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Vaman karma ( वमन कर्म ) : Panchkarma

वमन (Vaman) शब्द उत्पत्ति :- ‘वम’ में ल्युुट् प्रत्यय लगाने से ‘वमन‘ शब्द की उत्पत्ति होती है।

‘वमन’ (Vaman) शब्द का अर्थ है उल्टी, आमाशय स्थित द्रव का मुख मार्ग से बहिर्गमन।

पर्याय :-

छर्दि, प्रच्छर्दन, नि:सारण, अभिष्यंदन, आहरण

परिभाषा :-

तत्र दोषहरणमूर्ध्वभाग वमनसंज्ञकम्। (च. क. 1/4)

ऊर्ध्व मार्ग द्वारा दोषों के निरहरण को वमन (Vaman) की संज्ञा दी गई है।

अपक्वपित्तश्लेष्माणौ बलादूर्ध्वं नयेत्तु यत्। वमनं तद्धि विज्ञेयं मदनस्यफलं यथा । (शा. पू. ख. 4/8)

अपक्व अथवा दूषित पित्त व कफ को बलपूर्वक ऊर्ध्व मार्ग से बाहर निकलने की क्रिया को वमन (Vaman) कहा जाता है। वमन कराने के लिए मदनफल का प्रयोग किया जाता है।

वैद्य द्वारा जो उल्टी कारणवश दोषों के निर्हरण के लिए अथवा रोगों की शांति के लिए कराई जाती है, वह वमन कहलाती है। तथा जो स्वयं होती है, अर्थात किसी रोग के उपद्रव स्वरूप होती है वह छर्दी है।

Vaman
वमन

◾ महत्त्व व प्रयोजन :-

  1. कफज रोगों की चिकित्सा के लिए वमन (Vaman) श्रेष्ठ है क्योंकि वामक द्रव्य आमाशय में जाकर दूषित कफ को मुख द्वारा बाहर निकालकर शरीर का शोधन करता है।
  2. वमन केवल आमाशय का शोधन नहीं परंतु संपूर्ण शरीर का शोधन करता है। वमन से पूर्व स्नेहन व स्वेदन कर्म किया जाता है, जिससे शरीर में स्थित दोष द्रव होकर मुख मार्ग द्वारा बाहर निकल जाते हैं। इससे कोष्ठगत दोष, धातुओं में व्याप्त दोष, शाखा व अस्थियों में व्याप्त दोष द्रवित होकर वमन द्वारा बाहर निकाले जाते हैं।
  3. अजीर्ण, विषपीत, अलसक, विरुद्ध आहार व विसूचिका आदि में तुरंत लाभ देता है।
  4. वमन द्वारा कास, स्रोतों में मल, स्वर भेद, निद्राधिक्य, तन्द्रा, मुख दौर्गन्ध्य आदि विकार नष्ट होते हैं।

◾ वमन द्रव्य :-

  • मदनफल
  • जीमूतक
  • कुटज
  • धामार्गव
  • कृतवेधन
  • इक्ष्वाकु
  • वचा

आचार्य चरक व सुश्रुत दोनों ने मदनफल को श्रेष्ठ वामक द्रव्य कहा है।

Vaman
मदन फल

◾वमनोपग द्रव्य :-

जो द्रव्य वमन मेें सहायक हैं, वे वमनोपग द्रव्य कहलाते हैैं –

  • मुलेठी
  • लाल कांचनार
  • श्वेत कांचनार
  • कदंब
  • हिज्जल
  • कड़वी कुंदरु
  • मदार
  • शनपुष्पी
  • अपामार्ग
  • मधु

◾वमन द्रव्यों के गुण – कर्म :-

  1. उष्ण
  2. तीक्ष्ण
  3. सूक्ष्म
  4. व्यवायी
  5. विकासी
  6. ऊर्ध्व भाग प्रवृत्ति

वमन द्रव्यों की कल्पनाएं :-

वामक द्रव्यों की अनेक कल्पनाएं बताई गई हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं –

  1. चूर्ण
  2. कल्क
  3. यवागु
  4. मोदक
  5. क्वाथ
  6. अवलेह
  7. कृशरा
  8. तक्र
  9. मांसरस
  10. व्यक्ति
  11. षाडव आदि

◾वमन का पूर्व कर्म :-

1️⃣ संभार संग्रहण –

  • सामग्री तथा उपकरण – वमन (Vaman) जिस कक्ष में करवाना है, वहां जल तथा शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए। उपकरण= वमन पीठ अथवा कुर्सी, बाल्टी, टेबल, ग्लास, कटोरी, भिगोना अथवा जग, नेपकिन अथवा तोलिया, वमन पात्र, ऊष्ण जल पात्र, दस्ताने आदि।
  • औषधि= दूध = 2-3 लीटर, मुुुलेठी फाण्ट = 2-3 लीटर, लवणोदक = 2-3 लीटर, शुुद्ध जल = 2-3 लीटर
  • परिचारक= 4 परिचारक
Vaman
वमन पीठ

2️⃣आतुर परीक्षा –

  • रोगी वमन योग्य है अथवा नहीं, दोष, औषध, देश, काल, सात्म्य, सत्व आदि अनुसार परिक्षण।
  • रोगी का चिकित्सा सहमति घोषणा पत्र लिखित में ले।
  • तापक्रम आदि सारणी अर्थात् रोगी का तापक्रम, नाडी गति, श्वसन गति, रक्तचाप, वजन आदि का मापन।

3️⃣आतुर सिद्धता – दीपन, पाचन तथा स्नेेहपान।

दोष उत्क्लेशन – जिस दिन रोगी का वमन कराना हो उससे एक दिन पूर्व रोगी को गुरु आहार दिया जाता है। जैसे – उड़द, रबड़ी, खीर, रस मलाई आदि।

अभ्यंग स्वेदन द्वारा आतुर सिद्धता –

  • वमन से एक दिन पूर्व रोगी का अभयंग स्वेदन किया जाता है।
  • प्रातः काल रोगी का अभ्यंग स्वेदन किया जाता है तथा यवागु व घी अथवा दुग्ध पान कराते हैं।
  • इस दौरान रोगी से बातचीत कर उसे बताया जाता है कि वमन द्वारा रोग शांत होंगे तथा शरीर का शोधन होगा। रोगी में आस्था व विश्वास जागृत किया जाता है।

वेश भूषा – रोगी की वेश भूषा स्वच्छ व आरामदायक होनी चाहिए।

◾ वामक योग :-

  • मदनफल = 6-10 ग्राम (अंतर्नखमुष्टी प्रमाण)
  • वचा = 3-5 ग्राम
  • सैंधव = 1.5-3 ग्राम
  • मधु = आवश्यकतानुसार
  • कभी कभी मुलेठी फांट भी मिलाया जाता है, ताकि औषध पीत स्वरूप में दी जा सके।

◾वमन विधि :-

  • रोगी का अभ्यंग स्वेदन होने के पश्चात रोगी का जैविक मानक (vital recordings) का नाप किया जाता है।
  • रोगी को आरामदेय कुर्सी अथवा वमन पीठ पर बिठाया जाता है। उसके जंघा पर तथा कुर्सी के हाथ पर छोटे तौलिए रखे जाते हैं जिससे रोगी अपना मुख साफ कर सके।
  • अब रोगी को आकंठ दुग्ध पान कराया जाता है।
  • इसके पश्चात रोगी को वामक योग दिया जाता है।

◾वामक योग अर्थात् औषध पिलाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है।

ॐब्रह्मदक्षश्विरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः। ऋष्यसौषधिग्रामा भूतसंगाश्च पान्तु ते। रसायनमिवर्षिनाम देवानामृतं यथा। सुधेवोत्तमनागानां भैष्जयमिदं स्तु ते।। (च.क.1/14)

भैषज ब्रह्मा आदि अनेक देवताओं को स्मरण करते हुए तथा अनेक ग्रहों से रक्षा करते हुए, यह संबोधित कर रहा है कि जैसे ऋषियों के लिए रसायन है तथा देवताओं के लिए अमृत है, नागों के लिए सुधा है, उसी प्रकार यह औषधि कार्य करे।

दोष गति लक्षण :-

वमन औषध पिलाने के बाद एक मुहूर्त तक प्रतीक्षा करनी चाहिए।

  1. ललाट पर स्वेद बिंदु दिखाई दें तो यह समझना चाहिए कि दोष स्रोतों में विलीन हो रहे हैं व ऊर्ध्वगमन कर रहे हैं।
  2. रोमहर्ष दोषों की कोष्ठ की ओर गति होने पर होता है।
  3. दोष कोष्ठ में आने पर कुक्षि में आध्मान होता है।
  4. हृल्लास व लालास्त्राव होने पर यह समझना चाहिए कि दोष आमाशय से मुख की ओर से गए हैं।
  • फिर रोगी को सामने रखे वमन पात्र अथवा वमन पीठ पर वमन करने को कहना चाहिए।
  • यदि वमन ना हो रहा हो तो रोगी को कमलनाल या अपनी उंगली कंठ में डालकर वमन को प्रवृत्त करने को कहना चाहिए।
  • वमन वेग आने पर एक परिचारक रोगी की पीठ को नीचे से ऊपर की ओर सहलाए।
  • दूसरा परिचारक शंख प्रदेश व माथे को दबाए, इससे शीघ्र ही वमन होता है।
  • वमन के बीच-बीच में रोगी को मुलेठी का फाण्ट पिलाया जाता है।
  • इसके पश्चात लवणोदक पिलाया जाता है।

वेग, पीत द्रव, छिन्न वेग, वमन द्वारा निकाला द्रव, आदि का मान नोट किया जाता है। तथा पित्तान्त लक्षण होने पर सम्यग वमन समझा जाता है।

वमन के सम्यग योग, अतियोग व अयोग :-

◾वमन पश्चात कर्म :-

  1. धूमपान – वमन पश्चात रोगी के हाथ, पैर व मुुख का स्वच्छ जल प्रक्षालन करवा, कुछ देर विश्राम कराते हैं। रोगी का निरीक्षण कर उसे प्रायोगिक, स्नैहिक या वैरेचनिक धूमपान कराते हैं। इससे कंठ, नासिका व मुख की शुद्धि होती है तथा कफ द्वारा कंंठ अवरुद्ध समाप्त होता है।
  2. परिहार्य विषय – इसके पश्चात रोगी को निम्न वर्जित कर्मों की जानकारी दी जाती है –
    • ऊंची आवाज़ में बोलना
    • दिवास्वप्न
    • व्यायाम व व्यवाय (मैथुन)
    • अधिक देर तक खड़े रहना अथवा बैठना
    • भय, क्रोध, शोक आदि
    • रात्रि जागरण
    • वेग धारण
    • विरुद्ध आहार सेवन
  3. संसर्जन कर्म – चरक व वागभट्ट ने निम्न वर्णन किया है –

पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूषं रसं त्रिद्विरथैकशश्च। क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः प्रधान मध्यावर शुद्धिशुद्धः।। (च. सि. 1/11 एवं अ. ह. सू. 18/29)

◾हीन, मध्यम व प्रवर शुद्धि निर्णय :-

शुद्धि प्रकारप्रवर शुद्धिमध्यम शुद्धिउत्तम शुद्धि
वेगिकी8 वेग6 वेग4 वेग
मानकी2 प्रस्थ1.5 प्रस्थ1 प्रस्थ
आन्तकीपित्तान्तपित्तान्तपित्तान्त

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