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Shotha | शोथ : Symptoms, Treatment – Modern correlation

शोथ (Shotha) या ‘श्वयथ्‘ शब्द ‘टुओश्वि-गतिवृद्ध्योः‘ से ‘टुओ’ की इत्संज्ञा कर शिव से वृद्धि अर्थ में अथुच् प्रत्यय लगाने पर ‘श्वयथु‘ शब्द बनता है, जिसका अर्थ= बढ़ा हुआ होता है।

शोथ किसे कहते हैं:-

शोथ/Shotha (swelling/ oedema) के समान कारणों वाले जो ग्रन्थि, विद्रधि, अलजी आदि रोग हैं तथा जिनकी आकृतियाँ भी अनेक प्रकार की हैं। उनसे भिन्न, पृथु, ग्रथित, सम या विषम, त्वचा और मांस के आश्रित एक, दो या तीनों दोषों का समूह और शरीर के किसी भी स्थान पर होने वाला उभार ‘शोफ’ कहलाता है।

पर्याय/ Synonyms :-

शोफ, श्वयथु:

भेद/ Types :-

  • वात आदि दोष के कारण = 7 भेद
  • निज व आगंतुज शोथ (Shotha)
  • एकांग, अर्धांग व सर्वांग शोथ
    • आचार्य सुश्रुत के अनुसार सर्वांग शोथ के 5 प्रकार होते है, अंग विशेष के 6 प्रकार बताए है।
  • आचार्य वाग्भट्ट ने 9 भेद रक्तज व विषज भी बताए है।
  • आचार्य भावप्रकाश ने 10 भेद बताए है।

निज शोथ के निदान/ Etiology :-

  • वमन, विरेचन आदि संशोधनों की व्यापत्ति हो जाने के कारण होने वाले ज्वर आदि रोग।
  • उपवास करना अथवा अविधि से भोजन करना से जो अधिक कृश और अबल हो गए हो
  • यदि क्षार, अम्ल, तीक्ष्ण, उष्ण और गुरु अन्न का सेवन करते हैं।
  • दही, कच्चा अन्न अर्थात् अपक्व अन्न, मिट्टी, कच्चा साग, विरोधी अन्न, दुष्ट अन्न, कृत्रिम विष से मिले अन्न सेवन करते है
  • अर्श रोग से पीड़ित
  • आलस्य युक्त होकर दिन रात बैठे रहने से।
  • पंचकर्म व स्नान नहीं करते है जो।
  • मर्म स्थान पर चोट लगी हो
  • जिस स्त्री के 2-4 एक साथ मूढ़गर्भ हुए हो

आगंतुक शोथ के निदान :-

  • किसी पत्थर, शस्त्र से आघात लगने से।
  • विष आदि से बाहरी त्वचा में प्रकूपित दोष के कारण

सर्वांग शोथ के निदान :-

  • अत्यंत तृप्त होकर चलने से
  • अधिक मात्रा में गुरु, हरी सब्जी का साग, नमकीन भोजन, खट्टे पदार्थ खाने से
  • मिट्टी से पके हुए टिकरे, अजीर्ण से, विरुद्ध भोजन से
  • अति स्त्री प्रसंग से

सम्प्राप्ति/ Pathogenesis :-

दूषित वायु बाहरी सिराओं मे जाकर कफ, रक्त, पित्त को दूषित कर देता है।

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दूषित व अति वृद्ध कफ, रक्त, पित्त- वायु का मार्ग रोक देते है, रुकी हुई वायु इधर-उधर गमन करती है

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त्वचा व मांस को आश्रित कर उबार कर शोथ (Shotha) उत्पन्न होता है।

Shotha surrounding eye region
Shotha surrounding eye region
  • दोष उर: प्रदेश (आमाशय आचार्य सुश्रुत अनुसार) में संचित हो तो ऊपर के भाग में शोथ उत्पन्न होता है
  • दोष वात के स्थान में संचित होता है तो अध: भाग में शोथ उत्पन्न होता है – घातक होता है
  • मध्य भाग (पक्वाशय) में दोष संचित हो तो मध्य भाग में शोथ (Shotha) उत्पन्न – कष्टसाधय
  • सर्वांग में दोष संचित हो तो सर्व शरीर में शोथ, व इसी प्रकार एकांग, व अर्धाग।

सम्प्राप्ति चक्र :-

निदान सेवन➡️ दोष प्रकोप➡️ अग्नि मंद➡️ आम उत्पत्ति➡️ संगात्मक उदकवह स्त्रोतस दुष्टि➡️ त्वचा एवं मांस विमार्गगमन➡️ शोथ (Shotha)

पूर्व रूप/ Prodromal Symptoms :-

  • ऊष्मा वृद्धि, इंद्रियों में ताप महसूस होना
  • सिराओ में तनाव होना
  • अंग गौरव (माधव निदान)

लक्षण/ Symptoms :-

  1. अक्रांत स्थान पर भारीपन
  2. शोथ की अस्थिरता (कभी बढ़ना कभी घटना, कभी दूसरे स्थान पर चले जाना)
  3. ऊष्मा
  4. सिराओं का पतला हो जाना
  5. रोमांच
  6. अंग का रंग बदल जाना

वातज शोथ के लक्षण :-

  • शोथ (Shotha) की अस्थिरता, त्वचा पतली, खुरदरी, लाल या काली रंग की हो जाती है
  • त्वचा में शून्यता, रोमांच और सुई चुभने के समान वेदना होती है
  • बिना कारण शांत होने वाली
  • शोथ को दबाने पर शोथ दब जाता है पर पुन: शीघ्र उठ जाता है।
  • दिन में अधिक उपद्रव हो जाते है व रात को शांत हो जाते हैं।

पित्तज शोथ के लक्षण :-

  • स्पर्श में कोमल, गंध युक्त, काले या पीले रंग की।
  • भ्रम, ज्वर, स्वेद की अधिकता, तृष्णा और मद होता हो।
  • दाह, स्पर्श में वेदना, रोगी के नेत्र रक्त वर्ण का होना
  • अधिकतर पक जाने वाली शोथ, मध्य भाग में अधिक मिलती है
  • शीघ्र फैलने वाली, शीतल आहार-विहार खाने की इच्छा, अतिसार होना।
  • स्वेद होना

कफज शोथ का लक्षण :-

  • गुरु, स्थिर व पाण्डु वर्ण का शोथ (Shotha)
  • अरुचि, मुख से थूक निकालना, वमन, अग्नि मंद
  • निद्रा, अग्नि मंद उत्पन्न हो
  • देर से उत्पन्न और कठिनता से शांत होता है
  • हाथ से दबाने पर दब जाती है, देर से उठता नहीं है।
  • रात्रि को अधिक तंग करता है।

असाध्य लक्षण :-

  • कृश व्यक्ति व दुर्बल व्यक्तियों में
  • वमन आदि उपद्रव युक्त या मर्म स्थान पर
  • सिरा जाल से भरा हुआ शोथ, जल का स्त्राव होता हो
  • सर्वांग शोथ
  • स्त्रियों मे ऊपर से नीचे जाने वाला शोथ मार डालता है व पुरुषों मे इससे उलटा होता है। (आचार्य सुश्रुत सू. 43/132)

साध्य लक्षण :-

  • मांस क्षीण न हुआ हो
  • एक दोष से उत्पन्न शोथ
  • बलवान व्यक्ति में हुआ हो

आम शोथ के लक्षण :-

तत्र मन्दोष्मता त्वक्सवर्णता शीतशोफता स्थैर्यं मन्दवेदनताऽल्पशोफता चामलक्षणमुद्दिष्टम् ।। (सु.सू. 17/7)

  • शोथ (Shotha) का स्थान कुछ गरम होना,
  • उस स्थान की त्वचा का अन्य स्थान की त्वचा से समानवर्णता,
  • शीत स्पर्श,
  • स्थिरता,
  • अल्प पीड़ा
  • अल्पशोफता

पच्यमान शोथ के लक्षण :-

इसमें दिखाई देने वाले लक्षणों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है= 1) स्थानिक लक्षण 2) सार्वदैहिक लक्षण

  1. स्थानिक लक्षण –
    • पीड़ा : रोगी को विभिन्न प्रकार की वेदनाओं का अनुभव होता है, जैसे- सूईयों के चुभोने की पीड़ा के समान, चीटियों से काटे जाने के समान, चीटियों के शरीर पर चलने के समान, शस्त्र से काटे जाने के समान, शक्ति शस्त्र से भेदन करने के समान, डण्डे या लकड़ी से पीटे जाने के समान, हाथ से दबाए जाने के समान, अंगुलियों द्वारा मले जाने के समान, अग्नि से जलाये जाने और क्षार से पकाऐ जाने के समान जहाँ प्रतीत होता हो एवं ओष (एक भाग में दाह), चोष (पास में रखी अग्नि के समान दाह) तथा परिदाह (चारो ओर जलन) प्रतीत होती है। बिच्छू के काटे (वृश्चिकविद्ध) हुए के समान वेदना होती है।
    • रोगी को खड़े रहने, बैठने और लेटने से भी शान्ति नहीं मिलती है।
    • शोफ आध्मान युक्त वस्ति (फूली हुई मसक) की तरह तना हुआ प्रतीत होता है।
    • त्वचा में वर्ण भिन्नता ( Discoloration) प्रतीत होती है।
    • शोफ में आमावस्था से अधिक वृद्धि प्रतीत होती है।
  2. सार्वदैहिक लक्षण – ज्वर, दाह, पिपासा और भोजन में अरुचि आदि पच्यमान शोफ के लक्षण हैं। (सु.सू. 17/8)

पक्व शोथ के लक्षण :-

  • वेदना की शान्ति
  • पाण्डुता
  • अल्प शोफता
  • त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ना और दरार होना
  • अंगुलि के दबाने से त्वचा एवं मांस में गढ्ढा पड़ना तथा अंगुलि के हटाने पर पुन: गढ्ढे का भर जाना (Pitting on pressure)
  • अंगुलि से एक तरफ के भाग को दबाने पर मसक में भरे हुए पानी की तरह पूय के संचरण की दूसरे कोने पर प्रतीति होना (Fluctuation test)
  • बार-बार सूई चूभोने सी पीड़ा
  • कण्डू
  • शोफ के उभार का कम होना
  • उपद्रवों की शान्ति
  • भोजन करने की इच्छा होना (सु.सू. 17/9)

अपवाद/ Exception= कफजन्य शोथ में या अभिघातज शोथ में दोषों की गति गम्भीर होने के कारण कभी-कभी पक्वावस्था के सम्पूर्ण लक्षण दिखाई नहीं देने पर पक्व शोथ को भी अपक्व शोथ मानकर चिकित्सक मोहित (confused) हो जाता है। इसलिए ऐसी स्थिति में जहाँ त्वचा में सवर्णता, शोफ स्थान में शीतलता और स्थूलता तथा वेदना की अल्पता और अश्मवत् (पत्थर के समान) घनता दिखाई दे तो उसे पक्व शोथ समझकर चिकित्सा करनी चाहिए। – (सु.सू. 17/10) E.g. Breast abscess, Ischiorectal abscess etc.

चिकित्सा सूत्र/ Line of treatment :-

निदानदोषर्तुविपर्ययक्रमैरुपाचरेत्तं बलदोषकालवित् । (च. चिकित्सा 12/ 16)

बल, दोष और काल के ज्ञाता वैद्य को निदान, दोष, ऋतु के विपरीत आचरणों में चिकित्सा करनी चाहिए।

लङ्घनं पाचनं शोथे शिरःकायविरेचनम् । वमनं च यथासत्त्वं यथादोषं प्रकल्पयेत् ॥ (भै. र. 42/ 1)

शोथ रोग (Shotha) में रोग एवं रोगी के दोष एवं बलानुसार लंघन, पाचन, शिरोविरेचन, कायविरेचन और वमन कर्म कराना चाहिए।

Nasya Treatment in Shotha Roga
Nasya Treatment in Shotha Roga

सामान्य चिकित्सा/ Treatment :-

  • आम दोष के कारण शोथ हो तो = लंघन व पाचन
  • दोष अति बढ़े हो तो = संशोधन
  • शिर प्रदेश में हो तो = नस्य
  • अध: भाग में हो तो = विरेचन
  • उर्ध्व भाग में हो तो = वमन
  • अधिक स्नेह के कारण हो तो = रुक्ष चिकित्सा
  • वातज शोथ में मल बधता हो तो = निरूह बस्ति

शोथहर महाकषाय :-

आचार्य चरक ने अध्याय 4 के 38 वें महाकषाय के अंर्तगत शोथहर महाकषाय (दशमूल) का वर्णन किया है, जो की इस प्रकार है :-

  • पाढ़ल
  • अरणी (गनियार)
  • सोनापाठा
  • बेल
  • गम्भार
  • छोटी कटेरी
  • बड़ी कटेरी
  • सरिवन
  • पिठिवन
  • गोखरू

विदार्यादि तथा करमर्दादिगण को सुश्रुत ने शोथहर बताया है।

कफज शोथ की चिकित्सा :-

  • रुक्ष चिकित्सा
  • त्रिकटु, सफेद निशोथ, कटुकी, लोह भस्म, त्रिफला रस के साथ सेवन
  • गोमूत्र के साथ हरितकी सेवन
  • कफज शोथ में आरग्वधादिगण के क्वाथ से सिद्ध घृत
  • भल्लातकारीष्ट
  • अष्टशतारिष्ट
  • पटोलादि क्वाथ
  • अजाज्यादि चूर्ण
  • गुड अद्रक
  • गोमूत्र + गुग्गुलु
  • पिप्पली + गोदूध
  • आरग्वधादि तैल

वातज शोथ की चिकित्सा :-

  • स्नेहन, प्रदेह, परिषेचन, स्वेदन करना।
  • त्रिवृत्त स्नेह, एरंड तैल 15-30 दिन तक पिलाना चाहिए
  • बिजोरा व अग्निमंथ लेप
  • सोंठ, देवदारू, जटामांसी लेप
  • दशमूल क्वाथ
  • बीजपुरादि लेप
  • मूली उबालकर खाना

According to observation by Madanlal Sharma & Prabhudutt Sharma in 1974 Dashmool kwatha proved beneficial to 45% and started diuretic results in 4 days.

पित्तज शोथ चिकित्सा :-

  • पित्तज शोथ में न्यग्रोधादिगण के क्वाथ से सिद्ध घृत
  • शीत वीर्य द्रव्य लेप
  • पटोलादि क्वाथ
  • तिक्त घृत सेवन
  • मूर्च्छा, बेचैनी, तृष्णा, दाह होने पर केवल दूध सेवन
  • विरेचन के लिए दूध के साथ गोमूत्र सेवन
  • पृश्निपण्य्रादि क्वाथ
  • गोमूत्र
  • मानकंद चूर्ण
  • सिंहास्यादि क्वाथ
  • अभयादि क्वाथ
  • पुनर्नवाष्टक क्वाथ
  • पुनर्नवाव अवलेह

वात कफ शोथ चिकित्सा:-

वात पित्त शोथ चिकित्सा :-

  • त्रिकटु, सफेद निशोथ, दंती मूल, चित्रक को गौ दूध में पकाएं और छानकर पीएं
  • सोंठ, देवदारु क्वाथ से सिद्ध दूध
  • एक मास तक खाना, पानी छोड़कर 7 दिन या 1 मास तक ऊठनी का दूध पीये।
  • गो दूध में गौ मूत्र मिलाकर सेवन
  • दूध का आहार करते हुए गौमूत्र सेवन

सन्निपातज शोथ चिकित्सा :-

  • एक आढ़क सेहुँड के दूध और बारह आढ़क काञ्जी के साथ दन्ती कल्क के द्वारा सिद्ध घृत
  • बिल्व पत्र स्वरस + मरिच
  • त्रिकटु सेवन
  • पिप्पल्यादि चूर्ण
  • आर्दृकरसादि योग

अंग विशेष शोथ चिकित्सा :-

  • त्रिफलादि क्वाथ – वृषण शोथ
  • पथ्यादि क्वाथ – उदर, हस्त पाद व मुख शोथ
  • पुनर्नवादशक क्वाथ – उदर शोथ
  • चिरयाता + सोंठ समभाग – सर्वांग शोथ
  • स्थलपद्मकल्क – सर्वांग शोथ

शोथ रोगी में अतिसार होने पर :-

  • त्रिकटु, मधु, सेंधव मिलाकर दही सेवन
  • हरितकी सेवन
  • सोंठ के साथ गुड़ सेवन

शोथ रोगी में विबंध होने पर :-

  • भोजन पूर्व एरंड तैल या मांस रस पीना चाहिए।
  • अरुचि होने पर आसव अरिष्ट का सेवन

अरुचि, स्त्रोतों में अवरोध, अग्नि नष्ट हो तो :-

  • आसाव अरिष्ट सेवन
    • गण्डीराद्यरिष्ट
    • अष्टशत अरिष्ट (विशेष कफ वात शोथ रोगी)

शोथ चिकित्सा सामान्य योग :-

  • पुनर्नवाद्यरिष्ट
  • पुनर्नवासव
  • फलत्रिकाद्यरिष्ट
  • कृष्णादि चूर्ण (त्रिदोषज व चिरज शोथ)
  • क्षार गुटिका
  • गुडार्द्रक सेवन
  • गुडनागर
  • गुडाभयां
  • गुडपिप्पली
  • अदरक स्वरस दिन प्रतिदिन वृद्धि करते हुए
  • शीलाजीत सेवन ( त्रिदोषज शोथ)
  • कंस हरितकी
  • पटोलमूलादी क्वाथ
  • चित्रकादि घृत
  • कल्याणक घृत
  • पंचगव्या घृत
  • तिक्तक घृत
  • महातिक्तक घृत
  • चित्रक घृत ( श्रेष्ठ )
  • जीवनत्यादी यवागू
  • आद्रक घृत
  • यवानकादि घृत
  • धांवंतर घृत
  • आभा घृत
  • अजाज्यादि चूर्ण
  • अमृतादि‌ चूर्ण
  • पुनर्नवादि चूर्ण
  • शोथारि चूर्ण
  • पुनर्नवादि लेह
  • त्रिनेत्राख्य रस
  • शोथांकुश रस
  • पंचामृत रस
  • शोथकालानल रस
  • क्षेत्रपाल रस
  • कल्पलता वटी
  • दुग्ध वटी
  • क्षीर वटी
  • तक्र वटी
  • वैद्यनाथ वटी
  • शोथारि रस
  • शोथशार्दुल चूर्ण
  • त्रिकट्वादिमण्डुर
  • सुधानिधि
  • अग्नि मुख मंडुर
  • शोथारि मंडुर
  • तक्र मण्डुर
  • रसाभ्रमंडूर
  • त्रिकट्वादि लौह
  • शोथारि लौह
  • सुवर्चाद्य लौह
  • माणक घृत
  • चित्रकाद्य घृत
  • चित्रक घृत
  • पंचकोलादि घृत
  • गुडादि वटी
  • वज्रारि मण्डुर ( असाध्य शोथ )
  • किट्टादि कषाय
  • तिन्तिणी मण्डुर
  • हरड + मुलैठी
  • मधु + पीपली
  • दूध + भैंस मूत्र
  • अयोरजीयम्
  • दंत्याद्यायसम्
  • गोमूत्र मंडुर
  • वासासव
  • दार्वादि योग
  • श्वयथुघाती रस
  • उदयमार्तण्ड रस
  • त्रैलोक्याडम्बर रस

बाहरी उपयोग के लिए योग :-

  • बहेड़े के मज्ज़ा का लेप (दाह व वेदना शांति)
  • पुनर्नवादि पुटस्वेद
  • अपामार्गादि पुट स्वेद
  • पुनर्नवादि लेप
  • शुष्कमूलकाद्य तैल
  • शोथशार्दूल तैल
  • पुनर्नवादि तैल
  • शैलाद्य तैल
  • समुद्रशोषण तैल
  • भैंस के दूध में तिलो को पीसकर लेप
  • मूली स्वरस से परिमार्जन
  • इमली के पत्तो से स्वेदन
  • पंचमूलादि तैल
  • दार्वादि लेप
  • अर्कादि लेप
  • न्यग्रोधादि लेप
  • गोधूम पोलिका
  • कुटजादि स्वेद

स्थान भेद से शोथ भेद व नामकरण:-

  • शिर शोथ :- दोष प्रकुपित होकर शिर के बाहरी प्रदेश में भयंकर शोथ (Shotha) उत्पन्न करते है।
  • शालुक :- दोष जब कण्ठ प्रदेश में इखट्टा हो जाते हैं, श्वास में रुकावट और घुर्घुर शब्द उत्पन्न होता है।
  • विडालिका :- गले की संधि, चिबुक प्रदेश, गले में, श्वासवाह प्रणालियों में दाह व लालिमा युक्त भयंकर शोथ उत्पन्न होता है, वेदना की प्रबलता हो।
    • अगर शोथ गले में चारो तरफ वलयाकार हो जाय तो रोगी को मार डालती है।
  • तालुविद्रधि :- कफ प्रधान तीनो दोष तालु प्रदेश में दाह व लालिमा युक्त शोथ
  • उपजिह्वा :- जिह्वा के ऊपरी भाग में उत्पन्न होने वाला शोथ
  • अधिजिह्विका :- जिह्वा के नीचे के भाग में होने वाला शोथ
  • उपकुश :- रक्त और पित्त जब दांत के मांस में कुपित होकर, मसूड़े को पकाएं।
  • दंत विद्रधि :– मसूड़े मे रक्त संचय होने के कारण कफ के द्वारा मसूड़े मे शोथ होता है।
  • गल गंड :– गले के पार्श्व में उत्पन्न शोथ
  • गंडमाला :- गले की शोथ जब बहुत शोथ से युक्त हो

चिकित्सा सूत्र :-

तेषां सिराकायशिरोविरेका धूमः पुराणस्य घृतस्य पानम् । स्याल्लङ्घनं वक्त्रभवेषु चापि प्रघर्षणं स्यात् कवलग्रहश्च ।। (च. चिकित्सा 12/ 80)

सिराव्यध, कायविरेचन, शिरोविरेचन (नस्य), धूमपान और पुराने घृत का पान करना हितकर होता है। मुख के भीतरी भाग (गले) में होने वाले शालूक आदि शोथों (Shotha) में लङ्घन, प्रघर्षण (चूर्णों का मलना) और कवलग्रह धारण करना हितकर होता है।

Siravedana in Shotha Treatment
Siravedana in Shotha Treatment

ग्रंथि :-

  • ग्रंथि :- शरीर के किसी एक प्रदेश में अपने अपने दोष के लक्षण युक्त सिरा के विकार होते है, उसमे फरफराहट रहती है,
    • मांस का विकार होता है जिसके कारण बड़े बड़े ग्रंथि होती है और वेदना का अभाव होता है
    • मेद का विकार होने पर अत्यंत स्निग्ध और चंचल होती है।
    • कुक्षि, उदर, गला, मर्म प्रदेश में हो तो असाध्य होती है
      • अत्यंत मोटी व खुदरी हो
      • बालक, दुर्बल या वृद्ध व्यक्ति में हो तो वह भी असाध्य होती है।

चिकित्सा :-

वमन, विरेचन द्वारा संशोधन करके, ग्रंथि का स्वेदन करे, अगर पकी नही ही हो तो विलयन कर दें। अगर पाक हो गया हो तो समूल निकालकर अग्नि से जलाकर वर्ण की चिकित्सा करें।

स्थान भेद से शोथ भेद व नामकरण (2):-

  • अलजी :- ताम्र वर्ण की पीडिका जो शूल व स्त्राव युक्त हो
  • मांसास्त्रदूषी :- चर्म व नाखून के बीच में रक्त व मांस को दूषित करने वाला, शीघ्र पकने वाला शोथ।
  • विदारिका :- वंक्षण, कक्षा, वर्ती के समान वेदना रहित, कठिन, लंबा शोथ ज्वर के साथ उत्पन्न होने वाली। कफ व वात के कारण उत्पन्न होती है।
  • विस्फोटक :- शरीर के सम्पूर्ण भाग पर स्फोट के समान दाह, ज्वर, तृष्णा युक्त पीडिका।
  • कक्षा :- यज्ञोपवीत के समान पित्त व वायु से उत्तन्न होने वाली पिडिका
  • पित्तजपडिका :- स्थूल, अणु, मध्य प्रमाण की विभिन्न भाग मे फैली हुई।
  • रोमांतिका :- राई के आकार की संपूर्ण शरीर पर फैली हुई, ज्वर, दाह, तृष्णा,‌‌ कण्डु, अरुचि, मुख से जल आना, पित्त व कफ से उत्पन्न होती है।
  • मसूरिका :- सर्व शरीर मे पित्त व कफ से होने वाली पिडिका।
  • ब्रध्न :- इसमें क्षुद्रांत बार-बार अण्डकोष में प्रवेश और निकल जाते है।
  • मूत्रवृद्धि :- मूत्र अंडकोष में अधिक रूप से भर जाता है, कोमल प्रतीत होता है।
  • मेदोजवृद्धि :- जब अंडकोष में मेद अधिक रूप से भर जाता है, स्पर्श में स्निग्ध और शोथ कठिन होता है।
  • भगंदर :- कृमि के द्वारा या अस्थि आदि के द्वारा गुदा में क्षत होने से तथा अधिक मैथुन, बार-बार प्रवाहण क्रिया, उत्कट आसन में बैठना, घोड़े आदि की पीठ पर चढ़कर सवारी करना, इन कारणों से गुदा के पार्श्व में एक पिडिका उत्पन्न होती है, जिसमें वेदना बहुत अधिक होती है। जब वह पिडिका पककर फूट जाती है।
  • श्लीपद :- जङ्घाओं में और पिण्डलियों में और पैर के ऊपरी भाग प्रपद में मांस, कफ, रक्त के कारण।
  • जालकगर्दभ :- दूषित हुए पित्तप्रधान मन्द वात-कफ दोष अत्यन्त तीव्र शोथ को उत्पन्न करते हैं। यह शोथ तला और इसमें रक्त का पाक होता है। इस प्रकार के शोथ में रोगी को ज्वर, प्यास आदि उपद्रव हो जाते हैं। शोथ विसर्प रोग समान फैलने वाला होता है।

चिकित्सा :-

  • ब्रध्न व मूत्रवृद्धि :- विरेचन, अभ्यंग, निरुह बस्ति, लेप।
    • पक जाने पर व्रण के समान शस्त्रकर्म, शोधन, रोपन
  • मेदोज, कफज वृद्धि :- शस्त्र क्रिया से चीरा लगाकर सेवन क्रिया करे।
  • भगंदर :- विरेचन, पाटन क्रिया करनी चाहिए। अथवा क्षारसूत्र से भेदन करे और व्रण के समान चिकित्सा करे।
  • श्लीपद :- सिराव्यध और कफनाशक सम्पूर्ण चिकित्सा की जाती है तथा श्लीपद के ऊपर सरसों का लेप लगाया जाता है
  • जालकगर्दभ :- लेप, रक्तमोक्षण, शरीर को रूक्षण करना, शरीर का शोधन वमन विरेचन द्वारा करना चाहिए। इसके बाद आँवला का प्रयोग (अन्तः तथा बाह्य) और अन्य शीतल द्रव्यों का लेप।

आगंतुक शोथ :-

अभिघात (चोट) लगने से प्रायः उस अभिघात लगने वाले स्थान पर रक्त के साथ कुपित हुई वायु वर्ण का शोथ (Shotha) उत्पन्न करती है। आगन्तुक शोथ की चिकित्सा= आगन्तुक शोथ में विसर्प रोगनाशक तथा वातरक्त नाशक द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए। विषज शोथ= यदि शोथ विषजन्य हो, तो विषनाशक औषधों का प्रयोग करना चाहिए

  • क्षारादि गुटिका

शोथ के उपद्रव/ Complications :-

छर्दिः श्वासोऽरुचिस्तृष्णाज्वरोऽतीसार एव च । सप्तकोऽयं सदौर्बल्यः शोथस्यैते उपद्रवाः। (भ. संहिता 42/ 15)

पथ्य :-

  • संशोधन, उपवास (लघु भोजन), स्वेद, प्रलेप, परिषेचन,
  • कुलत्थ, मूँग,
  • पुराना घी, तक्र, सुरा, मधु,
  • आसव, अरिष्ट,
  • निष्पाव (राजमाष), करैला, लाल सहिजन, आम, खेखसा (कर्कोटक), मानकन्द, हुरहुर, गाजर, पटोल, वेंत का अग्र भाग, बैंगन, मूली, पुनर्नवा, चित्रक, फरहद, गनियार, नीम, गोक्षुर के पत्ते, एरण्ड तैल, कटुकी, हल्दी, हरीतकी और क्षार (यवक्षार), भल्लातकमिंगी, शुद्ध गुग्गुलु, लौहभस्म;
  • कटु, तिक्त और दीपनीयवर्ग के द्रव्य,
  • गोमूत्र, अजा मूत्र और महिषीमूत्र,
  • कस्तूरी और शिलाजीत का सेवन करें।
  • पीपली के कल्क से सिद्ध युष
  • त्रिकटु, यवक्षार से सिद्ध मूंग युष
  • कछुआ, गोह, मुर्गा, बटेर, जाङ्गल पशु-पक्षियों के मांस, बिल में रहने वाले मूषक (चूहा), कछुआ, सिङ्गिया मछली
  • हुरहुर, गाजर, परवर, मकोय, मूली, बेल, नीम की पत्ती का साग
  • यव तथा शाली धान्य जो एक वर्ष पुराना हो
  • मधुर मठा, औषद्ध युक्त मद्य
  • पाण्डुरोग में जो पथ्य बताये गये हैं, उनका प्रयोग एवं अग्निकर्म का प्रयोग करना चाहिए
  • थोड़ा थोड़ा कर कटु रस-प्रधान एवं अल्प स्निग्ध आहार
  • गेहु, चावल, चंदन, द्राक्षा, आनार, तक्र, मधु
  • मधुक, लहसुन, छोटी मूली, आंवला

शोथ में अपथ्य :-

  • प्रतिदिन पूर्वी हवा का सेवन, वेग का रोकना,
  • विरुद्ध भोजन, विषम भोजन
  • सभी तरह के पान,
  • मिट्टी खाना,
  • ग्राम्य एवं आनूप पशु-पक्षियों का मांस,
  • पीसे हुए उड़दादि गुरु पदार्थ, दधि,
  • कृशरा,
  • बिना जल मिलाये मद्यपान,
  • अम्ल, भुना हुआ यव, शुष्क मांस,
  • सात्म्य के प्रतिकूल भोजन,
  • शोथ से पीड़ित रोगियों को ग्राम्य, जलीय, आनूप मांस,
  • नमक, सूखा साग, नूतन अन्न, नया अत्र
  • अम्ल, लवण, दूध, चर्बी, तैल, घी पदार्थ
  • गुड़ हुए खाद्य पदार्थ, चावल का आटा,
  • दही, तिल के बने हुए खाद्य पदार्थ,
  • विज्जल (पिच्छिल अन्न), मदिरा, अम्ल द्रव्य, धाना
  • समशन, गुरु, विदाही अन्न
  • दिन में सोना, मैथुन
  • सुप, माष, तिल

Interesting facts about Punarnava :-

Punarnava (Boerhavia diffusa) shotha
Punarnava (Boerhavia diffusa)

Punarnava (Boerhavia diffusa) is a drug which acts as mutrarechaka, which will further promotes the cure of shotha. The liquid
extract of this plant stimulates the urine secretion and discharge. The studies proved that it will speeds up the
filtration process of kidneys and flushes out excessive fluid. Usually diuretic drug’s action is to increase the water/ urine output. Punarnava roots having phenolic glycosides, methanol will increase the osmotic pressure, thereby prevent the reabsorption of water from the tubule into blood. The studies have also proved that the aqueous form of drug is acting more beneficial than powder; this is probably due to better absorption of liquid form through the interstitial tract. Also the leaf extract of punarnava is having analgesic properties too.

Modern intervention:-

Punarnava plant is widely used in Ayurveda for Shotha (odema/ inflammation/ swelling) after seeing this an extract named punarnavine was developed as intravenous injection, alkaloid produces distinct and persistent rise of blood pressure and a marked diuresis, due to chief action on renal epithelium and partially due to rise in BP.

The liquid extract used, contains large amount of potassium nitrate which contributes to diuresis.

Useful in cirrhosis of liver, kala azar & ascites. Due to chronic peritoneal condition, it is not useful in cardiac dropsy or chronic nephritis when given alone, but useful when combined with other diuretics. (Materia Medica by R ghosh).

Modern correlation :-

It can be compared with inflammation, swelling, odema, dropsy. But types can be individually co-related with filariasis, fissures, neoplasms etc.

Definition-

According to National Health Survey (India) extrapolated prevalence of Shotha is
6.25% as mentioned in Charaka samhita.

Swelling is a vague term which denotes any enlargement or protuberance in body due to any cause. According to cause, swelling maybe congenital, traumatic, inflammatory, neoplastic or miscellaneous.

Oedema :- The Greek word ‘oedema’ means ‘swelling’. Oedema is defined as an abnormal and excessive accumulation of “free fluid” in the interstitial tissue spaces and serous cavities.

Types of oedema :-

  1. Localised= When limited to an organ or limb. e.g. lymphatic oedema, inflammatory oedema, allergic oedema, pulmonary oedema, cerebral oedema etc.
  2. Generalised (anasarca or dropsy)= When it is systemic indistribution, particularly noticeable in the subcutaneous tissues. e.g. renal oedema, cardiac oedema, nutritional oedema.
  3. Depending upon fluid composition, oedema fluid may be: →
    • Transudate which is more often the case, such as in oedema of cardiac and renal disease;
    • Exudate such as in inflammatory oedema.

Inflammation is part of the complex biological response of body tissues to harmful stimuli, such as pathogens, damaged cells, or irritants, and is a protective response involving immune cells, blood vessels, and molecular mediators. The function of inflammation is to eliminate the initial cause of cell injury, clear out necrotic cells and tissues damaged from the original insult and the inflammatory process, and initiate tissue repair.

The five cardinal signs are heat, pain, redness, swelling, and loss of function (Latin:- calor, dolor, rubor, tumor, and functio laesa).

Five cardinal signs in shotha
Five Cardinal Signs

Types of inflammation:-

  • Acute inflammation
  • Chronic inflammation

Acute inflammation :-

It is of short duration (lasting less than ylaxis to 2 weeks) and represents the early body reaction, resolves quickly, and is usually followed by healing. The main features of acute inflammation are:

  1. Accumulation of fluid and plasma at the affected site,
  2. Intravascular activation of platelets, and
  3. Polymorphonuclear neutrophils as inflammatory cells.

Chronic Inflammation :-

Chronic inflammation is a cardinal sign of chronic degenerative disorders. A low grade chronic inflammation is also the symptom of most ageing and degenerative diseases. Most of the age related diseases such as Arthritis, Diabetes, Osteoporosis, Atherosclerosis, Parkinson’s disease and Alzheimer’s disease are underlined by chronic inflammation. Unfortunately, chronic inflammation precedes most cancers. Rudolf Virchow, suggested a link between inflammation and cancer, cardiovascular diseases, diabetes and other chronic diseases.