Categories
Astang Hridya Charak Samhita Panchkarma Sushrut Samhita Syllabus

Sansarjan and Tarpanaadi Kram | संसर्जन व तर्पणादि क्रम

वमन तथा विरेचन के पश्चात् संसर्जन क्रम अथवा तर्पणादि क्रम / Sansarjan and Tarpanaadi Kram (कोष्ठ व दोष का विचार कर) का पालन करना चाहिए।

संशोधनास्त्रविस्त्रावस्नेहयोजनलङ्घनैः।। यात्यग्निर्मन्दतां तस्मात् क्रमं पेयादिमाचरेत् । (अ. हृ. सू. १८/४५)

संशोधन, रक्तमोक्षण, स्नेहपान और लंघन इन कार्यों से अग्नि मंद हो जाती है, इसलिए पेया-विलेपी आदि के क्रम (Sansarjan and Tarpanaadi Kram) का पालन करना चाहिए।

संसर्जन व तर्पणादि क्रम का महत्त्व-

यथाणुरग्निस्तृणगोमयाद्यैः सन्धुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण । महान् स्थिरः सर्वपचस्तथैव शुद्धस्य पेयादिभिरन्तराग्निः ।। (अ. हृ. सू. १८/३० व च. सू. १/१२)

जिस प्रकार थोड़ी सी अग्नि का तिनका गोबर आदि से उद्दीप्त बनकर धीरे-धीरे महान, स्थिर तथा सबको भस्म करने वाली हो जाती है, उसी प्रकार वमनादि से शुद्ध मनुष्य की अन्तराग्नि पेया, विलेपी आदि क्रम से महान, स्थिर और सब कुछ पचाने वाली हो जाती है।

संसर्जन क्रम:-

पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूषं रसं त्रिद्विरथैकश्च। क्रमेण सेवेत विशुद्ध कायः प्रधान मध्यावर शुद्धिशुद्धः।। (च. सि. १/१२)

पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूषं रस श्रीनुभयं तथैकम्। क्रमेण सेवेत नरोऽन्नकालान् प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः।। (अ. हृ. सू. १८/२९)

प्रधान, मध्य और अवर (हीन) शुद्धियों से शुद्ध हुआ मनुष्य पेया, विलेपी, अकृतयूष एवं कृतयूष (तड़का लगाया हुआ), अकृतमांसरस एवं कृतमांसरस – इनको तीन भोजन-समयों में, दो भोजन-समयों में और एक भोजन-समय में क्रमश: भरते ।

शुद्धि अनुसार पेयादि संसर्जन क्रम

दिनसमयप्रधान शुद्धिमध्यम शूद्धिअवर शुद्धि
पहलासुबह
शाम
अभक्त
पेया
अभक्त
पेया
अभक्त
पेया
दूसरासुबह
शाम
पेया
पेया
पेया
विलेपी
विलेपी
यूष(कृताकृत)
तीसरासुबह
शाम
विलेपी
विलेपी
विलेपी
अकृत यूष
मांसरस
(कृताकृत)
सामान्य आहार
चौथासुबह
शाम
विलेपी
अकृत यूष
कृत यूष
अकृत मांस रस
पांचवांसुबह
शाम
कृत यूष
कृत यूष
कृत मांसरस
सामान्य आहार
छठासुबह
शाम
अकृत मांस रस
कृृत मांस रस
सातवांसुबह
शाम
कृत मांसरस
सामान्य आहार
Table for Sansarjan Kram

संतर्पण क्रम:-

कफपित्तेऽविशुद्धेऽल्पं मद्यपे वातपैत्तिके। तर्पणादि क्रमं कुर्यात् पेयाऽभिष्यदयेंद्धितान्॥ (च. सि. 6/25)

स्त्रताल्पपित्तश्लेष्माणं मद्यपं वातपैत्तिकम्। येषां न पाययेत्तेषां तर्पणादिक्रमो हितः । (अ. हृ. सू. १८/ ४६)

आचार्य चरक द्वारा निर्देश दिया गया है कि जिस रोगी के –

  • पित्त और कफ का निर्हरण कम हुआ हो,
  • मेदस्वी स्त्री हो, अथवा
  • वात-पित्त विकार या प्रकृति वाला हो। इन तीनों में पेयादि का पालन न कर तर्पण आदि दें। (लाजसत्तू का मन्थ, फलों के रस, मांसरस आदि दें)

आचार्य चरक का अनुसरण ही आचार्य वाग्भट द्वारा किया गया है।

आचार्य सुश्रुत ने सम्यक्वान्त, कृत धूूूूमपान पुनः उष्ण जल से स्नान किये हुए शुद्ध शरीर वाले पुरुष को सांयकाल कुल्थी, मूंग, अरहर के यूष तथा जांगल जीवों के मांसरस के साथ भोजन बतलाया है।

तर्पण योग-

फाणित, दही, जल, काञ्जी — उदावर्त एवं मूत्रकृच्छ में हितकारी है।

जौ के सत्तू में समभाग चीनी मिला मधु और मदिरा में घोलकर पीने से वात-मल मूत्र एवं कफ पित्त का अनुलोमन होता है।

Leave a Reply