वात, त्रिदोषों में से एक दोष है व ‘आरि’ का अर्थ होता है- शत्रु, जब इन दोनों शब्दों को मिला देते है। तो अर्थ बनता है — “वात का शत्रु”। इस योग में प्रधान रूप से गुग्गुलु होने की वज़ह से वातारि गुग्गुलु (Vatari Guggulu) नाम बना।
वातारितैलसंयुक्तं गन्धकं पुरसंयुतम्। फलत्रययुतं कृत्वा पिट्टयित्वा चिरं रुजि ॥१४९॥ भक्षयेत्प्रत्यहं प्रातरुष्णतोयानुपानतः दिने दिने प्रयोक्तव्यं मासमेकं निरन्तरम् ॥ १५०॥ सामवातं कटीशूलं गृधसीं खञ्जपङ्कुताम्। वातरक्तं सशोथञ्च सदाहं क्रोष्टुशीर्षकम् ॥ शमयेव्दहुशो दृष्टमपि वैद्यविर्वर्जितम् ॥१५१॥ ( भ. रत्नावली )
Ingredients of Vatari Guggulu
- एरण्ड तैल (Ricinus communis)
- शुद्ध गन्धक ( Pure Sulphur )
- शुद्ध गुग्गुलु (commiphora wightti)
- हरीतकी चूर्ण (Terminalia chebula)
- बहेड़ा चूर्ण (Terminalia bellirica)
- आमला चूर्ण (Emblica officinalis)
सभी द्रव्यों को सम भाग में ही प्रयोग करें।
Process of making Vatari Guggulu :-
- इमामदस्ते में गुग्गुलु को कूटकर चूर्ण होने पर उसमें उपयुक्त दिए अन्य सभी द्रव्य मिलाकर पुन: कूटे।
- सभी द्रव्य आपस में अच्छी तरह से मिल जाने पर 1-1 ग्राम की वटी बनाकर, छाया में सुखा लें और कांचपात्र में संग्रह करे।
Dosage and Anupana of Vatari Guggulu :-
- 1-2 ग्राम की मात्रा में प्रात:काल गरम पानी से 1 महीने तक सेवन करें।
Therapeutic Uses :
- आमवात (Rheumatoid arthritis)
- कटि शूल (Lower back pain)
- गृध्रसी (Sciatica)
- खञ्ज (Monoplegia)
- पङ्गु (Paraplegia)
- वातरक्त (Gout)
- शोथ (Oedema/ Swelling)
- व अन्य वात रोग।
** यह उन रोगियों के लिए भी उपर्युक्त है जिन्हे वैद्यों ने असाध्य कह कर त्याग दिया हो अर्थात् :- असाध्य वात रोग को भी यह योग जीत लेता है।