नाम:-
संस्कृत | वङ्गम् |
हिंदी | रांगा |
Latin | Stannum |
English | Tin (Sn) |
- Atomic number= 50
- Atomic mass= 118.70
पर्याय:-
- वङ्ग
- वङ्गक
- रङ्ग
- रङ्गक
- त्रपु
- त्रपुस
- शुक्रलौह ।
उत्पत्ति :-
पौराणिक मान्यतानुसार इसकी उत्पत्ति इन्द्र के शुक्र से बतलायी है।
परिचय:-
- Vangh is as white and lustrous as रजत धातु।
- It is obtained as mineral and compound form.
- Is not found in free form.
- It is milder than यशद and harder than नाग धातु।
- It is also used to layer a mirror.
- यह शुक्र ग्रह का प्रतिनिधि एवं शुक्रवर्धक होने के कारण इसको शुक्रलौह भी कहते हैं।
वङ्ग खनिज:-
Main is -Tinstone or Cassiterite (SnO2).
वङ्ग प्राप्ति स्थान:-
- वर्मा, दक्षिण अफ्रीका, चीन, आस्ट्रेलिया, मलेशिया, साइबेरिया आदि देशों से तथा भारत के झारखंड (बिहार) में हजारी बाग एवं सिंहभूमि, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवं बम्बई में भी वङ्ग मिलता है।
- संभवतः वर्मा से वङ्ग देश (बांग्लादेश) के रास्ते से भारत में आने के कारण ही इसका नाम वङ्ग पड़ा है।
वङ्ग के भेद:-
1 खुरक वङ्ग | 2 मिश्रक वङ्ग |
१.अन्य धातु मिश्रण रहित | १.अन्य धातु का मिश्रण होने से कठिन होता है। |
२. श्वेत वर्ण | २.कृष्ण- श्वेत वर्ण |
३.मृदु, स्निग्ध | ३.रुक्ष |
४. वजन में भारी एवं पिघलने पर शब्द रहित होता है। | ४.कठिनता से पिघलने वाला। |
ग्राह्य वङ्गः-
- खुरक वङ्ग ही गुणों में उत्तम होने से औषध कार्य में ग्रहण करना चाहिए।
- मिश्रण वङ्ग अहितकर होता है।
शोधन प्रयोजन:-
अशुद्ध एवं अपक्व वङ्ग भस्म का सेवन करने पर-
- प्रमेह, गुल्म, हृदय रोग, शूल, अर्श,
- कास, श्वास, छर्दि, कान्तिनाशक,
- कुष्ठ, किलास, क्षय,
- पाण्डु, शोथ, श्लेष्म ज्वर, भगन्दर, शुक्राश्मरी,
- रक्त विकार, दाह, श्वित्र, अपची, मूत्रकृच्छ्र, विद्रधि एवं वातरक्त आदि रोगों को उत्पन्न करती है।
* इसको आमज्वर में विषतुल्य भी माना गया है। *
वङ्ग का सामान्य शोधन:-
- वङ्ग (Vangh) को पिघलाकर तिलतैल, तक्र, गोमूत्र, काञ्जी एवं कुलत्थ क्वाथ में क्रमशः सात-सात बार बुझाने पर सामान्य शोधन हो जाता है।
विशेष शोधन:-
- वङ्ग (Vangh) को पिघलाकर हरिद्राचूर्ण मिश्रित निर्गुण्डी स्वरस में तीन बार बुझाने पर विशेष शोधन हो जाता है।
- वङ्ग को लौह दर्वी में पिघलाकर अर्कदुग्ध में सात बार बुझाने पर वङ्ग उत्तम रूप से शुद्ध हो जाता है।
वङ्गशोधन में सावधानी :-
- पिघले हुए वङ्ग (Vangh) को द्रव में डालने पर बड़ी तेजी से बाहर की ओर शब्द सहित विस्फोट निकलता है।
- अतः शोधन करते समय शुद्ध करने की समुचित व्यवस्था करके स्वंय की सुरक्षा रखनी चाहिए।
वङ्ग जारण:-
शुद्ध खुरक वङ्ग को लोहे की छोटी कडाही में पिघलाकर
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वङ्ग से चतुर्थांश अपामार्ग पञ्चाङ्गचूर्ण लेकर पिघले हुए वङ्ग में थोड़ा थोड़ा प्रक्षेप डालकर
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लौह दर्वी के पृष्ठ भाग से दृढ मर्दन करते रहना चाहिए।
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इस प्रकार 2-3 घण्टे दृढ़ मर्दन करने पर वङ्ग चूर्ण हो जाता है।
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इसे बीच-बीच में महीन चलनी से छानते रहे और अवशिष्ट मोटे वङ्ग के टुकड़े को प्रक्षेप देकर कड़ाही में घिसते रहे।
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जब सम्पूर्ण वङ्ग महीन छलनी से छन जाय तो उसे कडाही में रखकर मिट्टी के शराव से ढक तीव्राग्नि दें।
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जब वङ्ग चूर्ण अङ्गार वर्ण का लाल हो जाये तो स्वाङ्गशीत करें। इस प्रकार वङ्ग का जारण हो जाता है।
वङ्ग मारण:
- पलाशमूलत्वक् क्वाथ से हरताल का मर्दन करके वर्ग पत्र पर लेप कर शराव सम्पुट में रखकर 3-4 लघु पुट देने पर वङ्ग भस्म हो जाती है।
वंग भस्म में शीत एवं उष्णता जनक गुणः-
हरताल, गन्धक आदि उष्ण द्रव्यों से मारित वंग भस्म उष्ण प्रकृति का होता है। जबकि यवक्षार, चिञ्चाक्षार आदि से मारुति वंग भस्म शीत गुण युक्त होती है।
भस्म का वर्णः-
शुभ्र (चन्द्रमा के समान) वर्ण
वङ्ग भस्म के गुण :-
- रस – तिक्त,
- वीर्य – शीत,
- गुण – लघु, तीक्ष्ण, रुक्ष
- यह वातप्रकोपक, मेदोरोग, कफज रोग नाशक, कृमिहर, प्रमेहहर, बल्य, दीपक, पाचक, रुचिकर, बुद्धिवर्धक, सौन्दर्यवर्धक, आरोग्यदायक, धातुवृद्धिकर।
भस्म की मात्रा:-
1 – 2 रत्ती
अनुपान-
मधु, घी, दूध, मक्खन आदि रोगानुसार।
वंग भस्म सेवनजन्य विकार शमनोपाय:-
मेषश्रृंगी के चूर्ण में मिश्री मिलाकर 3 दिन तक सेवन करने पर वङ्ग सेवन जन्य विकारों का शमन हो जाता है।’
प्रमुख योग:
- त्रिवंग भस्म
- स्वर्ण वंग
- इन्दु वटी
- पुष्पधन्वा रस
- नित्यानंद रस
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