नस्य (Nasya) शब्द निष्पत्ति :-
- भावप्रकाश ने नासा मार्ग से औषध ग्रहण करने को नस्य (Nasya) कहा है।
- अरुण दत्त के द्वारा कहा गया है कि नासिका से नस्य दिया जाता है।
- ‘नस्य’ शब्द का अर्थ है – जो नासा (नाक) के लिए हितकारी है।
उर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषान्नस्यमिष्यते। नासा ही शिरसो द्वारं तेन तद्व्याप्य हन्ति तान्। (अ. हृ. सू. 20/2)
अष्टांग हृदय में कहा गया है कि ऊर्ध्व जत्रुगत विकारों में नस्य (Nasya) विशेष लाभकारी है। नासिका को सिर का द्वार कहा गया है तथा शिरोगत विकारों के शमन में नस्य का अत्यंत महत्व है।
औषधम् औषध सिद्धं स्नेहो वा नासिकाभ्यां दीयते इति नस्यम। (स.चि. 40/21)
औषधि या औषध सिद्ध स्नेह को नासिका द्वारा देना ही नस्य (Nasya) कहलाता है। यह औषध सूक्ष्म चूर्ण, द्रव अथवा धूम रूप में हो सकता है।
◾आचार्य चरक ने कहा है कि शिर स्थित विकृत कफ जब नस्य देने पर नासिका से स्त्रावित होता है तो शिरोगौरव, शिर:शूल, प्रतिश्याय व मूर्च्छा आदि में तुरंत लाभ देय है।
पर्याय :-
शिरोविरेचन, नस्य, नावन, मूर्ध विरेचन, शिरोविरेक।
महत्व :-
- ऊर्ध्व जत्रुगत विकारों के शमन के लिए नस्य श्रेष्ठ है। इससे नेत्र, कर्ण, नासा रोग, खालित्य, पालित्य, प्रतिश्याय, अर्दित, मन्यास्तम्भ, आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।
- कफ के निष्कासन के लिए नस्य (Nasya) देना अत्यंत उपयोगी है।
- नस्य के द्वारा प्राण वह स्त्रोतस का अवरोध दूर किया जा सकता है। इसके द्वारा अवरुद्ध कफ द्रवित होकर नासिका से बहिर्गमन करता है।
- यह कफज व अनेक वातव्याधियों में लाभदायक है। यह बृंहण, शमन या शोधन को करने में सक्षम है।
- नस्य कर्म से इन्द्रियों को बल प्राप्त होता है तथा मुख कान्तियुक्त होता है।
नस्य के योग्य व अयोग्य :-
योग्य :-
- उर्ध्व जत्रुगत विकार – शिरो रोग, दन्त रोग, दन्त शूल, हनुग्रह, तिमिर, वर्त्म रोग, स्वर भेद।
- ग्रीवा, कंधा, अंस, मुख, नासिका, कान, नेत्र व शिरः कपाल के रोग।
- कुछ वात व्याधियां – मन्यास्तम्भ, अर्द्धावभेदक, अर्दित, अपतंत्रक, अपतानक।
- शोथ – गलशुण्डिका, गलशालूक, उपजिह्विका।
- Others- अर्बुद, वाक् ग्रह, गदगद वाक्य, शिरः स्तम्भ।
अयोग्य :-
- Commonly included- गर्भिणी, श्रान्त, तृषित, क्षुधित, क्रुद्ध, शोकग्रस्त, दुर्बल, बाल, वृद्ध, मैथुन, व्यायाम या चिन्ता प्रसक्त।
- अवस्था – अजीर्ण, भुक्तभक्त (खाना खाकर), शिरस्नान, हिक्का प्रसक्त, श्वास प्रसक्त, पीतस्नेह, अतिस्निग्ध, अल्पाग्नि, मूर्च्छित, वमित, रक्तविस्त्रावित अतिदुर्बल।
- दुर्दिन व अकाल।
नस्य के भेद :-
- नावन नस्य – नासिका के छिद्रों में रुई के फाहे को स्नेह में डुबाकर या ड्रोपर द्वारा टपकाना नावन कहलाता है।
यह दो प्रकार का है – शमन व शोधन।
शोधन नस्य (Nasya) में पिप्पली, विडंग, सहिजन बीज, अपामार्ग बीज आदि से सिद्ध नस्य दिया जाता है।
2. अवपीड नस्य – किसी औषध कल्क को निचोड़कर उसका रस नासिका में डालना अवपीड नस्य कहलाता है। इसके दो भेद हैं – शोधन और स्तंभन।स्तम्भन अवपीड का प्रयोग रक्तपित्त व क्षीणों में किया जाता है। शोधन अवपीड का प्रयोग मूर्च्छा, सर्पदंश व कफ से व्याप्त शिर में किया जाता है।
3. ध्मापन नस्य – इसे प्रधमन नस्य (Nasya) भी कहते है। एक लम्बी खुली नली लेकर उसका दूसरा छोर नासिका के पास रखकर औषध चूर्ण नासिका में फूंक दिया जाता है। इसका प्रयोग उन्माद, अपस्मार व विष पीड़ित आदि में किया जाता है।
4. धूम नस्य – औषध सिद्ध धूम को नासिका द्वारा खींचना धूम नस्य कहलाता है। मुख द्वारा धूम को खींचना धूमपान कहलाता है।
यह तीन प्रकार का होता है – प्रायोगिक, स्नेहिक व वैरेचनिक। इनमें क्रमशः 36 अंगुल, 32 अंगुल तथा 24 अंगुल लम्बा नस्य नेत्र प्रयोग किया जाता है।
धुएं को नाक से खींचकर मुख से बाहर निकाला जाता है तथा मुख से खींचकर मुख से ही बाहर निकाला जाता है।
इसका प्रयोग नासा अवरोध, पीनस व कण्ठ रोगों में किया जाता है।
5. प्रतिमर्श नस्य – स्नेह में अंगुली डुबाकर बूंदों को नासिका में टपकाना व अंदर खींचना प्रतिमर्श नस्य कहलाता है।
यह सर्वकाल देय है तथा किसी भी वय में दिया जा सकता है। इसका प्रयोग प्रातः काल व सांयकाल किया जाता है
6. मर्श नस्य – तर्जनी अंगुली को दो पर्व तक स्नेह में डुबोकर जितनी बूंद स्नेह नासिका में गिरता है, उसे मर्श नस्य कहते हैं।
मर्श में व्यापद की सम्भावना रहती है जब कि प्रतिमर्श निरापद है।
नस्य प्रकार | उत्तम मात्रा | मध्यम मात्रा | हीन मात्रा |
शमन (प्रति नासा पुट में) | 32 बूंद | 16 बूंद | 8 बूंद |
शोधन (प्रति नासा पुट में) | 8 बूंद | 6 बूंद | 4 बूंद |
अवपीड | 8 बूंद | 6 बूंद | 4 बूंद |
मर्श | 10 बूंद | 8 बूंद | 6 बूंद |
प्रतिमर्श | 2 बूंद | 2 बूंद | 2 बूंद |
(1) बृंहण नस्य – इसके अन्तर्गत औषध सिद्ध स्नेह, स्नेहन/बृहण गुण युक्त द्रव्यों से नस्य कर्म किया जाता है। इसके द्वारा शिरस्थ नाडीमण्डल का बृंहण, तर्पण तथा शमन करता है। यह उर्ध्वजत्रुगत भाग का पोषण करता है। अर्थात समस्त शिरः प्रदेश में स्थित अवयवों को पुष्ट करता है। दूध, शर्करा का पानी, मांसरस आदि को बृंहण द्रव्यों से सिद्ध कर स्नेह के रूप में प्रयोग करते हैं। जिससे यह तर्पण, बृंहण आदि का कार्य करता है।
◾बृंहणार्थ नस्य योग– नारायण तैल, अणुतैल, माषादि तैल, नृपवल्लभ तैल, क्षीर बला, बला तैल आदि इनके नस्य (Nasya) का तथा इनके योग में उक्त द्रव्यों से सिद्ध घृत का नस्य बृहण कर्म करता है। अर्थात् शिरस्थ धातु का बृंहण करता है।
(2) शोधन नस्य – प्रधमन नस्य शोधन प्रकार का नस्य है। यह चूर्ण के रूप में प्रयुक्त होता है। प्रधमन नस्य अपने ऊष्ण, तीक्ष्ण, कट गुणों के कारण गन्धवह स्त्रोत की उत्तेजित कर कफ का स्त्राव कराता है जिससे शोधन हो से जत्रु के ऊर्ध्व भाग में होने वाले विकारों का शमन हो जाता है।
नासा ही शिर का द्वार है अतः इस द्वार से प्रविष्ट नस्य सम्पूर्ण शिर में व्याप्त होकर शिर के विकारों को नष्ट करता है तथा उत्तमांग की व्यवस्था को सुचारू बनाकर सम्पूर्ण दैहिक क्रियाओं को सुव्यवस्थित बनाता है।
◾नस्य कर्म काल – प्रावृट, शरद व वसन्त ऋतु।
सम्यग योग, अयोग और अतियोग लक्षण :-
◾ सम्यग योग –
लाघवः शिरसो योगे सुख स्वप्न प्रबोधन। विकारोपशमः शुद्धिरिंद्रियाणां मनः सुखम्॥ (सु. चि. 40/33)
नस्य का सम्यक योग होने पर लघुता उत्पन्न होती है तथा निद्रा सही प्रकार से आने पर अच्छे स्वपन दिखते है। विकारों का शमन होता है। इन्द्रियां शुद्ध होती है तथा प्रसन्नता रहती है।
◾ अयोग लक्षण –
अयोगे वातवैगुण्यमिद्रियाणां च रुक्षता। रोगाशांतिश्च तत्रेष्टं भूयो नस्यं प्रयोजयेत्।। (सु. चि. 40/35)
नस्य का अयोग होने पर वात इन्द्रियों में वैगुण्य उत्पन्न करता है। रोगों की शांति नहीं होती तथा शरीर रुक्ष रहता है।
◾अतियोग लक्षण –
कफः प्रसेकः शिरसो गुरुतेन्द्रिय विभ्रमः। लक्षणं मूर्ध्यंति स्निग्धे रुक्षं तत्रावचारयेत्।। (सु. चि. 40/34)
कफ की न वृद्धि होती है न ही हृास। शिर में गुरूता का अनुभव होता है तथा इन्द्रियां भ्रमित रहती हैं। मूर्धा (तालु) कभी स्निग्ध रहता है व कभी रूक्ष रहता है।
नस्य प्रयोग विधि :-
1. पूर्व कर्म –
- संभार संग्रहण – नस्य ( Nasya) हेतु अलग भवन या कम होना चाहिए, जिसमें पर्याप्त प्रकाश हो, खुली हवा का प्रवेश हो परन्तु जो शरीर में सीधे और बेगयुक्त न लगे। जो धूल, धुओं से सुरक्षित हो तथा जो कक्ष न तो अधिक शीत हो और न ही ऊष्ण हो।
- उपकरण– नस्य दान दीपक, धूमवर्ति यंत्र, ड्रापर या ध्मापन हेतु नली का नेत्र 6 अंगुल लम्बा। स्वच्छ व विसंक्रमित रुई, ष्ठीवन हेतु पात्र, अभ्यंग हेतु तैल, अंगीठी, तापस्येद हेतु साधन, ड्रापर, भगोनी, गिलास, तौलिया आदि की व्यवस्था होनी चाहिए।
- औषध व्यवस्था– नस्य औषध जो देनी हो जैसे चूर्ण, क्वाथ, दग्ध, तैलादि अभीष्ट हो उसे तैयार रखें।
- नस्य आसन– रोगी को बैठाने हेतु 1.5-2 फुट ऊँची कुर्सी हो जिसमें पीछे की ओर पीठ तक पट्टी हो और गर्दन के पास का भाग पीछे से झुका हो जिसके सहारे रोगी का मुखमण्डल उर्ध्वमुख कर नस्य का प्रयोग किया जा सके। इसे नस्य पीठ कहते हैं।
- रोगी परीक्षण (Examination of patient)- सर्वप्रथम यह विचार करें कि रोगी नस्य योग्य है या नहीं। 7 वर्ष से कम और 80 वर्ष से अधिक आयु बालों को नस्य नहीं देना चाहिए।
- तापक्रमादि मापन (Vital recording)– रोगी के तापक्रम, श्वसन गति, नाडी गति, रक्त चाप, बजन आदि ज्ञात कर नस्य प्रारूप पत्रक पर अंकित करते हैं।
- रोगी द्वारा सहमति घोषणा पत्र (Consent form):- अन्य कर्म की भांति रोगी को नस्य कर्म की सम्पूर्ण जानकारी, सम्भावित व्यापद बताकर रोगी से लिखित में सहमति लेते हैं।
- रोगी की नस्यार्थ तैयारी (Diet before Nasya karma)- रोगी को मल मूत्र के वेग से निवृत्त कराकर लघु भोजन करायें। घण्टे भर बाद नस्य आसन पर बैठाकर नस्य का प्रयोग करें।
2. प्रधान कर्म –
- नस्य कुर्सी पर बैठे हुए या नस्य शय्या पर सुख पूर्वक शयन करते है।
- आतुर का सर्वप्रथम शिर आदि का स्नेहन-स्वेदन किया जाता है। सामान्यतया नस्य प्रदान करने पर शिर को थोडा झुकाकर, ग्रीवा स्कंध आदि का अभ्यंग-स्वेदन कराते है।
- वस्त्र/रुई आदि द्वारा नेत्र को ढकते हैं।
- रोगी के सिर को पीछे की ओर थोड़ा झुकाकर चिकित्सक अपने बाएँ हाथ के अंगुष्ठ- तर्जनी से रोगी के नासाग्र को उठाकर ड्रापर में औषध-भरकर मन्दोष्ण स्नेहबिन्दु धीरे-धीरे नासारन्धों में डालते है।
- यदि चूर्ण का नस्य देना हो तो उसे नली में रखकर पीछे से फँके जिससे वह भीतरी नासारन्ध्र में चला जाए।
- धूम नस्य लेना हो तो नस्य द्रव्य सिगरेट या चिलम या हुक्का में भरकर नासिका से धूमपान लेना चाहिए और मुख से धुएँ को बाहर निकालना चाहिए।
- नस्य देने के बाद रोगी हिले डुले नहीं, हंसना, भाषण आदि को नहीं करना चाहिए।
- नस्य औषध को निगलना नहीं चाहिए उसे थूक देना चाहिए। नस्य कर्म में निकले हुए कफादि की मात्रा को अंकित करते हैं । तथा नस्य के सम्यक, हीन, अतियोग लक्षणों का निरीक्षण करते हैं।
3. पश्चात कर्म –
- तत्कालकरणीय कर्म– रोगी को नस्य देने के बाद 2 मिनट तक उत्तान लिटाया जाता है। पाद तल व मन्या का मृदु मर्दन करके रोगी के गले, कपोल और ललाट पर ताप स्वेदन करते है। तत्याम जल से मुख का प्रक्षालन करवाते हैं।
- धूमपान– कण्ठ, नासिका, व शिर:स्थ कफ के विलयनार्थ धूम्रपान करना चाहिए। प्रायोगिक धूमपान हेत एलादि गण के द्रव्यों में कूठ व तगर को छोड़कर शेष सभी द्रव्यों से धूमवर्ति बनाएँ
- कवल/गण्डूष– नस्य बाद शोधन प्रकार का कवल धारण कराना चाहिए। इस हेतु ऊष्ण, रुक्ष, कट, अम्ल तथा लवण रस युक्त द्रव्यों का प्रयोग करते हैं।कफ के छेदन हेतु सुखोष्ण जल में यवक्षार, अपामार्ग क्षार, सज्जीक्षार, टंकण (बालसुधा) डालकर घोल बनाकर कवल या गण्डूष धारण करवाया जाता है।
- आहार व्यवस्था– आहार में लघु आहार, यवागु, पेया, रोटी, मूंग की दाल, परवर आदि दी जाती है।
5 replies on “Nasya karma / नस्य कर्म : भेद, महत्व, प्रयोग विधि”
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