकद्वयम्॥
भूतदोषं विजानीयाद् भूतविद्यां तदाऽऽचरेत् (योग रत्नाकर ) ॥

  • चलनी – कुल दोष
  • मनुष्य – भूत दोष
  • 2 मस्तक – भूत दोष

निरोगता अवश्य है परंतु चिकत्सा करवानी परेगी :-

  • हंस
  • कमल
  • तालाब
  • umbrella
  • करांद पक्षी
  • घर
  • तोरण

विभिन्न रोगों में स्तिथि :-

अधोबहुलमारक्तं मूत्रमालोक्यते यदा।
वदन्ति तदतीसारलिङ्गं वै लिङ्गवेदिनः।
जलोदरसमुद्भूतं मूत्रं घृतकणोपमम्।
आमवाते वसातुल्यं तक्रतुल्यं तु जायते।।
वातचरसमुद्भूतं मूत्रं कुङ्कमपिञ्जरम्।
मलेन पीतवर्णं च बहुलं च प्रजायते ( ग्रन्थान्तरे )
पीतस्वच्छं च जायेत मूत्रं पित्तोदये सति।
समधातौ पुन: कूपजलतुल्यं प्रजायते॥
मूत्रं च कृष्णतां याति क्षयरोगाकुलस्य च।
क्षयरोगो भवेद्यस्य तमसाध्यं विनिर्दिशेत्।।
ऊर्ध्वं पीतमधोरक्तं मूत्रं वैद्यवरस्तदा।
पित्तप्रकृतिसम्भूतसन्निपातस्य लक्षयेत्।।
यस्येक्षुरससङ्काशं मूत्रं नेत्रे च पिञ्जरे। रसाधिक्यं विजानीयानिर्दिशेत्तस्य लंघनम्।।
पीतं च बहुलं चैव ह्यामवातात्प्रजायते ।
रक्तं स्वच्छं च यन्मूत्रं तज्वराधिक्यलक्षणम् ॥
धूम्रवर्ण यदा मूत्रं ज्वराधिक्यं वदेत्तदा।
कृष्णमच्छं च जानीयात्सन्निपातज्वरोद्भवम्।।

निष्कर्ष
अधोबहुल आरक्तअतिसार
घृतकणोपमजलोदर
वसा तक्र तुल्यआम वात
मलपीत वर्णवात ज्वर
स्वच्छ मूत्रपित्त
कूप जल तुल्यसम धातु
मूत्र कृष्णताक्षय रोग असाध्य अवस्था
उध्रवपीत – अधोरक्तपित्त प्रकृति
इक्षु रस संकाशरस अदिक्कता
पीत बहुलत्वआम वात
रक्त, स्वच्छज्वर अधिकता
धूम्र वर्णज्वर अधिकता
कृष्ण स्वच्छसन्निपातज ज्वर

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