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Charak Samhita Panchkarma Syllabus

साग्नि स्वेदन के 13 प्रकार (आचार्य चरकानुसार)

संकर: प्रस्तरो नाडी परिषेकोऽवगाहनम्। जेन्ताकोऽश्मधन: कूर्ष: कुटी भू: कुम्भिकैव च।। कूपो होलाक इत्येते स्वेदयन्ति त्रयोदश:।। (च. सू. 14/39-40)

  1. संकर
  2. प्रस्तर
  3. नाडी
  4. परिषेक
  5. अवगाहन
  6. जेंताक
  7. अश्मघन
  8. कूर्ष
  9. कुटी
  10. भू
  11. कुंभी
  12. कूप
  13. होलाक

1. संकर स्वेद (Mixed fomentation)

परिचय– स्वेदन द्रव्यों (तिल, उडद, कुलथी, मांस आदि) को कूट पीसकर पोट्टली बनाकर, सुखोष्ण करके जो स्वेदन किया जाता है उसे संकर स्वेद कहते हैं।

संकर अर्थात् मिश्रण (दो या अधिक द्रव्यों के सम्मिश्रण से बना)। अर्थात् इसमें द्रव्यों को स्वेद भी कहा जाता है। पिण्ड बनाने के कारण इसे पिण्ड स्वेद कहा जाता है। इससे शरीर में साक्षात् (सीधे) ताप पहुँचाया जाने के कारण इसे ताप स्वेद भी कहा जाता है।

संकर स्वेद

◾भेद –

  1. स्निग्ध संकर स्वेद– तिल, उड़द, चावल आदि को पायस (खीर), मांस, मांसरस तथा अम्लवर्ग के रकन साथ पकाकर पोटली बनाते हैं फिर उस पोटली को ऊष्ण पायस, दूध या मांसरस में डुबोकर स्वेदन किया जाता है। इस प्रकार के स्वेदन का प्रयोग वात व्याधि या वात प्रधान रोगों में किया जाता है।
  2. रूक्ष संकर स्वेद – गाय, बकरी, घोड़ा, गधा आदि के सुखे पुरीष, लोहे के पिण्ड, धूल, बालू आदि की पोटली से गरम-गरम स्वेदन करना रूक्ष संकर स्वेद कहलाता है।

बालुका स्वेद – यह एक प्रकार का रूक्ष संकर स्वेद है। इसका प्रयोग आमदोष, ऊसस्तम्भ, मेदोरोग, कफज विकार और सशोथ शूल में होता है।

विधि – स्वच्छ नदी की बालु लेते हैं जिसमें कंकड पत्थर नहीं हो तथा जो बात तो अति सूक्ष्म हो । उस बालुका को लेकर लोहे या मिट्टी की कडाई में गरम कर लेते हैं उस बालु को लेकर पोटली बना लेते हैं। उस सुखोष्ण पोटली को अंगों पर स्वेदन किया जाता है।

बालुका की तरह ही लवण (काला नमक) द्वारा स्वेदन करते है जिसे लवण पोटली स्वेद कहते है।

संधियों पर वर्तुलाकार और लंबे अंगों पर दीर्घाकार स्वेदन किया जाता है। 5-10 मिनट के अंतर पा पोटली होने पर पोटली बदल कर गरम कर लिया जाता है। प्रतिदिन 20-40 मिनट तक स्वेदन।

2. प्रस्तर स्वेद (Hot bed sudation)

पुरुष के सोने योग्य एक पत्थर की चौकी जो लगभग 6 फट लम्बी, 22 फुट चौडी तथा 2 फुट ऊंची हो।

फिर उस चौकी पर शुकधान्य (चावल, गेहूँ, यव आदि) शमीधान्य (उड़द, मूग, चना, कुलथा आदि) क्षुद्रधान्य (हंगुनी, चीना, सांबा, कोदो) इनकी खिचड़ी अथवा वेशवार (निरस्थि मांस) खीर या तिल, माष और चावल की खिचडी अथवा इन द्रव्यों को पकाकर गरम गरम मोटी परत के रूप में पत्थर की चौकी पर फैला देते हैं।

फिर उसके ऊपर ऊन या रेशम की चादर या रक्त एरंड के पत्ते या अर्क के पते बिछाकर उस पर वातनाशक तैल से अभ्यंग किए हुए रोगी को सुला देते हैं, फिर उस रोगी के ऊपर ऊन या रेशम की चादर या वात नाशक पत्ते जैसे एरण्ड या अक से ढक दिया जाता है। इस प्रकार इस विधि से सम्पूर्ण शरीर का एक साथ स्वेदन हो जाता है।

उपयोग – पृष्ठशूल, पार्श्वशूल, श्रोणि शूल, कटिशूल, गृध्रसी, खल्ली रोग में यह प्रस्तर स्वेद लाभकारी होता है।

3. नाडी स्वेद (Steam kettle sudation)

क्वाथ द्रव्य – (1) सहिजन, (2) एरण्ड, (3) मदार, (4) श्वेत पुनर्नवा (5) रक्त पुनर्नवा (6) यव, (7) तिल, (8) कुलथी, (9) उडद, (10) बेर इन द्रव्यों के मूल, पत्र, शुङ्ग आदि द्रव्य पदार्थों को क्वाथ बनाने में प्रयोग किया जाता है।

सामान्यतः नाडी स्वेदन हेतु दशमूल क्वाथ प्रयोग में लेते हैं। प्रधान वस्तु – घट तथा नली (नाडी)। वर्तमान में कूकर या आटो क्लेब का प्रयोग करते हैं।

नाडी स्वेद

विधि – उक्त क्वाथ द्रव्यों को लेकर उचित अनुपात में घट में क्वाथ बना लिया जाता है। परन्तु सौधे मा द्रव्य में डालने पर यदि कूकर या आटोक्लेव का प्रयोग करते हैैं तो उनके छिद्र बंद होकर उनके फटने की सम्भावना होती है, अत: क्वाथ द्रव्य को एक पोटली में बांधकर कूकर आदि में डालना चाहिए।

जब क्वाथ से बाष्प निकलने लगे तब नली से पिड़ित अंग पर रुग्ण व्यक्ति का स्वेदन किया जाता है।

समयावधि – प्रतिदिन 10 से 15 मिनट अथवा सम्यक् स्वेदन होने तक और कम से कम 7, 14 या 21 दिन तक रोग की अवस्थानुसार करना चाहिए।

प्रयोग – गृध्रसी, पृष्ठशूल, कटिशूल, पक्षाघात, अंगद, संकोच, मांसगत वातविकार में लाभकारी।

4. परिषेक स्वेद (Afflusion Sudation)

वातघ्न या वातकफघ्न औषधि के क्वाथ से शरीर पर धारा गिराना परिषेक कहलाता है।

विधि – रोगानुसार औषध सिद्ध तैल से रोगी के शरीर का अभ्यंग कराकर रोगी की हल्की चादर से ढक दिया जाता है, फिर नाडी स्वेद में प्रयुक्त द्रव्यों के मूल, पत्र आदि का क्वाथ बना लेते हैं। उस क्वाथ को छोटे कुंभ, सुराही, या फूल सींचने वाले पात्र में भरकर फव्वारे के समान शरीर पर गिराकर यह स्वेदन किया जाता है।

इसमें क्वाथ के स्थान पर तैल, घृत, दग्ध आदि की सखोष्ण धारा से भी यह स्वेदन किया जा सकता है। इसमें द्रव को 12 अगुल की ऊंचाई से शरीर पर गिराया जाता है।

समय अवधि – 1/2 से 1 घण्टे तक

उपयोग – गुल्म, आनाह, तूनी, प्रतितूनी, शूल, उदावर्त, अष्ठीला, आध्यान में एकांग स्वेद किया जाता।

5. अवगाहन स्वेद (Tub-bath Sudation)

अवगाह में शरीर का आधा भाग (कटि प्रदेशा) जल, क्वाथ या स्नेह में डूबा होता है।

आवश्यक सामग्री– दशमूल क्वाथ, निर्गुण्डी क्वाथ, बलादि क्वाथ आदि एरण्ड मूल सिद्ध जल, वातहर द्रव्य सिद्ध तैल, घृत, मांसरस या ऊष्ण जल।

विधि – क्वाथ द्रव्य या घृत, तेल या ऊष्ण जल को टब या द्रोणी में भरा जाता है फिर उस द्रोणी/टब में वातनाशक तैल से अभ्यंग किए हुए व्यक्ति को बिठाकर अंगों पर ऊष्ण जल या क्वाथ आदि से छिड़काव कर यह स्वेदन किया जाता है।

उपयोग – सर्वांगव्यापी वातरोगी, अर्श, मूत्रकृच्छ, अश्मरी शूल, कटिशूल, पृष्ठशूल, गृध्रसी, संधिवात आदि में।

अवधि – एक मुहूर्त से चार मुहूर्त

6. जेन्ताक स्वेद (Sudatorium Sudation)

स्वेदन के लिए एक वर्तुलाकार (गोलाकार) कमरे के बीच चिमनी बनाकर उसे निर्धूम अग्नि प्रज्वलित कर कमरे को गर्म कर तब रोगी को प्रवेश कराया जाता है। उस कमरे को कूटागार तथा स्वेदन को जेन्ताक स्वेद कहते हैं।

उपकरण – कूटागार, अंगार कोष्ठक (भट्टी)

अंगारकोष्टक (भट्टी) – कूटागार के एकदम बीच में एक अंगार कोष्टक स्तम्भ (तन्दर या भट्ठी) बनाएं जिसका 4 -5 हाथ व्यास का तथा 3 हाथ ऊँचा हो। इसकी दिवार में वायु के प्रवेश हेतु बहुत मे छिद्र हो। इसमें खैर, पलाश आदि की सुखी लकड़ी डालकर जलाया जाता है। जब अग्नि निर्धूम हो जाए तथा कूटगार पूरा गरम हो जाए तब रोगी को उसमें प्रवेश कराया जाता है।

जब यह प्रतीत हो कि सम्यक स्वेदन हो गया है शरीर हल्का हो गया है, स्तब्धता, भारीपन, शून्यता, वेदना का नाश हो गया है तब चबूतरे के सहारे द्वार पर आकर बाहर निकल जाना चाहिए।

7. अश्मघन स्वेद (Stone bed Sudation)

सोने योग्य लम्बी (6 फुट तथा 3 फुट चौडी) दृढ समतल पत्थर की एक शिला लेते हैं। उस पर वातनाशक देवदारु, दशमूल आदि काष्ठ लेकर जलाते हैं, जब शिला गरम हो जाती है तब आग हटाकर उसे ऊष्मा जल से धो देते हैं। फिर शिला का पानी सुखाकर उस पर ऊनी या रेशमी चादर बिछा देते हैं।

फिर वातनाशक तेल अभ्यंग किए हुये रोगी को उस पर लिटा दिया जाता है तथा ऊपर से उसे ऊनी चादर या रेशमी चादर या कम्बल दिया जाता है। इस प्रकार सुख पूर्वक उसका स्वेदन हो जाता है।

8. कूर्ष स्वेद (Trench Sudation)

कुर्ष स्वेद

कर्ष ऐसे गड्ढे को कहते हैं जो भीतर से विस्तृत हो और मुख कम चौडा हो। इस गड्ढे में वातनाशक देवदारु आदि के अंगारे भर कर उस पर चारपाई बिछा दें। एरंड पत्र, धतूर पत्र चारपाई पर बिछाकर अभ्यंग किए व्यक्ति को लिटाकर चादर से ढक दें।

9. कुटी स्वेद (Cabin Sudation)

एक ऐसा छोटा कमरा जो न तो अधिक चौड़ा हो और न ही अधिक ऊँचा हो, गोलाकार हो तथा उसमें रोशनदान या कोई भी छिद्र न हो। उस कमरे की दिवारे मोटी हो और भीतर से कूठ आदि ऊष्ण औषधियों के कल्क से लेपन किया गया हो।

फिर इस प्रकार के कमरे में चारपाई बिछाकर उस पर ऊनी चादर या कम्बल बिछा देते हैं। उस चारपाई पर अभ्यंग किए हुए रोगी पुरुष को लिटा दें। और उसे ऊनी चादर या कम्बल से ढक दें। फिर धूम रहित जलते अंगारों से युक्त अंगीठियाँ उस चारपाई के चारों तरफ रखें। इस प्रकार जो सुखपूर्वक स्वेदन किया जाता है तो कुटी स्वेद है।

10. भू स्वेद (Ground bed Sudation)

भू अर्थात् भूमि पर स्वेद करना।

अश्मघन स्वेद विधि को भूमि पर करना भू-स्वेद कहा जाता है।

भू स्वेद

निवात, प्रशस्त और समतल भूमि पर देवदारु आदि वाताघ्न काष्ठ जलाकर उस पर पानी के छीटें डालकर बुछा दें तथा राख को हटाकर साफ कर देते हैं और उसे ऊनी चादर और उस पर ऊनी चादर बिछाकर वातनाशक तैल से अभ्यंग किए या कम्बल से ढक देते हैं। इस प्रकार का स्वेदन भू स्वेद कहलाता है।

11. कुम्भी स्वेद (Pitcher bed Sudation)

वातनाशक औषधों के क्वाथ से सम्पूर्ण भरी हुई एक मटकी को लेकर उसका आधा या तिहाई भाग जमीन में गाढ दें। फिर उसके ऊपर एक चारपाई बिछा दें या और चारपाई के ऊपर ऊनी चादर या रेशमी चादर को बिछा दें। फिर अभ्यंग किए हुए रोगी पुरुष को उस चारपाई पर लिटा दें तथा उसे ऊपर से ऊनी चादर से ढक दे। फिर लोहे के गोले या पत्थर के टुकड़ों को आग में तपाकर उस हाण्डी/मटकी में डालते जाएँ। जिससे वाष्प उत्पन्न होती है इस वाष्प द्वारा स्वेदन होना कुम्भी स्वेद कहलाता है।

12. कूप स्वेद (Pit Sudation)

कूप का अर्थ होता है कुआं। यह एक प्रकार का रुक्ष स्वेद है।

निवात समतल और प्रशस्त स्थान में 6 फुट लम्बा 22 फुट चौडा 12 फुट गहरा कुआं खुदवाएं फिर इसकी भीतरी भाग की दिवारों की वातनाशक औषधियों का लेप करें।

फिर इस कुएं में हाथी, घोड़ा, गाय, खर, ऊँट के सुखे पुरीष को डालकर जला दें। जब कुआँ निर्धूम हो जाए तब चारपाई बिछाकर उसके ऊपर ऊनी चादर या कम्बल बिछाकर अभ्यंग किए हुए पुरुष को लिटा दें तथा उसे चादर से ढक दें। इस प्रकार सुखपूर्वक स्वेदन हो जाता है इसे कूप स्वेद कहते हैं।

13. होलाक स्वेद (Under bed Sudation)

चारपाई के नीचे रखने लायक (लगभग 5 फुट लम्बी 2 फुट चौडी) एक अंगीठी तैयार करें या 4 छोटी अंगीठी जो चारपाई के नीचे समानान्तर रखी जा सके। फिर उसमें हाथी, घोड़े आदि के सूखे हुए पुरीष को भरकर आग लगा दें। निर्धूम हो जाने पर वातनाशक तैल से अभ्यंग किए हुए रोगी को चारपाई पर लिटाकर ऊपर से चादर से ढक दें।

हाेलाक स्वेद

इस प्रकार के सुखपूर्वक स्वेदन को होलाक स्वेदन कहते हैं।

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