1. वमन
◾सम्यग योग लक्षण –
क्रमात कफः पित्तमथानिलश्च यस्यैति सम्यक् वमितः स इष्टः। हत्पा्श्वमर्धेन्द्रियमार्गशुद्धौ तथा लघुत्वेऽपि च लक्ष्यमाणे॥ (च. सि. 1/15)
निर्विबंध प्रवर्तन्ते कफपित्तानिला क्रमात्। सम्यग् योगे। (अ.ह.सू. 18/25)
पित्ते कफस्यानुसुखं प्रवृत्ते शुद्धेषु हत्कंठ शिरः सु चापि। लघौ च देहे कफसंस्रवे च स्थिते सुवान्तं पुरुषं व्यवस्येत्।। (सु. चि. 33/9)
सम्यक् वमन में क्रम से कफ, पित्त तथा वात दोष मुख से निकलते हैं। हृदय, पार्श्व, मूर्धा, व इन्द्रियों का मार्ग शुद्ध हो जाता है। इसके साथ-साथ लघुता का आभास होता है।
◾अयोग लक्षण –
केवलस्य वाप्यौषधस्य, विभ्रंशोः विबंधो वेगानां अयोग लक्षणानि भवन्ति। (च. सू. 15/13)
दच्छर्दिते स्फोटक कोठकंडू हृत्खाविशुद्धिर्गुरुगात्रता च। (च. सि. 1/16)
कफप्रसेकं हृदयाविशुद्धिं कण्डूं च दुश्छर्दितलिंगमाहुः। (सु. चि. 33/8)
वमन का अयोग होने पर त्वचा पर स्फोट, कोठ (चक्ते) व कंडू (खुजली) होती है। हृदय की शुद्धि नहीं होती तथा शरीर में गुरूता बनी रहती है।
◾अतियोग लक्षण –
योगाधिक्येन तु फेनिलरक्त चंद्रिकोपगमनं इत्यतियोगलक्षणानि भवन्ति। ( च. सू. 15/13)
पित्तातियोगं च विसंज्ञतां च हत्कंठपीडामपि चातिवांते। (सु. चि. 33/8)
अतियोगे तु फेनचन्द्रकरक्तवत्। वमित क्षामता दाहः कंठशोषस्तमो भ्रमः । घोरा वाय्वामया मृत्युजीवशोणित निर्गमात्॥ (अ. हू. स्. 18/25, 26)
वमन का अतियोग होने पर झागदार, व रक्त के समान वर्ण का वमन होने लगता है। हृदय व कंठ में पीड़ा होती है तथा कंठ में शोथ होता है।
2. विरेचन
◾सम्यग योग लक्षण –
स्त्रोतोविशुद्धीन्द्रियसम्प्रसादी लघुत्वमूजोंऽग्निरनामयत्वम्। प्राप्तिश्चविट्पित्तकफानिलानां सम्यग्विरिक्तस्य भवेत् क्रमेण।। (च. सि. 1/17)
विरेचन का सम्यक योग होने पर स्रोतों व इन्द्रियों की शुद्धि होती है। लघुता, ऊर्जा व अग्नि सम होती है। क्रम से विट्ट, पित्त कफ व अनिल (वात) का निष्कासन होता है। कोष्ठ रिक्त हो जाता है।
◾अयोग लक्षण –
स्यात्श्लेष्मपित्तानिल संप्रकोप: सादस्तथाग्नेर्गुरुता प्रतिश्याय। तंद्रा तथा छर्दिरोचक वातानुलोम्यं न च दुर्विरिक्ते। (च. सि. 1/18)
विरेचन का अयोग होने पर कफ, पित्त व वात का प्रकोप होता है। गुरुत्व बना रहता है। प्रतिश्याय, तंद्रा, अरुचि तथा वमन होता है। कोष्ठ रिक्त नहीं होता तथा वात का अनुलोमन भी नहीं होता।
◾अतियोग लक्षण –
कफास्नपित्तक्षयजानिलोत्थाः सुप्त्यंगमर्द क्लमवेपनाद्या:।निद्रा बलाभावतमः प्रवेशाः सोन्माद हिक्काश्च विरेचितेऽति । (च. सि. 1/19)
विरेचन का अतियोग होने से पित्त का क्षय तथा वात का प्रकोप होता है। अंगों में पीड़ा व क्लम (आलसपन) होता है। निद्रा व बल का अभाव होता है। तम दोष का प्रवेश होता है तथा उन्माद व हिक्का की उत्पत्ति होती है।
3. नस्य
◾ सम्यग योग –
लाघवः शिरसो योगे सुख स्वप्न प्रबोधन। विकारोपशमः शुद्धिरिंद्रियाणां मनः सुखम्॥ (सु. चि. 40/33)
नस्य का सम्यक योग होने पर लघुता उत्पन्न होती है तथा निद्रा सही प्रकार से आने पर अच्छे स्वपन दिखते है। विकारों का शमन होता है। इन्द्रियां शुद्ध होती है तथा प्रसन्नता रहती है।
◾अयोग लक्षण –
अयोगे वातवैगुण्यमिद्रियाणां च रुक्षता। रोगाशांतिश्च तत्रेष्टं भूयो नस्यं प्रयोजयेत्।। (सु. चि. 40/35)
नस्य का अयोग होने पर वात इन्द्रियों में वैगुण्य उत्पन्न करता है। रोगों की शांति नहीं होती तथा शरीर रुक्ष रहता है।
◾अतियोग लक्षण –
कफः प्रसेकः शिरसो गुरुतेन्द्रिय विभ्रमः। लक्षणं मूर्ध्यंति स्निग्धे रुक्षं तत्रावचारयेत्।। (सु. चि. 40/34)
कफ की न वृद्धि होती है न ही हृास। शिर में गुरूता का अनुभव होता है तथा इन्द्रियां भ्रमित रहती हैं। मूर्धा (तालु) कभी स्निग्ध रहता है व कभी रूक्ष रहता है।
4. रक्त मोक्षण
◾ सम्यग योग –
लाघवं वेदना शांति: व्याधिवेग परिक्षयः सम्यग् विस्त्राविते लिङ्गं प्रसादो मनस्तथा।। (सु. सू. 14/33)
रक्त मोक्षण का सम्यक योग होने पर लघुता की प्रतीति होती है। वेदना शांत होती है तथा व्याधि का शमन होता है। मन प्रसन्न होता है।
◾अयोग लक्षण –
तद्दुष्टशोणितम् अनिह्रीयमाणं कण्डू शोफ दाह राग पाकवेदना जनयेत्।। (सु. सू. 14/29)
रक्तमोक्षण का अयोग होने पर दूषित रक्त शरीर के अंदर ही रहकर कण्डू, शोथ, दाह, पाक व वेदना होती है।
◾अतियोग लक्षण –
तदतिप्रवृत्तं शिरोऽभितापमांध्यमधिमंथ तिमिर प्रादुर्भावं धातु क्षयमाक्षेपकं दाह पक्षाघातमेकांगविकारं हिक्का श्वासकासौ पांडुरोगं मरणंचापादयति।। (सु. सू. 14/30)
रक्तमोक्षण का अतियोग होने पर शिर में ताप, अंधापन, अधिमंथ (नेत्र रोग), तिमिर (नेत्र रोग), धातु क्षय, आक्षेप (Convulsions), दाह, पक्षाघात, एकांग विकार, हिक्का, श्वास, कास व पांडु आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
5. निरूह बस्ति
◾ सम्यग योग –
प्रसृष्ट विण्मूत्र समीरणत्वं रुच्यग्नि वृद्ध्याशय लाघवानि। रोगोपशांतिः प्रकृतिस्थता च बलंचतत्स्यात् सुनिरूढलिङ्गम्।। (च. सि. 3/41)
निरूह बस्ति का सम्यक योग होने पर विट्ट व मूत्र का निर्हरण होता है। अग्नि वृद्धि, आशयों में लघुता व रोगों की शांति होती है। दोष अपनी प्राकृतिक स्थिति में विद्यमान होते हैं।
◾अयोग लक्षण –
स्याद्रुग्शिरोहृद गुदवस्ति लिंगे शोफः प्रतिश्याय विकर्तिके च। हृल्लासिका मारुत मूत्रसंग: श्वासो न सम्यग् च निरूहिते स्युः।। (च. सि. 1/42)
निरूह बस्ति का अयोग होने पर गुदा, वस्ति व लिंग में शोथ उत्पन्न हो जाता हैं। प्रतिश्याय, श्वास, मूत्रसंग व ह्रल्लास आदि अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है।
◾अतियोग लक्षण –
लिंगं यदेवाति विरेचितस्य भवेत्तदेवाति निरूहितस्य। (च. सि. 1/43)
निरूह बस्ति के अतियोग के लक्षण विरेचन के अतियोग के समान है।
(विरेचन का अतियोग होने से पित्त का क्षय तथा वात का प्रकोप होता है। अंगों में पीड़ा व क्लम (आलसपन) होता है। निद्रा व बल का अभाव होता है। तम दोष का प्रवेश होता है तथा उन्माद व हिक्का की उत्पत्ति होती है।)
6. अनुवासन बस्ति
◾ सम्यग योग –
सानिलः सपुरीषश्च स्नेहः प्रत्येति यस्य तु। ओष चोषौ विना शीघ्रं स सम्यगनुवासितः।। (सु. चि. 37/67)
अनुवासन बस्ति का सम्यक योग होने पर दिया गया स्नेह वायु व पुरीष के साथ उचित समय पर (within 9 hours) गुदा द्वारा बहिर्गमन करता है। दाह व वेदना उत्पन्न नहीं होती।
◾अयोग लक्षण –
अधः शरीरोदरबाहुपृष्ठपार्श्वेषु रूग्रूक्षखरं च गात्रम् । ग्रहश्च विण्मूत्रसमीरणानाम सम्यगेतान्यनुवासितस्य ।। (च.सि. 1/45)
अनुवासन बस्ति का अयोग होने पर शरीर के अधो भाग (उदर, बाहु, पृष्ठ, पार्श्व) में रूक्षता व खरता उत्पन्न होती है। विट्ट, मूत्र व पुरीष का बहिर्गमन नहीं होता।
◾अतियोग लक्षण –
हल्लासमोहक्लमसादमूर्च्छा विकर्तिकाचात्यनुवासितस्य ।। (च.सि. 1/46)
अनुवासन बस्ति का अतियोग होने पर हृल्लास, मोह, क्लम, मूर्च्छा व विकर्तिका आदि अनेक उपद्रव होते हैं।
3 replies on “पंचकर्मों के सम्यग योग, अयोग और अतियोग लक्षण”
Explation in English will be helpful rather than in hundi
We are working on English versions too, Ayurveda in Hindi and English both are equally important according to us
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