परिभाषा :-
महीने-महीने में स्त्रियों के जो रज:स्राव होता है, उस समय वो स्त्रियाँ रज:स्वला कहलाती हैं।
रज स्वला स्त्री को जिस प्रकार आहर विहार रखना चाहिए उसका विस्तार पूर्वक व्याख्यान हम इस चर्या में करेंगे।
रज: स्वला स्त्री के करने योग्य एवम् त्याज्य कर्म
आचार्य चरक द्वारा =
- रजोदर्शन के समय से लेकर तीन रात्रि (दिन एवं रात्रि) ब्राह्मचारिणी रहकर भूमि में शयन करे।
- हाथ में बिना टूटे हुए पात्र में अन्न रखकर भोजन करे, किसी भी प्रकार का प्रक्षालन न करे ।
- तदुपरांत चतुर्थ दिवस उबटन लगाकर, शिर से स्नान कर, श्वेत वस्त्र धारण करे, पुरुष भी सफेद कपड़े धारण करे। इस प्रकार प्रसन्न मन से एक दूसरे को चाहने वाले उन पति-पत्नियों को वैध सहवास की आज्ञा दे।
आचार्य सुश्रुत द्वारा =
- त्यागने योग्य कर्म: सुश्रुत के मत से ऋतु स्त्राव के प्रथम दिन से ही ब्रह्मचारिणी स्त्री दिन में सोना, अंजन, अश्रुपात, स्नान, अनुलेपन (चन्दनादि सुगंधित द्रव्य-प्रयोग), अभ्यंग (तैल का), नखों का काटना, दौड़ना, हँसना, अधिक बोलना, अत्यधिक शब्दों का सुनना, केश धोना आदि त्याग दे।
- दर्भ (कुश ) के बने बिस्तर पर सोने वाली, हथेली या शराव (मिट्टी का बर्तन) या पत्ते एवम् हविष्य (घृत के साथ कोई भी कर्म) भोजन करने वाली स्त्री तीन दिन तक पति से अलग रहे।
- उसके बाद चौथे दिन शुद्ध-स्नान, नवीन-वस्त्र-धारण कर एवं अलंकृत (आभूषणों एवं माल्यादि से); स्त्री को मंगलाचरण के साथ पति के सामने जाना चाहिए।
महर्षि वाग्भट अनुसार =
- भोजन में – यव से बने खाद्य पदार्थ को दुग्ध के साथ ग्रहण करे।
- जो पदार्थ शरीर को कर्श करे और कोष्ठ का शोधन करे ऐसे खाने का विशिष्ट विधान बताया है
- पुष्पिता अर्थात् रजःस्वला को स्वेदन का निषेध किया है ।
महर्षि काश्यप अनुसार =
- इन्होंने रजस्वला को नस्य एवं वमन कर्म का निषेध किया है।
- रज स्त्राव के तत्पश्चात् चौथे दिन स्नान से शुद्ध स्त्री स्नानगृह में ही श्वेत या अन्य (शुभ) वस्त्रों से अपने आपको ढककर आए।
- उसके पश्चात पवित्र मन से देवगृह में प्रवेश कर, प्रज्वलित तथा हवन की हुई अग्नि की घृत आदि से पूजा करके, ब्राह्मण, ईश्वर, विष्णु तथा स्कन्द को देखकर तथा उनका अभिवादन करके, सूर्य एवं चन्द्रमा को नमस्कार करे।
- प्रेत, पिशाच एवं राक्षस आदि को नमस्कार न करे ।
महर्षि भेल अनुसार =
भेल ने रज: स्त्राव के समय होने वाले रक्त को पुराण रज को संज्ञा देते हुए इस काल में संभोग का निषेध किया है।
रज स्वला अंजन आदि एवम् नस्य से हानि
आचार्य सुश्रुत अनुसार =
- ऋतु स्त्राव के समय स्त्री के दिन में सोने से गर्भ निद्रालु
- अंजन करने से अन्धा
- रोने से विकृत दृष्टि का
- स्रानानुलेपन ने दुःखशील (हर समय दुःखी रहने वाला)
- तेल के अभ्यंग से कुष्ठरोग-पीड़ित
- नख काटने से विकृत नख वाला
- हसने से श्याव वर्ण के दाँत, ओठ, तालु, जिह्वा वाला
- बहुत बोलने से वाचाल
- अतिशब्द सुनने से बधिर
- अवलेखन से अर्थात कंघी आदि से केश-सज्जा करने से खलित या गंजा
- वायु के अतिसेवन या अति परिश्रम करने से उन्मत्त होता है ।
जिस रजः स्त्राव के समय यह क्रियाएं स्त्री करती है उसके तुरंत बाद होनेवाले गर्माधान होने पर बालक में यह विकार पाए जाते हैं। इसलिए इन कार्यों का परित्याग करना चाहिए।
महर्षि काश्यप अनुसार =
कश्यप का मत है कि रजस्वला को नस्य देने से उसे ऋतु स्त्राव संबंधी व्याधियाँ हो सकती हैं।
रजः स्त्राव के अन्त में (चतुर्थ दिवस) पति-दर्शन या अन्य मानसिक स्थिति का परिणाम
(Effect of psychological status of woman on fourth day of menstruation upon the child)
१. सुश्रुत अनुसार = ऋतु स्त्राव (ऋतुसाव के चतुर्थ दिन पर स्नान के बाद) स्त्री जिस तरह के पुरुष को देखती है, उसी तरह के पुत्र को जन्म देती है, अत: सर्वप्रथम पति-दर्शन का निर्देश है।
२. महर्षि वाग्भट ने बालक पर स्त्री के चिंतन के प्रभाव को स्वीकार करते हुए लिखा है कि वह जिस प्रकार के पुरुष को देखेगी या सोचेगी वैसा ही प्रसव होगा।
३. महर्षि कश्यप के मतानुसार शुद्ध हुई स्त्री जिसको देखेगी या जिसका ध्यान करेगी, उसी प्रकार के आचार एवं शरीर वाली सन्तान का जन्म देगी। अत: वह देवता, गो, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन या आचार्य का दर्शन करे, तथा कल्याण मन वाली रहे ।
४. भावमित्र ने पति के अतिरिक्त अन्य प्रियजन यथा पुत्र आदि के दर्शन का भी निर्देश दिया है।
५. महर्षि हारीत ने कहा है कि सातों धातुओं के सम होन पर, स्त्राव समाप्त होने पर, उसी प्रकार के पुत्र को जन्म देती है।
स्त्री की सात्विकी, राजसी तथा तामसी जिस जिस प्रकार की भावनाएँ होती हैं, उसी प्रकार के गुण वाले पुत्र को वह जन्म देती है।
वह चित्त में भ्राता या पिता या जिस भी अन्य पुरुष का स्मरण करती है, उसी प्रकार के बालक को वह जन्म देती है।
६. महर्षि भेल ने ऋतुकाल में स्त्री तथा पुरुष की मानसिक स्थिति से गर्भ में पड़ने वाले परिणामों का वर्णन करते हुए लिखा है, कि यदि दोनों प्रसन्न हैं तो सात्विक, चिन्तित मन होने से राजसी तथा प्रदीन मन रहने से तामसी पुत्र की उत्पत्ति होती है।
रज स्त्राव के समय संभोग का परिणाम
( Effect of coitus performed during mensuration)
आचार्य सुश्रुत अनुसार =
- ऋतु स्त्राव के प्रथम दिवस में ऋतुमती के साथ संभोग पुरुषों की आयु का नाशक होता है, यदि उस दिन गर्भाधान हो भी गया तो बालक प्रसव के बाद तुरंत ही मर जाता है। (द्वितीय दिवस भी ऐसा ही होता है)
- तीसरे दिन गर्भाधान होने पर बालक असम्पूर्णांगों वाला एवं अल्पायु होता है।
- चतुर्थ दिवस का (गर्भित बालक) सम्पूर्ण अंग वाला, दीर्घायु होता है।
- रक्तस्राव की स्थिति में बीज (शुक्र) उपर की ओर प्रवेश नहीं कर सकता ।
अत: नियमों को पालन करने वाली स्त्री तीन रात्रि तक संभोग ना करे, उसके पश्चात् सम्पूर्ण मास सेवन संभोग करे।
अष्टांगसंग्रहकार के मतानुसार =
ऋतु के प्रथम तीन दिन में गर्भधारण होने पर गर्भ या तो कुक्षि में ही मर का अथवा अल्पायु, हीन-बल, अल्पारोग्य (रोगों का कम होना) वाला एवं विकलेन्द्रिय होता है।
महर्षि काश्यप मतानुसार =
- रजस्वला में स्राव के प्रथम दिन ही यदि गर्भ स्थित हो जाय तो वह वातगर्भ होता है अर्थात् उससे सन्तानोत्पत्ति नहीं होती।
- दूसरे दिन गर्भाधान होने पर गर्भ स्त्राव हो जाता है।
- तीसरे दिन गर्भाधान होने पर हीनांग एवं अल्पायु बालक की उत्पत्ति होती है।
ऋतु काल
१. ऋतु काल की अवधि (Duration)
आचार्य सुश्रुत अनुसार, आर्तव-दर्शन के बाद ऋतुकाल १२ दिन का होता है।
महर्षि वाग्भट ने भी महर्षि सुश्रुत-सदृश ही लिखा है ।
आचार्य भावमित्र – इन्होंने १२ एवं १६ दिन की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि आर्तवस्राव के दिन से ऋतुकाल १६ दिन का एवं गर्भ के ग्रहण योग्य काल होता है ।
२. ऋतुकाल में ही गर्भाधान होने का कारण
आचार्य सुश्रुत अनुसार, जिस प्रकार दिवस का अंत होते ही कमल-पुष्प संकुचित हो जाता है, उसी प्रकार ऋतु काल बीत जने पर योनि संकुचित हो जाती है।
महर्षि वारभट –
सुश्रुत सदृश ही वर्णन करते हुए लिखते है कि दिवसान्त में जिस प्रकार कमल सकुंचित हो जाता है। ऋतु काल बीत जाने पर योनि भी उसी प्रकार (संकुचित हो) शुक्र का अन्त:भाग (गर्भ आश्य) में ग्रहण नहीं कर पाती ।
ऋतुमती स्त्री के लक्षण
चरक अनुसार= पुराने रज के बीत जाने पर और नए ऋतुचक्र के प्रारम्भ हो जाने पर शुद्ध स्नान की हुई, व्याधि-विरहित योनि एवं गर्भाशय तथा शुद्ध शोणित (स्त्री बीज) वाली स्त्री को ऋतुमती कहा जाता है।
आचार्य सुश्रुत अनुसार= सुश्रुत ने ऋतुमती स्त्री की मानसिक व्यथा का वर्णन किया है
जिस स्त्री का मुख स्वस्थ एवं खुश हो, शरीर, मुख एवं दंत क्लेद युक्त हों, जो पुरुष (संभोग) तथा प्रेम कथाओं की आकांक्षिणी हो, जिसको कुक्षि, आखें तथा बाल शिथिल हों, भुजा, स्तन, श्रोणि, जंघा एवं नितम्ब प्रदेश में स्फुरण हो रहा हो तथा जिसमें अत्यंत हर्ष एवं उत्सुकता हो, उसे ऋतुमती जानना चाहिए।
महर्षि वाग्भट= वागभट्ट ने भी लिखा है कि कृश परन्तु प्रसन्न मुख, श्रोणि शिथिलता युक्त, पुरुषाकांक्षी (पुरुष की इच्छा रखने वाली स्त्री)स्त्री को ऋतुमती जानना चाहिए।
३. ऋतुमती को क्षार कर्म एवं नस्य निषेध
महर्षि कश्यप ने ऋतुमती को क्षार एवम् वमन कर्म का निषेध किया है। वैसे तो नस्य निषेध है, परन्तु शुद्ध परिणाम में नस्य देने से योनि के शोषण का वर्णन है।
नस्य से उत्पन्न हुए उपद्रवों के लिए जीवनीय द्रव्यों से सिद्ध दुग्ध के प्रयोग का निर्देश है।
ऋतु चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में दोष-प्राधान्य
रज:काल– रज स्राव कराना वायु का कार्य है, क्योंकि यही रक्त को योनि में लाती है। अत: इस काल में वायु प्रधान रहता है।
ऋतुकाल – नवीन रज या शोणित के आधान से यह काल प्रारम्भ होता है एवं गर्भाधान का योग्यतम काल बनता है।
इस काल में जीर्ण गर्भ आशय अन्त: कला का पुनर्निर्माण होता है, वह मोटी एवं घनी हो जाती है।शरीर में कहीं भी घन्नता लाने के लिए पृथ्वी भूत को आवश्यकता होती है, इस घनता के साथ जल भी विद्यमान रहता है। अत: निश्चत है कि इस काल में कफ का प्रधान्य रहेगा।
3 replies on “Rajasvalya Charya ( रज: स्वला चर्या ) Menstrual Hygiene”
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