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Raktmokshan / Medicinal Leech Therapy in Ayurveda

Raktmokshan

Raktmokshan / Leech Therapy = सुख से जीवन यापन करने वालों (सुकुमारों) का रक्तस्रावण करने के लिए जोकों का प्रयोग करना चाहिए।

त्याज्य जोकों का वर्णन :

  • जो जोंकें दूषित जल में।
  • अथवा मछली, मेंढक, साँप आदि प्राणियों के शवों की सड़न से अथवा उनके मल-मूत्रमिश्रित कीचड़ में से पैदा होती हैं।
  • जो लाल, सफेद, अधिक काली, चंचल, मोटी अर्थात् आकार में बड़ी तथा चिपचिपी होती हैं,
  • जिनकी पीठ पर इन्द्रधनुष के आकार की विचित्र ऊपर की ओर रेखाएँ होती हैं एवं जिनके शरीर के ऊपर रोएँ होते हैं, वे जो जहरीली होती हैं उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

त्याज्य जोकों का निषेध :-

उक्त प्रकार की जोंकों का यदि रक्तस्रावण में उपयोग किया जाता है, तो

  • खुजली
  • पाक (पकना)
  • ज्वर
  • चक्करों का आना, आदि उपद्रव हो जाते हैं।

■ इस स्थिति में विषनाशक, पित्तशामक तथा रक्तशोधक चिकित्सा करनी चाहिए।

ग्राह्य जोकों का वर्णन :-

  • जो जोकें साफ जल में पैदा होती हैं, वे निर्विष होती हैं।
  • उनका वर्ण सिवार के सदृश सांवला तथा शरीर लम्बा एवं गोल होता है।
  • उसके ऊपर नीली रेखाएं ऊपर की ओर को होती हैं।
  • उनकी पीठ का रंग बरगद वृक्ष की छाल का जैसा होता है।
  • ये पतले आकार की होती हैं और इनके पेट का वर्ण कुछ पीताभ होता है।

त्याज्य जोकों के लक्षण :-

  • उपयोग में लाने योग्य जोकें का भी यदि रक्तपान कराने के बाद, भलीभाँति वमन न कराया गया हो, अथवा
  • रक्तचूषण के लिए उन्हें बार-बार लगाने के बाद जब पानी में डाला जाता है और वे दुःखी जैसी प्रतीत होती हैं। तो वे रक्तपान करने से मदमत्त हो गयी हैं, ऐसा समझकर उन्हें छोड़ दें।

जोंक रखने एवं लगाने की विधि :-

  • तदनन्तर जो जोंक निर्विष हों, उन्हें हल्दी के कल्क से मिले हुए जल से अथवा अवन्तिसोम (कांजी) से या मठा से नहलाकर उन्हें पानी में छोड़ दें, जिससे वे आश्वस्त हो जायें।
  • यदि वे मनुष्य के शरीर को नहीं पकड़ रही हों तो उस स्थान पर घी, मिट्टी, स्त्री का दूध या रक्त लगा दे अथवा शस्त्र द्वारा पच्छ लगा दें, तब वह पकड़ लेगी।
  • जब वह अपने कन्धे को ऊपर की ओर उठा ले तो समझ लें कि वह रक्त पान कर रही है
  • इस स्थिति में उसे कोमल वस्त्र से ढक देना चाहिए।

दुष्ट रक्तग्रहण-दृष्टान्त :-

मिले हुए दूषित तथा शुद्ध रक्त में से पहले जोंक दूषित रक्त को चूसती है। जैसे – मिले हुए दूध तथा जल में से हंस पक्षी पहले दूध को पीता है।

★ जोंक लगाने पर जो वह रक्त का आचूषण करती है, उससे गुल्म, अर्श, विद्रधि (बड़े फोड़े), कुष्ठ, वातरक्त, गल सम्बन्धी निरोग शान्त हो जाते हैं।

●कभी-कभी जोंक के काट लेने पर बहुत रक्तस्राव होने लगता है।

इसका कारण है = जोंक के सिर में कई छोटी-छोटी गाँठे होती हैं, जिनका रस उसके दंशस्थान में पहुँच जाता है। इस रस में हीरुडीन (Hirudin) नामक द्रव्य होता है।

जब इसका रक्त में मिश्रण हो जाता है तो रक्त जल्दी जमता नहीं, अतः वह बहुत रहता है।

जोंक छुड़ाने की स्थिति :-

◆जहाँ जोंक लगी हो अर्थात् रक्त चूस रही हो, वहाँ यदि सुई चुभाने की-सी पीड़ा हो अथवा खुजली हो रही हो तो उसे छुड़ा दें।

जोंक का उपचार :-

तोद एवं कण्डू लक्षणों से यह समझना चाहिए कि वह शुद्ध रक्त पी रही है।

अतः उसे हटा दें, यदि वह न छोड़े तो दंशस्थान पर नमक का चूर्ण बुरक दें और उसके मुख पर तेल लगा दें, इससे वह छोड़ देती है।

★ उसके बाद उसके शरीर पर चावल का चूर्ण डाल कर उसे भलीभाँति वमन कराना चाहिए।

“रक्षन् रक्तमदाद्भूयः सप्ताहं ता न पातयेत्।”

रक्तमद से रक्षा :-

समुचित वमन न कराने पर जोंकों को ‘रक्तमद‘ नामक विकार हो जाता है, इससे जोकों की रक्षा करनी चाहिए। इस प्रकार एक बार लगाने के बाद फिर उस जोंक को एक सप्ताह तक नहीं लगाना चाहिए।

रक्तवमन का सम्यक् योग :-

वमन का सम्यक् योग हो जाने पर जोकों में पहले की भौँति कुशलता तथा दृढ़ता (सबलता) प्राप्त हो जाती है।

रक्त वमन का अतियोग :-

वमन का अतियोग हो जाने पर जोंकों में क्लम (सुस्ती या हर्षक्षय) हो जाता है अथवा वे मर जाती हैं।

जलौका पालन विधि :-

  • जोंकों को उनके स्थानों से लाकर शुद्ध जल में या तालाब के जल में मिट्टी मिलाकर अलग-अलग मिट्टी के घड़ों में रख दें।
  • इनके खाने के लिए सिवार, जलचर प्राणियों के सूखे मांस और कन्दों के चूर्ण दें, सोने के लिए कमलपत्र आदि उसमें डाल दें।
  • तीसरे-तीसरे दिन इस पानी को बदल दें और भोजन-पदार्थ उस जल में डाल दें।
  • सब को अलग रखने का प्रयोजन – इससे जोंकों के परस्पर लालस्त्राव की सड़न नहीं हो पायेगी, क्योंकि लालास्त्राव के संयोग से ये विषैली हो जाती हैं।

जलौकावचारण-पश्चात्कर्म :-

जोंक को हटा लेने पर भी दंशस्थान से यदि रक्तस्राव हो रहा हो तो रक्त के शुद्ध-अशुद्ध का विचार कर लें। यदि वह दूषित रक्त हो तो उसे बहने दें और उसे बहने देने में हल्दी, गुड़ तथा मधु लगाकर सहायता करें, जिससे वह दूषित रक्त पूर्ण रूप से निकल जाय।

रक्तावरोधक उपचार :-

यदि शुद्ध रक्त दंशस्थान से बह रहा हो तो शतधौत घृत के पिचुओं को उन दंशस्थानों में रखें और शीतवीर्यरोपण पदार्थों से निर्मित लेपों को उन स्थानों पर लगायें। {इनके प्रयोगों से रक्तस्राव रुक जाता है।}

रक्तस्रावण का फल :-

दूषित रक्त के निकल जाने से (Raktmokshan) रोगी की पीड़ाओं तथा उस स्थान पर दिखलायी पड़ने वाली लालिमा का तत्काल शमन हो जाता है।

पुनः रक्तस्रावण :-

यदि अशुद्ध (दूषित ) रक्त रुग्णस्थान से विचलित होकर जोंक द्वारा किये गये घाव पर आकर रुक गया हो तो वहाँ आया हुआ वह रक्त बासी होकर खट्टा हो जाता है, अतः उसे पुनः तीसरे दिन जोंक लगाकर निकलवा देना चाहिए।

अलाबूयन्त्रप्रयोग-निषिद्ध :

पित्तदोष द्वारा दूषित हुए रक्त का स्रावण करने के लिए यन्त्र का प्रयोग न करें, क्योंकि उसके प्रयोग में अग्निसंयोग किया जाता है।

अलाबूयन्त्र-प्रयोग विहित –

यदि कफ एवं वात दोष से दूषित रक्तधातु को निकालना हो तो उसमें अलाबूयन्त्र का प्रयोग करें।

श्रृंगयंत्रप्रयोग-निषेध :

कफदोष से दूषित रक्तधातु जम जाता है, अतएव इसका निर्हरण भी शृंगयन्त्र नहीं करना चाहिए। क्योंकि इसमें अग्निसंयोग का अभाव रहता है, अत: कफ पिघल नहीं सकता।

शृंगयन्त्रप्रयोग-निर्देश :-

वातदोष तथा पित्तदोष से दूषित रक्त का निर्हरण शृंगयन्त्र द्वारा करना चाहिए।

प्रच्छानकर्म-निर्देश :-

प्रच्छान कर्म अर्थात् पच्छ लगाने की विधि–

  • यदि शाखाओं (हाथ-पैरों) पच्छ लगाकर रक्त निकालना हो तो उस स्थान से ५-७ अंगुल ऊपर के अवयव को रस्सी या पट्टी से कसकर बाँधकर तब पच्छ लगाना चाहिए।
  • ध्यान रहे, यह प्रच्छानकर्म स्नायु, सन्धि तथा अस्थि मर्मों के स्थानों को छोड़कर ही लगाना चाहिए।
  • पच्छ लगाते समय नीचे भाग से ऊपर की ओर को पद करने चाहिए।
  • वे (पद) न बहुत गहरे हों, न पास-पास में हो, न तिरछे हों और न पद के ऊपर दूसरा पद (शस्त्र द्वारा घाव) बनाना चाहिए।
  • एक स्थान स्थित रक्त को पच्छ लगाकर, ग्रन्थि तथा अर्बुद आदि के गठीले रक्त को जोंक लगाकर, जहाँ का रक्त सुन्न पड़ गया हो, उसे शृंगयन्त्र द्वारा और सम्पूर्ण शरीर में फैले हुए दूषित रक्त को सिरावेध द्वारा निकालना चाहिए ।।
प्रच्छान आदि का विकल्प :-

पिण्डित (गाढ़े ) रक्त में प्रच्छान क्रिया अर्थात् पच्छ लगाना चाहिए।

जलौका-प्रयोग :

अवगाढ अर्थात् गम्भीर रक्त में जोंक को लगाकर रक्त-निर्हरण करना चाहिए।

तुम्बी एवं श्रृंगी यन्त्र :-

त्वचा गत रक्त को निकालने में पच्छ लगाकर तुम्बीयन्त्र और श्रृंगीयन्त्र का प्रयोग करना चाहिए।

सिरावेध-प्रयोग= सम्पूर्ण शरीर में दूषित रक्त के फैल जाने पर सिरामोक्षण अर्थात् सिरावेध का प्रयोग करना चाहिए।

रक्तस्राव विधि-विकल्प :-

वातदूषित रक्त का श्रृंगीयन्त्र द्वारा, पित्तदूषित रक्त का जोंक द्वारा तथा कफदूषित रक्त का अलाबु (तुम्बी ) यन्त्र द्वारा रक्तस्रावण करना (Raktmokshan) चाहिए।

रक्तस्रावण में उपद्रव एवं शान्ति :-

रक्तस्रावण कर्म करने के बाद भी जब रक्त निकलता रहता है तो उसे रोकने के लिए शीतल लेप आदि का प्रयोग करने से कभी वात प्रकुपित हो जाता है, तब उस स्थान पर तोद, कण्ड, सूजन आदि उपद्रव हो जाते हैं।

उनकी शान्ति के लिए उस स्थान पर गुनगुने घी का सेवन करना चाहिए।

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