दुष्ट त्वचा, मांस आदि को स्वस्थान से दूर करता, काट कर हटाता है, उसे क्षार (Kshar) कहते हैं। बहुत से आचार्यों ने इसका वर्णन अपनी संहिताओं में किया है:-
- सुश्रुत संहिता = सूत्र स्थान 11, उत्तर तंत्र 42, गुल्म चिकित्सा अध्याय
- अष्टांग संग्रह = सूत्र स्थान 39
- अष्टांग हृदय = सूत्र स्थान 30
- चक्रदत्त अध्याय 5
- भैषज्य रत्नावली 9
क्षार:
क्षार निरूक्ति:-
‘क्षर स्यन्दने‘ ‘क्षण हिंसायां, धातु से क्षार (Kshar) शब्द की उत्पत्ति हुई है।
क्षार किसे कहते हैं:-
क्षरणाद् दुष्टत्वङ्मांसादि चालनात्, शातनात् इत्यर्थ ।।(सु.सू. 11/4 डल्हण)
दुष्ट त्वचा, मांस आदि को स्वस्थान से दूर करता, काट कर हटाता है उसे क्षार (Kshar) कहते हैं ।
छित्वा छित्वाऽऽशयात् क्षारः क्षरत्वात्क्षारयत्यधः ।। (च.चि. 5/58)
जो क्षरण स्वभाव होने के कारण शरीर के विभिन्न आशयों से धातुओं को काटकर गिराता है, उसे क्षार कहते हैं।
क्षार के गुण:-
नैवातितीक्ष्णो न मृदुः शुक्लः श्लक्ष्णोऽथ पिच्छिलः। अविष्यन्दी शिवः शीघ्रः क्षारो ह्यष्टगुणः स्मृतः ।। (सु.सू. 11/18)
नातितीक्ष्ण, नातिमृदु स्वरूप का, शुक्लवर्णी, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, अविष्यन्दी, शिव, शीघ्र; ये 8 गुण आचार्य सुश्रुत ने बताए हैं। आचार्य वाग्भट ने इसके अलावा शिखरी एवं न चातिरूक ये 2 अधिक गुण बताकर क्षार के कुल 10 गुणों का वर्णन किया है।
त्रिदोष नाशक, सौम्य (श्वेत रंग होने के कारण), अप्रतिहत शक्ति, कटु, उष्ण, तीक्ष्ण, विलयन, शोधन, रोपण, शोषण, स्तंभन, लेखन होता है। कृमि, आम, कफ, कुष्ठ, विष, मेद नाशक।
अधिक प्रयोग करने पर पुरुषत्व का नाश करता है।
क्षार के दोष:-
अतिमार्दवश्वैत्यौष्ण्यतैक्ष्णपैच्छिल्यसर्पिताः । सान्द्रताऽपक्वता हीनद्रव्यता दोष उच्यते ।। (सु.सू. 11/19)
अधिक मृदु, अधिक श्वेत, अधिक उष्ण, अधिक तीक्ष्ण, अधिक पिच्छिल, अधिक फैलने वाला, अधिक सान्द्र, जिसका पूर्णतः पाचन न हुआ हो तथा जिसमें शास्त्रोक्त औषधि का उपयोग नहीं किया गया हो, ये क्षार के दोष बताए गये हैं।
क्षार के भेद:-
स द्विविधः प्रतिसारणीयः, पानीयश्च ।। (सु.सू. 11/6)
प्रतिसारणीय क्षार (local application) | पानीय क्षार (internal application) | |
उपयोग (Indications) | कुष्ठ, किटिभ, दद्रु, मण्डल, किलास, भगन्दर, अर्बुद, अर्श, दुष्टव्रण, नाड़ी, चर्मकील, तिलकालक, न्यच्छ, व्यंग, मशक, बाह्यविद्रधि, कृमि, विष, उपजिह्वा, अधिजिह्वा, उपकुश, दन्तवैदर्भ और रोहिणी एवं 9 प्रकार के मुखरोगों। | कृत्रिम विष (गरविष), गुल्म, उदर, अग्निसंग, अजीर्ण, अरोचक, आनाह, शर्करा, अश्मरी, आभ्यन्तर विद्रधि, कृमि, विष और अर्श। |
वर्ज्य (Contra indications) | रक्तपित, ज्वर, पित्तप्रकृति, बालक, वृद्ध, दर्बल व्यक्तियों में तथा भ्रम, मद, मूर्च्छा और तिमिर डरपोक, सर्वांग शोथी, उदर रोगी, गर्भिणी, रजस्वला स्त्री, प्रमेह, उर:क्षत, तृष्णा, नपुंसक तथा गर्भाशय भ्रंश के रोगियों में | |
वर्ज्य स्थान | मर्मस्थान, सिरा, स्नायु, तरूणास्थि, सेवनी, धमनी, गला, नाभि, नखान्त प्रदेश, शिश्न के भीतर, स्रोतसों में, अल्पमांस युक्त स्थान में तथा/ वर्त्मगत रोग के अलावा नेत्र की अन्य सभी व्याधियों में क्षार का प्रयोग न करें। |
क्षार बनाने की विधि:-
प्रतिसारणीय मृदु क्षार –
- शरद ऋतु में उत्तम दिन में गिरी शिखर की प्रशस्त भूमि में उत्पन्न प्रशस्त रस, गुण, वीर्य, विपाक वाले मध्यम आयु के कृष्ण पुष्प वाले (मोखे) को मंत्रादि से अभिमंत्रित कर छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित कर वायु रहित स्थान में संचित कर के, उस पर चूने के छोटे-छोटे कंकड़ डालकर, तिलनाल से अग्नि प्रदीप्त कर देनी चाहिए।
- अग्नि स्वागंशीत होने के पश्चात् भस्म (राख) निकाल लें। चूने के छोटे छोटे कंकड़ उस भस्म से निकालकर अलग रखें।
- इस तरह जलाने के बाद बनी भस्म को 1 द्रोण लेकर 6 द्रोण जल में आलोडित करे अर्थात घोल देवें। (भस्म:जल = 1:6) (तीक्ष्ण क्षार करने के लिए जल के स्थान पर गोमूत्र ले)
- भस्म मिलाएँ तत्पश्चात् इस घोल को इक्कीस (21) बार वस्त्र की सहायता से छान लें। तत्पश्चात् छनित घोल को एक बड़ी कड़ाही में कलछी से धीरे-धीरे चलाते हुए पाक करना चाहिए।
- पकाते-पकाते जब वह निर्मल, लाल रंग का तीक्ष्ण और पिच्छिल दिखाई देने लगे तब कड़ाही को अग्नि से नीचे उतार कर वस्त्र से पुनः छान लेना चाहिए।
- छनित द्रव में से एक अथवा डेढ़ कुडव क्षार जल निकालकर शेष को पुनः अग्नि पर चढ़ा देना चाहिए। इसे संव्यूहिम भी कहते हैं।
अष्टांग संग्रह में वृक्ष को इखट्टा करने के लिए विस्तृत वर्णन किया है।
उपयोग :- पित्तज व रक्तज अर्श, बल वृद्धि (क्षार निकाला हुआ जल में जल मिलाकर दे।
प्रतिसारणीय मध्यम क्षार –
उपरोक्त क्षार जल में कट्शर्करा, भस्म शर्करा, जलशुक्ति, शंख की नाभि को अग्नि में रक्त तप्त कर बुझाएँ तथा उसी क्षार जल से पीसकर दो द्रोण क्षार जल में आठ पल शंख नाभि आदि को क्षार जल में मिला कर पाक करें। पाक होने पर लोहे के कुम्भ में रख कर मुख बंद कर दें। इस प्रकार यह मध्यम क्षार की निर्माण विधि है।
उपयोग :- क्षार साध्य रोग
प्रतिसारणीय तीक्ष्ण क्षार –
उपरोक्त क्षार जल में दन्ती, द्रवन्ती, चित्रक, लांगली, पूतिक, ताडपत्री, विडलवण, सुवर्चिका, कनकक्षीरी, हींग, वचा, अतिविषा- इन्हें समान प्रमाण में लेकर शुक्ति मात्रा में क्षार जल में डालकर पाक करने से तीक्ष्ण क्षार बनता है।
या
कूड़ा, पलाश, अश्वकर्ण (शाल), निम्ब, बहेड़ा, अमलतास, तिल्वक, अर्क, स्नुही, अपामार्ग, पाटला, नक्तमाल, (करंज), अडुसा, कदली, चित्रक, पूतिक, इन्द्रवृक्ष, सारिवा, कनेर, सप्तपर्ण, अरणी और 4 प्रकार की कोषातकी को जलाकर भस्म करे और क्षार निर्माण करें।
उपयोग :- वातज, कफज व मेदोज अबुर्द
आचार्य चक्रदत्त के अनुसार प्रतिसारणीय क्षार अत्यंत पतला अथवा अत्यंत गाढ़ा नहीं होना चाहिए।
मृदु, मध्यम, श्रेष्ठ क्षार:-
- मृदु = शंख नाभी ¼ डालने पर
- मध्य = शंख नाभी ⅛ डालने पर
- श्रेष्ठ = शंख नाभी ¹/16 डालने पर
मात्रा:-
- हीन/ पित्तज व्याधि :- नखोत्सेध
- मध्यम/ श्लेष्मज :- द्विगुनी
- उत्तम/ वातज :- तिगुनी
पानीय क्षार बनाने की विधि:-
तिल, तालमखाना, पलाश, सरसों, यव नाल तथा मूलक का सम प्रमाण में भस्म करें। गाय, बकरी, भेड़, गधा, हाथी, भैंस, इनके षड्गुण अथवा चर्तुगुण मूत्र में उपरोक्त भस्म सम्मिश्रित कर छान लें। तत्पश्चात छाने हुए क्षारोदक में कुष्ठ, सैंधव, यष्टीमधु, शुण्ठी, अजमोदा, आदि द्रव्य प्रत्येक 1 पल प्रमाण में चूर्ण स्वरूप में लेकर उसमें सामुद्र लवण 10 पल मिलाकर मंदाग्नि पर लोहपात्र में अवलेह स्वरूप प्राप्त होने तक पाचन (पाक) करें।
क्षार रखने का पात्र-
आचार्य चक्रदत्त के अनुसार लोह पात्र का उपयोग करने चाहिए क्योंकि इससे शक्ति का वर्धन होता है, तपाने के लिए भी अच्छी है।
अनुपान-
दही, सुरा, घृत, धान्याम्ल, उष्णोदक अथवा कुलत्थ क्वाथ।
मात्रा-
पानीयक्षारोदकप्रमाणमुत्तमा मात्रा पलं, मध्यमा कर्षत्रयम्, अधमा अर्धपलम् ।
- उत्तम मात्रा = 1 पल
- मध्यम मात्रा = 3 तोला
- हीन मात्रा = ½ पल
क्षार की शक्ति वर्धन-
क्षार (Kshar) की शक्ति बढ़ाने के लिए या पुन: वीर्यवान बनाने के लिए क्षारोदक में डाल दे। (सु.सू. 11/17)
कर्म:
कर्म निरुक्ति व परिभाषा :-
क्रियते इति कर्म।
जो किया जाए उसे कर्म कहते है।
प्रयत्नादि कर्म चेष्टितमुच्यते ।
प्रयत्न आदि चेष्टा को कर्म कहा जाता है।
प्रवृत्तिस्तु चेष्टा कार्यार्था, सैव क्रिया प्रयत्नः कार्यसमारम्भश्च । (च.वि. 8)
किसी कार्य को सिद्ध करने के लिए जो प्रवृत्ति, क्रिया या चेष्टा होती है, उसे कर्म कहते हैं। वही ‘कार्य-समारम्भ’ नाम से भी कहा जाता है।
क्षार कर्म:
क्षार द्वारा जो कार्य किया जाता है उसे क्षार कर्म (Kshar karma) की संज्ञा दी जाती है।
महत्त्व:-
शस्त्रानुशस्त्रेभ्यः क्षार प्रधानतमः, छेद्यभेद्यलेख्यकरणात, त्रिदोषघ्नत्वात्, विशेष क्रियाऽवचारणाच्च । (सु.सू. 11/3)
- क्षार शस्त्रों एवं अनुशस्त्रों में सबसे मुख्य है, अर्थात् जहाँ शस्त्रों एवं अनुशस्त्रों का प्रयोग किसी कारणवश सम्भव न हो, उस रोग की चिकित्सा क्षार द्वारा सुविधापूर्वक की जा सकती है।
- यह छेदन, भेदन, लेखन इत्यादि क्रियाएँ करने में समर्थ है। सामान्यतया ये क्रियाएँ शस्त्रों एवं अनुशस्त्रों द्वारा सम्पादित की जाती हैं, अतः यह क्षार का विशिष्ट गुण है।
- क्षार मुख द्वारा सेवन करने पर त्रिदोषघ्न होने के कारण दोषों का शमन करने में समर्थ है।
- इसका प्रयोग स्थानिक के साथ-साथ आभ्यन्तर रूप से भी किया जा सकता है।
क्षार कर्म के अयोग्य:-
तत्र क्षारसाध्येष्वपि व्याधिषु शूनगात्रमस्थिशूलिनमन्नोद्वेषिणं हृदयसंधिपीड़ोपद्रुतं च क्षारो न साधयति ।। (सु.सू. 11/32)
क्षार कर्म साध्य व्याधियों में जिसका शरीर शोथ युक्त होता है, अस्थियों मे शूल होता है, जो अन्न का द्वेष करता है तथा हृदय एवं सन्धियों में पीड़ा होना; उन्हें क्षार कर्म (Kshar karma) से कोई लाभ नहीं होता।
क्षार प्रयोग विधि:-
पूर्व कर्म-
- रोग व रोगी परीक्षा।
- सामग्री संकलन।
- दोष अनुसार
- वात के स्थान पर लेखन
- पित्त के स्थान पर घर्षण
- कफ के स्थान पर प्रच्छान
प्रधान कर्म-
- लगभग 1 मिनिट तक क्षार का प्रतिसारण करना चाहिए
- दग्ध स्थान परीक्षा ।
पश्चात कर्म-
- क्षार दग्घ स्थान पर अम्लकांजिक बीज, तिल, मुलेठी सम प्रमाण में लेप करे।
- दग्ध स्थान इससे विदीर्ण हो जाता है व वर्ण का रोपण भी हो जाता है।
- अभिश्यंदी खाना खाने के लिए दे, यह करने से क्षार दग्ध स्थान को अलग करने के लिए
- अगर क्षार दग्ध स्थान विदीर्ण न हो तो –
- स्वर्णक्षीरी का लेप करे
- त्रिवृत व विडंग का लेप करे
- मालती, वासा, अंकोल, नीम, आस्फोटा, पाटली, कनेर के पत्तो के क्वाथ के साथ वर्ण को धोए।
क्षार दग्ध के लक्षण:-
सम्यक् दग्ध लक्षण-
तत्र सम्यग्दग्धे विकारोपशमो लाघवमनास्त्रावश्च । (सु.सू. 11/28)
- व्याधि का नाश होकर वह स्थान कृष्णवर्णी हो जाता है, अंगो में लघुता, दग्धस्थान से स्राव का बंद हो जाना।
हीनदग्ध लक्षण-
हीनदग्धे तोदकण्डुजाड्यानि व्याधिवृद्धिश्च । (सु.सू. 11/28)
- सुई चुभने जैसी वेदना, कण्डु, उस स्थान की जड़ता, व्याधि वृद्धि के लक्षण होते हैं।
- अष्टांगहृदयकार के अनुसार ताम्रवर्णता। हीनदग्ध के स्थान पर पुनः क्षारकर्म (Kshar karma) करने का निर्देश आचार्य वाग्भट ने किया है।
अतिदग्ध लक्षण-
अतिदग्धे दाहपाकरागस्रावांगमर्दक्लमपिपासामूर्च्छाः स्युर्मरणं वा ।। (सु.सू. 11/28)
- क्षार द्वारा अतिदग्ध हाने पर दाह, पाक, राग (लालिमा), पूयादि स्राव, अंगमर्द, ग्लानि, अतिरक्तस्त्राव, ज्वर, पिपासा, मूर्च्छा तथा मरण तक हो सकता है।
- नेत्र – पलको का फटना, देखने की शक्ति का नाश
- नाक – नासावंश, तरुणस्थि का फटना, संकोच, गंधनाश होना
- गुद – मल मूत्र का अवरोध, अतिसार, पुरुषत्व नाश, गुद का फटना, सदा के लिए शोथ, तोंद, वेदना, स्त्राव, मल मूत्र को रोकने को शक्ति खत्म हो जाना।
अतिदग्ध चिकित्सा-
घी, मधु का लेप बार बार करें।
क्षार कल्पनाएं:-
- वर्ति :- सूक्ष्म कोटर रोगो में उपयोग। जैसे:- नाड़ी व्रण, भगंदर आदि।
- तैल :- कर्ण बाधिर्य, कर्णनाद, कर्ण से दारुण पूयस्राव, कर्ण में कृमि तथा कर्णशूल
- पिचु :- दुष्ट व्रण, योनि रोग
- सूत्र :- दुर्बल शरीर वाले तथा शस्त्रकर्म से भीरू व्यक्ति के तथा मर्मस्थान में उत्पन्न नाड़ीव्रण।
क्षार तैल बनाने की विधि:-
शुष्क मूली का क्षार, हिंगु, शुण्ठी, शतपुष्पा, बचा, कुष्ठ, देवदारु, शिग्रु त्वक्, रसांजन, सौर्वचल, यवक्षार, सज्जीक्षार, औद्भिद्, लवण, सैंधव लवण, भोजपत्र वृक्ष की गाँठ, विड् लवण और नागरमोथा – इन सभी द्रव्यों को समान भाग लेकर कल्क तैयार करें, तैल से चार गुना मधु शुक्त लें, बिजौरा नींबू का स्वरस और केले के स्तम्भ का स्वरस ये दोनों तैल के बराबर लें। इन सभी को मिलाकर तैल पाक करें। इसे क्षार तैल कहते हैं।
क्षार साधन:-
काला मोथा, शंखभस्म 16 तोला, सज्जीक्षार 1 शुष्क तोला, यवक्षार 1 तोला, शुण्ठीचूर्ण 1 तोला, मरिचचूर्ण 1 तोला, बड़ी पीपर 1 तोला, वचचूर्ण 1 लेना 4 तोला, अतीसचूर्ण 1 तोला, शुद्ध हींग 1 तोला, चित्रक 1 तोला लें। सूखा काला मोथा 10 किलो जलाकर राख प्राप्त करें। ऐसी जली राख 3 किलो लेकर 13 लीटर जल में घोलें और कपड़े से 4-5 बार छानकर मन्दाग्नि से पाक करें। पाक करते समय 1 कुडव शंख भस्म मिलाकर चलाते रहें। जब गाढ़ा होने लगे तब सभी 9 औषधियों का सूक्ष्म चूर्ण मिलाकर दव से अच्छी तरह मिलाकर कांचपात्र में सुरक्षित रख लें। अग्नि के समान तीक्ष्ण इस क्षार को काश्यपादि ऋषियों ने कहा है।
क्षार सूत्र बनाने की विधि :-
भावितं रजनीचूर्णै: स्नुहीक्षीरे पुनः पुनः ।बन्धनात् सुदृढं सूत्रं भिनत्यर्शो भगन्दरम् ।। (चक्रदत अर्श चिकित्सा 5/148)
स्नुही क्षीर में हरिद्रा चूर्ण मिलाकर उसमें कपास का सूत्र (धागा) अनेक बार भावित करें। इस सूत्र का यथा विधि अर्श एवं भगन्दर में उपयोग किया जा सकता है।
क्षार जल:-
नादेयां, कुड़े का छाल, आक की जड़, सहिजन की छाल, कटेरी, थूहर, बेल की छाल, भिलावा की जड़, छोटी कटेरी, ढाक, फरहद की जड़, लटजीरा, कदम्ब, चित की जड़, अडूस, मोखा तथा पाढ़ल इनके चूर्ण को सेंधा नमक के साथ मिला भस्म बनाकर 6 गुने पानी में 21 बार छान कर क्षार (Kshar) की विधि से पाक करना चाहिए।
क्षार गुटिका:-
यवक्षार, सज्जीखार, चारों नमक (सोंचरनमक, सेंधानमक, विडनमक, साभरनमक), लौहभस्म, सोंठ, पीपर, मरिच, आँवला, हरड़, बहेड़ा, पिपरामूल, वायविडङ्ग, मोथा, अजमोदा, देवदारु, बेल की गुद्दी, इन्द्रयव, चित्रकमूल,पाठा, मुलेठी, अतीस, इन प्रत्येक द्रव्यों को 1-1 पल की मात्रा में लेकर कपड़छान चूर्ण बना लिया जाय। बाद में घी में पूरी हुई हींग 1 कर्ष की मात्रा में मिलाकर रख लिया जाय। इसके बाद सूखी हुई मूली की राख 1 द्रोण को चौगुने जल में घोलकर 21 बार छान लिया जाय। अब उसी जल में उपर्युक्त चूर्ण को मिलाकर घोल बना मन्द आग पर पकाया जाय। जब पकते-पकते घना हो जाय, पर जले नहीं, तो उतार कर बेर के समान गुटिका बना सुखाकर रख लें।
क्षार कर्म व वैद्य:-
विषाग्निशस्त्राशनिमृत्युकल्पः क्षारो भवत्यल्पमतिप्रयुक्तः ।स धीमता सम्यगनुप्रयुक्तो रोगान्निहन्याचिरेण घोरान्।। (सु.सू. 11/33)
अल्पमति वैद्य से उपयोग किया हुआ क्षार (Kshar); विष, अग्नि, शस्त्र तथा वज्र के समान मृत्युकारक होता है और बुद्धिमान वैद्य से ठीक-ठीक उपयोग किया हुआ वही क्षार शीघ्र ही दारुण रोगों को नाश कर देता है।