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Chikitsa | चिकित्सा : व्युत्पत्ति, परिभाषा, पर्याय, भेद

व्युत्पत्ति-

‘कित रोगापनयने’ धातु में सन् प्रत्यय और अ लगने से ‘चिकित्सा’ (Chikitsa) शब्द की निष्पत्ति होती है।
इसका अर्थ है रोगों को नष्ट करना।

निरूक्ति-

‘केतितुम् इच्छति इति चिकिसति’, ‘चिकित्सति इति चिकित्सा’ अर्थात् रोगों को नष्ट करना ही चिकित्सा है।

परिभाषा-

याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः। सा चिकित्सा विकाराणां कर्म तद् भिषजां स्मृतम्।। (च.सू. 16/34)

जिस क्रिया से शरीर की धातुओं को समावस्था में लाया जाता है तथा विकारों का शमन किया जाता है, वह चिकित्सा (Chikitsa) कहलाती है तथा यह कर्म करने वाला चिकित्सक कहा जाता है।

‘चतुर्णां भिषगादीनां शस्तानां धातु वैकृते । प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्था चिकित्सेत्यभिधीयते’ (च. सू. अ. ९)

भिषग् (वैद्य) आदि चतुष्पाद से प्रशस्त (परिपूर्ण) होकर विकृत हुए धातुओं को उनकी प्रवृत्ति अर्थात् साम्यावस्था में लाना ही चिकित्सा (Chikitsa) कहलाता है।

चिकित्सा के पर्याय-

भेषज, औषध, क्रिया, कर्म, उपक्रम, उपचार आदि चिकित्सा (Chikitsa) के पर्याय माने जाते हैं।

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आचार्य सुश्रुत ने प्रायश्चित, प्रशमन व शांति कर्म को चिकित्सा (Chikitsa) को पर्याय माना है। (सु. सू. अ. ३)

चरक चिकित्सा स्थान अध्याय १ में आचार्य जी ने भेषज (औषध) के ९ पर्यायों का उल्लेख किया है।

चिकित्सितं व्याधिहरं पथ्यं साधनमौषधम् । प्रायश्चित्तं प्रशमनं प्रकृतिस्थापनं हितम् । (च. चि. अ. १/३)

भेषज के पर्याय-

  1. चिकित्सित
  2. व्याधिहर
  3. प्रलय
  4. साधन
  5. औषध
  6. प्रायश्चित
  7. प्रशमन
  8. प्रकृतिस्थापन
  9. हित

परो भूतदया धर्म इति मत्वा चिकित्सया । वर्तते यः स सिद्धार्थः सुखमत्यन्तमश्नुते।। (च. चि. अ. १/४/६२)

अन्य प्राणियों पर दयादृष्टि रखकर ही चिकित्सा (Chikitsa) में प्रवृत्त होना चाहिए, ऐसा आचार्य चरक का मत है।

चिकित्सा के भेद-

1. एकविध चिकित्सा :

संक्षेप्तः क्रियायोगो निदानपरिवर्जनम्। (सु. उ. त. १/२५) निदान (हेतु) का त्याग करना ही चिकित्सा (Chikitsa) है।

2. द्विविध चिकित्सा :

  • शीत व उष्ण चिकित्सा
  • सन्तर्पण व अपतर्पण चिकित्सा
  • शोधन व शमन चिकित्सा
  • ऊर्जस्कर व रोगघ्न चिकित्सा
  • द्रव्यभूत व अद्रव्यभूत चिकित्सा
  • शीत व उष्ण चिकित्सा- यदि व्याधि शीत कारकों से हुई है तो उष्ण चिकित्सा तथा उष्ण कारकों से हुई है तो शीत चिकित्सा की जाती है।
  • सन्तर्पण व अपतर्पण चिकित्सा-

उपक्रम्यस्य हि द्वित्वात् द्विवैधोपक्रमो मतः। एक संतर्पणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्पणः।। बृंहणो लंघनश्चेति तत्पर्यायावुदाहृतौ। (अ. हु. सू. 14/1-2)

कृश पुरुषों में पुष्टिकारक औषधों व आहार द्रव्यों से धातुओं को पोषित करना बृंहण अथवा संतर्पण चिकित्सा है। स्थूल पुरुषों में मेद को कम करने वाली औषधियों व आहार का प्रयोग अपतर्पण अथवा लंघन चिकित्सा है।

  • शोधन व शमन चिकित्सा-

शोधनं शमनं चेति द्विधा तत्रापि लंघनम्। (अ. हृ. सू. १४/४)

प्रकुपित हुए दोषों को उनके सन्निकृष्ट प्राकृतिक मार्गों से निर्हरण करना शोधन चिकित्सा है। जब दोष अलर्ट मात्रा में कुपित हुए हो तो उन्हें औषधों द्वारा साम्यावस्था में लाना शमन चिकित्सा है।

  • ऊर्जस्कर व रोगघ्न चिकित्सा-

भेषजं द्विविधं च तत् । स्वस्थस्योर्जस्करं किञ्चित् किञ्चिदार्तस्य रोगनुत् ।। (च. चि. १/१/४)

ऊर्जस्कर चिकित्सा दो प्रकार की है- रसायन व वाजीकरण।
रोगों को दूर करना रोगघ्न चिकित्सा है।

  • द्रव्यभूत व अद्रव्यभूत चिकित्सा- औषधियों द्वारा चिकित्सा करना द्रव्यभूूूूत चिकित्सा है तथा मन्त्र, होम, भय, क्रोध आदि मानसिक व सात्विक उपायों का प्रयोग अद्रव्यभूत चिकित्सा है।

3. त्रिविध चिकित्सा :

  • दैवव्यपाश्रय, युक्तिव्यपाश्रय व सत्वावजय
  • अपकर्षण, प्रकृतिविघात व निदान परिवर्जन
  • हेतुविपरीत, व्याधिविपरीत व हेतुव्याधिविपरीत
  • लंघन, लंघन- पाचन व दोषावसेचन
  • अन्तः परिमार्जन, बहिः परिमार्जन व शस्त्र प्रणिधान
  • दैवव्यपाश्रय, युक्तिव्यपाश्रय व सत्वावजय- मन्त्र, जप, मणि धारण आदि द्वारा चिकित्सा करना दैवव्यपाश्रय चिकित्सा है। औषध द्वारा युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा की जाती है। सत्व अर्थात् मन पर विजय प्राप्त करना अथवा अहितकर विषयों से मन को हटाना सत्वावजय है।
  • अपकर्षण, प्रकृतिविघात व निदान परिवर्जन- कृृृमि, कण्टक (कांटा) आदि को खींच कर बाहर निकालना अपकर्षण है।

रोग की प्रकृति या कारण के विपरीत गुुण वाली औषधियों का प्रयोग। जैसे- कृमि रोग मधुर, अम्ल आदि द्रव्यों द्वारा होता है तो उसके विपरीत कटु रस वाली औषधियों का सेवन करना प्रकृतिविघात है।

जिन कारणों से रोग उत्पन्न हुआ उनका परित्याग करना निदानपरिवर्जन है।

  • हेतुविपरीत, व्याधिविपरीत व हेतुव्याधिविपरीत- शीत अथवा कफ की अधिकता होने पर शुुुुण्ठी (उष्ण) का प्रयोग करना हेतुविपरीत है। अम्लपित्त रोग में अविपत्तिकर चूर्ण का प्रयोग व्याधिविपरित है। वातिक ग्रहणी मेें चित्रकादि वटी का प्रयोग हेतु व व्याधि दोनों के विपरीत है।
  • लंघन, लंघन- पाचन व दोषावसेचन– जब दोष अति अल्प मात्रा में कुपित हुए हों तो लंंघन चिकित्सा की जाती है अर्थात् एक या दो बार का खाना छोड़ने से जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है।

जब दोष मध्यम मात्रा में कुपित हो तो लंघन के साथ पाचन औषधियों का प्रयोग किया जाता है, इसे लंघन-पाचन कहते हैं।

दोषों का अत्यंत प्रकोप होने पर उन्हें शरीर से बाहर निकालना ही दोषावसेचन है।

  • अन्तः परिमार्जन, बहिः परिमार्जन व शस्त्र प्रणिधान– औषधियों का अन्तः प्रयोग करना अन्तः परिमार्जन है। औषधियों का बाह्य प्रयोग (लेप, अभ्यंग, स्वेदन, परिषेक आदि के रूप में) बहिः परिमार्जन है। शस्त्र का प्रयोग कर व्रण का छेदन, लेखन, भेदन आदि से उपचार करना शस्त्र प्रणिधान है।

4. चतुर्विध चिकित्सा :

प्रथम भेद-

दोषाः क्षीणाबृंहयितव्याः,कुपिताःप्रशमयितव्याः, वृद्धा निर्हर्तव्या , समाः परिपाल्या इति सिद्धान्तः । सु. चि. 11/1

  • क्षीण हुए दोषों की वृद्धि करना।
  • प्राकृत दोषों का प्रशमन करना।
  • वृद्ध हुए दोषों का निर्हरण करना।
  • सम दोषों को बनाये रखने के लिए वर्णित आहार तथा आचारादि नियमों का पालन करना।

द्वितिय भेद-

तेषां संशोधनसंशमनाहाराचाराः सम्यक प्रयुक्ता निग्रह हेतवः। (सु.सू. 1/27)

  • संशोधन – दूषित दोषों एवं मल को शरीर से बाहर निकालना
  • संशमन – प्रकुपित दोषों का शमन करना
  • आहार – रोग एवं दोष के अनुसार आहार का सेवन
  • आचार – रोग एवं दोष के अनुसार विहार का सेवन

तृतीय भेद-

औद्भिद औषध द्रव्यों के आधार पर-

  • वनस्पति : केवल फल होता है।
  • वानस्पत्य : फल-फूल दोनों होते है।
  • वीरूध : लता
  • औषध : पकने के बाद जो पौधे नष्ट हो जाते हैं।

5. पञ्चविध चिकित्सा :

यदीरयेदबहिर्दोषान् पञ्चधा शोधनं च तत्। निरूहो वमनं काय शिरोरेकोऽस्त्रविस्त्रुति ।। (अ.ह.सू. २४/७)

  1. वमन– दोषों को उर्ध्व मार्ग से निकालना।
  2. विरेचन– दोषों को अधो मार्ग से निकालना।
  3. बस्ति– गुदा मार्ग से औषधि का प्रयोग कराना।
  4. शिरोविरेचन– नासा मार्ग से औषधि प्रयुक्त करना।
  5. रक्तमोक्षण– दूषित रक्त को श्रृंग, जलौका, अलाबू, सिरावेध द्वारा शरीर से बाहर निकालना।
Chikitsa

6. षड्विध चिकित्सा :

लंघनं बृंहण काले रुक्षण स्नेहनं तथा। स्वेदनं स्तंभनं चैव जानीते यः स वै भिषक्।। (च. सू. 22/4)

  1. लंघन– जो शरीर में लघुता लाता है, वह लंघन कर्म है।
  2. बृंहण- शारीरिक धातु के अणुओं को जो आकार में बड़ा करें, वह बृंहण चिकित्सा है। यह विशेषतः मांस व मेद पर कार्यरत हैं।
  3. रूक्षण- जो रूक्ष व खर गुण की वृद्धि करे, वह रूक्षण है। जैसे- उद्घर्षण
  4. स्नेहन- जो कर्म शरीर में स्निग्धता लाता है। उदाहरण- अभ्यंग, स्नेहपान
  5. स्वेदन- जो कर्म शोथ, शूल व शीत को दूर करता है।
  6. स्तम्भन- जो कर्म बढ़ी हुई गति का ह्रास करता है।

7. सप्तविध चिकित्सा :

शमनं तच्च सप्तधा-पाचनं दीपनं क्षुत्तृट्व्यायामातपमारूताः।। (अ. ह. सू. 14/7)

  1. पाचन- जो आहार का पाचन ठीक से करें। जैसे- सौंफ
  2. दीपन- जो जठराग्नि को प्रदीप्त करे। जैसे- घृत
  3. क्षुधा- भोजन का त्याग ( सामान्यतः एक काल अथवा एक दिन) कर दोषों का शमन
  4. पिपासा- प्यासा रहना
  5. व्यायाम
  6. धूप सेवन
  7. वायु सेवन

8. अष्टविध चिकित्सा :

शल्य तन्त्र के अनुसार अष्टविध चिकित्सा बताई गई हैं-

  1. छेदन
  2. भेदन
  3. लेखन
  4. आहरण
  5. वेधन
  6. एषण
  7. विस्रावण
  8. सीवन

9. दशविध चिकित्सा :

तुकारासंशुद्धि पिपासामारुतातपौ। पाचनान्युपत्राश्च व्यायाम चेति लंघनम् ।। (च. सू. 22/18)

  1. वमन
  2. विरेचन
  3. आस्थापन
  4. नस्य
  5. पिपासा
  6. वायु सेवन
  7. आतप सेवन
  8. पाचन
  9. उपवास
  10. व्यायाम

10. अष्टादश/ उपशयात्मक चिकित्सा :

औषधादिजनितः सुखानुबन्ध उपशयः । (माधव निदान)

औषधआहारविहार
1. हेतु
विपरीत
शीत कफ ज्वर में शुण्ठी आदि उष्ण औषधश्रमादिजन्य ज्वर में मांस सेवनदिवास्वपन से उत्पन्न कफ में रात्रि-जागरण
2. व्याधि विपरीतअतिसार में स्तम्भन के लिए कुटज या पाठाअतिसार में स्तम्भन के लिए मसूरउदावर्त में प्रवाहण
3. हेतुव्याधि विपरीतवातज शोथ में वातहर व शोथहर दशमूलशीतोष्ण ज्वर में उष्ण व ज्वरनाशक यवागू सेवनदिवास्वपन से उत्पन्न कफज तन्द्रा में रात्रि-जागरण
4. हेतु विपरीतार्थकारीपैत्तिक व्रणशोथ में उष्ण उपनाहपच्यमान पित्त प्रधान शोथ में विदाही अन्नवातिक उन्माद में भय
5. व्याधि विपरीतार्थकारीछर्दि में मदनफलअतिसार में विरेचन कारक दुग्धछर्दि में वमन के लिए प्रवाहण
6. हेतुव्याधि विपरीतार्थकारीअग्नि दग्ध में उष्ण अगरु लेपमदात्यय में मद्यपानव्यायाम से उत्पन्न ऊरुस्तम्भ में तैरना

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