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Virechan karma ( विरेचन कर्म ) : Complete Procedure

शब्द उत्पत्ति – वि + रिच् + णिच् + ल्युट् । ‘विरेचन’ (Virechan) का अर्थ है – मलादि को निष्कासित करना।

आचार्य चरकानुसार :-

तत्र दोषहरणमूर्च्व भागं वमन संज्ञकम, अधोभाग विरेचन संज्ञक; उभयं वा शरीरमलविरेचनाद्विरेचन संज्ञा लभते।। (च॰ क॰ अ॰ १/४)

What is Virechan ?

अधोमाग (गुदा) से दोष-हरण की क्रिया को विरेचन (Virechan) संज्ञा दी जाती है। अथवा शरीर का मल बाहर निकालने के कारण उभय प्रक्रियाओं को विरेचन संज्ञा प्रदान की गई है।

‘विरेचन’ शब्द सामान्य अर्थ में शोधन प्रक्रिया के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे उर्ध्व विरेचन (वमन), अद्यो विरेचन (गुद मार्ग द्वारा विरेचन), शिरोविरेचन (नस्य), मूत्रविरेचन, शुक्रविरेचन आदि अर्थों में प्रयुक्त किया है।

Importance of Virechan :

  • पित्त की श्रेष्ठतम चिकित्सा

विरेचन तु सर्वोपक्रमेभ्यः पित्ते प्रधानं मन्यते भिषज:।(च. सू. 20/16)

आचार्य चरकानुसार पित्तज विकारों की श्रेष्ठ चिकित्सा विरेचन (Virechan) है क्योंकि विरेचन द्रव्य सर्व प्रथम आमाशय में जाकर विकृत पित्त का अपकर्षण के अधो मार्ग से बाहर निकालता है।

आमाशयिक पित्त के शांत होने पर समस्त शरीर के पित्तज रोग स्वयं शान्त हो जाते हैं।

  • विरेचन से बुद्धि प्रसादन, उत्साह, इन्द्रियों में बल, धातुओं में स्थिरता व जठ राग्नि दीप्त होती है।
  • शरीर के दूषित वात, पित्त व कफ, मल – मूत्र आदि को दूर करने में, रोगों को नष्ट करने में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • ज्वर, रक्तभार वृद्धि, धमनी सिरा विस्तार, रक्तज रोग, पित्तज रोग व मानसिक विकारों में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • विरेचन से अन्न नलिका में से त्याज्य पदार्थ बाहर निकाल दिए जाते हैं। इससे शिर शूल व व्याकुलता शांत हो जाते हैं।
  • यह शरीर में जल की मात्रा को घटाकर शोथ दूर करता है।

विरेचन द्रव्यों के प्रकार :

  • 11 मूलिनी द्रव्य विरेचक है।
  • 10 फलिनी द्रव्य विरेचक हैं।
  • महा स्नेह व पंच लवण विरेचन के सहयोगी हैं।
  • अष्ट मूत्र व अष्ट दुग्ध भी विरेचन सहयोगी हैं।

दस भेदनीय द्रव्य =

  1. निशोथ
  2. अर्क
  3. एरंड
  4. लांगली
  5. दंती
  6. चित्रक
  7. चिर बिल्व
  8. शंखिनी
  9. कुटी
  10. विरेचनोपग द्रव्य
    • द्राक्षा
    • गंभारी
    • फालसा
    • हरीतकी
    • विभितकी
    • आमलकी
    • बड़ी बेर
    • बेर
    • छोटी बेर
    • पीलु

आचार्य सुश्रुत अनुसार विरेचन द्रव्य =

चरक उक्त विरेचन (Virechan) द्रव्य कुुश, काश, बकायन, ज्योतिष्मती।

विरेचन द्रव्यों के गुण =

  1. उष्ण
  2. तीक्ष्ण
  3. सूक्ष्म
  4. व्यवायी
  5. विकासी
  6. अधोमार्गहरण प्रभाव

विरेचन सम्प्राप्ति –

Types of Virechan –

* चरक अनुसार

मृदु विरेचनसुख विरेचनतीक्ष्ण विरेचन
अल्प मल प्रवर्तकसुखपूर्वक अबहु मल प्रवर्तकअति वेग से मल प्रवर्तक
जैसे – अमलतासजैसे – निशोथजैसे – स्नुही क्षीर

*सुश्रुत व भावमिश्र अनुसार –

अनुलोमनस्त्रंसनभेदनरेचन
मल आदि को पकाकर बाहर निकालनामल आदि को बिना पकाए शरीर से बाहर निकलनामल आदि को टुकड़े करके शरीर से बाहर निकलनापक्व व अपक्व मल आदि को पतला करके शरीर से बाहर निकलना
जैसे – हरीतकीजैसे – अमलतासजैसे – कटुकीजैसे –
निशोथ

विरेचन विधि :-

पूर्व कर्म :

  • संभार संग्रह (Collection of necessary facilities)- विरेचन (जिसमें पानी, शौचालय आदि की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। उपकरण– विरेचन पीठ या मल पात्र (Bed Pans), मेजर, ग्लास, कटोरी, भगोना, विरेचना औषध या योग, विरेचनोपग एवं उपद्रव निवारण औषधियाँ हों। परिचारक– विरेचन हेतु (4) परिचारक की आवश्यकता होती है।
  • आतुर परीक्षा (Examination of the patient)– (रोगी परीक्षा) सर्वप्रथम यह निश्चय किया जाता है कि रोगी विरेचन के योग्य है या नहीं। दोष, देश, काल, बल, शरीर, सात्म्य, सत्य, प्रकृति आदि का परीक्षण कर फिर विरेचन प्रकार का निर्धारण करते है ।
  • रोगी का चिकित्सा सहमति घोषणा पत्र (Consent form)- रोगी का विरेचन करने से पूर्व चिकित्सा की सम्पूर्ण प्रक्रिया की जानकारी के साथ उपद्रव आदि की जानकारी देते तथा उसकी लिखित में सहमति लेते हैं।
  • तापक्रम आदि सारणी (Vital recording) – रोगी का तापक्रम, नाड़ी गति, श्वसन गति, अजन, रक्तचाप आदि का मापन।
  • आतुर सिद्धता (Preparation of patient)– विरेचन से पूर्व पाचन कर्म/दिन कर्म या वमन कराना हो तो रोगी का स्नेहन, स्वेदन- वमन, संसर्जन क्रम के पश्चात फिर पुनः नए क्रम से रोगानुसार स्नेह से स्नेहन किया जाता है।
  • सम्यक स्नेहन के बाद तीन दिन विश्राम करवाकर चौथे दिन विरेचन करवाना चाहिए।
  • रोगी की वेश भूषा सुविधा जनक होनी चाहिए।

औषध कल्पना :

• दोष अनुसार =

वात प्रधानपित्त प्रधानकफ प्रधान
त्रिवृत्त चूर्ण
शुंठी चूर्ण
सेंधव
जांगल रस
त्रिवृत चूर्ण
द्राक्षा क्वाथ
त्रिकटु चूर्ण
त्रिफला क्वाथ
गोमूत्र

• व्यवहार उपयोगी =

  1. इच्छा भेदी रस / जयपाल युक्त योग / अभयादि मोदक
  2. एरंड स्नेह
  3. त्रिवृत चूर्ण / सनाय योग
  4. ईसबगोल
  5. पंचसकार चूर्ण / अविपत्तिकर चूर्ण / त्रिफला चूर्ण
  6. द्राक्षा / आरग्वध करवाते

इनकी मात्रा कोष्ठ अनुसार निर्धारित करें।

विरेचन प्रधान कर्म :

  • विरेचन (Virechan) औषधि प्रयोग – कोष्ठ अनुसार औषध मात्रा निर्धारित कर, रोगी को पूर्व दिशा की ओर बिठाकर औषध पिलाई जाती है।
  • रोगी का निरीक्षण किया जाता है तथा बार बार थोड़ा थोड़ा गरम जल पिला दिय जाता है।
  • यदि औषधि पच जाए और रोगी को विरेचन ना हो तो रोगी को भोजन करा अगले दिन पुनः विरेचन करवाया जाता है।
  • वेग निर्णय – विरेचन औषध पिलाने के पश्चात के पहले 2-3 मल युक्त वेगों को छोड़कर बाकी वेगों को गिना जाता है।
  • शुद्धि निर्णय –
शुद्धिप्रवरमध्यमअवर
वेगीकी302010
मानिकी4 प्रस्थ3 प्रस्थ2 प्रस्थ
आंतिकीकफ अंतकफ अंतकफ अंत

विरेचन पश्चात कर्म :

  1. संसर्जन क्रम
  2. तर्पण औषध = मुनक्का, इमली, अनारदाना, फालसा व आंवले के रस में घुला मंथ।
  3. संयम-नियम = अपथ्य का त्याग
  4. विरेचन उत्तर कर्म = शमन चिकित्सा / रसायन / वाजीकरण / बस्ति

उपद्रव / Complications :

  1. आध्मान
  2. परिस्त्राव
  3. हृद्ग्रह
  4. अंगग्रह
  5. विभ्रंश
  6. स्तम्भ
  7. उपद्रव
  8. क्लम
  9. परिकर्तिका
  10. जीवादान

इन सबमें लाक्षणिक चिकित्सा की जाती है।

सम्यग योग लक्षण :-

स्त्रोतोविशुद्धीन्द्रियसम्प्रसादी लघुत्वमूजोंऽग्निरनामयत्वम्। प्राप्तिश्चविट्पित्तकफानिलानां सम्यग्विरिक्तस्य भवेत् क्रमेण।। (च. सि. 1/17)
विरेचन (Virechan) का सम्यक योग होने पर स्रोतों व इन्द्रियों की शुद्धि होती है। लघुता, ऊर्जा व अग्नि सम होती है। क्रम से विट्ट, पित्त कफ व अनिल (वात) का निष्कासन होता है। कोष्ठ रिक्त हो जाता है।

अयोग लक्षण :-

स्यात्श्लेष्मपित्तानिल संप्रकोप: सादस्तथाग्नेर्गुरुता प्रतिश्याय। तंद्रा तथा छर्दिरोचक वातानुलोम्यं न च दुर्विरिक्ते। (च. सि. 1/18)
अयोग होने पर कफ, पित्त व वात का प्रकोप होता है। गुरुत्व बना रहता है। प्रतिश्याय, तंद्रा, अरुचि तथा वमन होता है। कोष्ठ रिक्त नहीं होता तथा वात का अनुलोमन भी नहीं होता।

अतियोग लक्षण :-

कफास्नपित्तक्षयजानिलोत्थाः सुप्त्यंगमर्द क्लमवेपनाद्या:।निद्रा बलाभावतमः प्रवेशाः सोन्माद हिक्काश्च विरेचितेऽति । (च. सि. 1/19)
विरेचन का अतियोग होने से पित्त का क्षय तथा वात का प्रकोप होता है। अंगों में पीड़ा व क्लम (आलसपन) होता है। निद्रा व बल का अभाव होता है। तम दोष का प्रवेश होता है तथा उन्माद व हिक्का की उत्पत्ति होती है।

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